जहां चार व्यंग्यकार मिल जाएं तो क्या होगा?
वही होगा जो ऊपर शीर्षक में लिखा है. और क्या होगा.
विविध भारती के जुबली झंकार में देश के नामी व्यंग्यकार मिले और फ़िल्में आह फ़िल्में वाह के नाम पर हा हा ही ही हू हू हे है की बारहखड़ी बिखेर दी. लीजिए सुनें पहली किश्त.
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और चौथी, और अंतिम किश्त -
हा हा ही ही हे हे हू हू .... बिजली गोल हो गई! भई, मेरे शहर में बिजली बड़ी मंहगी है. ऊपर से बहुत आंख मिचौली खेलती है. ले दे कर मिलती है, थोड़ी थोड़ी और जब तब गोल होते रहती है... हा हा हा.... बू हू हू ... (ज्यादा हंसने से आंखों में आंसू आ ही जाते हैं,)
# अद्यतन - यूनुस खान ने इस कार्यक्रम के बचे भाग की अविकल रेकॉर्डिंग दो भागों में आर्काइव.ऑर्ग पर अपलोड किया है. इसकी एमपी 3 फ़ाइलें यहाँ से डाउनलोड करें -
पहला भाग यहाँ से डाउनलोड करें
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Saturday, May 3, 2008
हा हा हा हा हा हा हा हा ही ही ही हे हे हे हे हे
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10 comments:
चलिये रवि भाई, कम से कम आपकी पोस्ट से पहले मेरी पोस्ट आ गयी. अब दुगुना मजा आ जायेगा.
एक बार तो सुना ही, फ़िर से हसूंगा और सुनूंगा.
धन्यवाद.
सुनकर देखना होगा कहां से आगे रिकॉर्डिंग नहीं हो पाई । बू हू हू हू । अजीत भाई आपकी बात समझ में नहीं आई । क्या आप भी प्रोग्राम अपलोड करने वाले थे । उम्मीद है किसी और ने रिकॉर्ड किया ही होगा । बचा हुआ हिस्सा मिल जायेगा ।
नहीं यूनुस भाई, मैंने प्रोग्राम रिकॉर्ड नहीं किया है. मैंने तो एक पोस्ट लिखी थी रवि जी की इस पोस्ट के एक घंटे पहले ही. लगता है आपसे वो पोस्ट miss हो गयी इसीलिये आप समझ नहीं पाये.
ज्यादा दूर नहीं है वो पोस्ट, रेडियोनामा पर ही है. यही तो है.
पूरा नहीं सुन पाए हैं, सुन कर टिपियाएंगे।
वाह जी वाह, बहुत इत्मिनान से घंटो लगाकर सुना. छोड़कर उठने का मन ही नहीं हुआ आखिर ब्रह्मांड के सबसे बड़े व्यंग्यकार हमारे आलोक जी अपनी पसंद राखी का कुलासा खुले आम रेडियो पर जो कर रहे थे.
बहुत बढ़िया प्रोग्राम रहा. बधाई.
टिप्पणी लिखने के फौरन बाद अजीत जी की पोस्ट को बरामद कर लिया गया । हे हे हे ।
पहला भाग सुना मस्त लगा. रवि जी का धन्यवाद.
इस बार बिल्कुल भी मजा नहीं आया यूनुस भाई, संपादन अखरा इस बार!
कहीं कलाकार बोल रहे हैं और गीत चालू हो रहे हैं तो कई बार बीच में गीत अनावश्यक रूप से ठूंसा हुआ लगा, जैसे कभी छेड़ेंगे गली के सब लड़के... एक दो लाईनों से काम चल जाता वहां पूरा गाना जबरन सुनना अच्छा नहीं लगा।
सागर भाई प्रोग्राम का फॉरमेट ऐसा था कि इसमें गाने ज़रूरी थे । लगातार बोले हुए शब्द रहने से एकरसता आ जाती है इसलिए जान बूझकर गाना लगाना पड़ा ।
आलोक जी वाले व्यंग्य में तो गाना जरूरी था क्योंकि उन्होंने जिन जिन पंक्तियों का विश्लेषण किया है उसी उसी जगह पर पंक्तियां लगाई गयी हैं ।
लंबे कार्यक्रम में कई बार अनावश्यक रूप से गाने लगाने पड़ते हैं ।
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।