विविध भारती के लोकप्रिय कार्यक्रम मंथन में फ़िल्मों के प्रचार की बात चली। रेडियोनामा की सौवीं पोस्ट के रूप में पीयूष जी ने इसे प्रस्तुत किया। बात यहां पूरी तरह से व्यावसायिकता की है।
पहले केवल रेडियो सिलोन ही व्यावसायिक था। वैसे रेडियो का नाम मीडिया में समाचार पत्रों के बाद ही रहा। बात अगर फ़िल्मों की करें तो कहना न होगा की फ़िल्में तो पूरी तरह से व्यावसायिक है। अपना व्यवसाय बढाने के लिए दूसरे व्यावसायिक माध्यमों का प्रयोग तो किया ही जाता है। फ़िल्मों के लिए अगर प्रचार माध्यम की बात आए तो रेडियो का महत्व समाचार पत्रों से अधिक ही रहेगा।
पहले रेडियो सिलोन के रेडियो प्रोग्राम फ़िल्मों के प्रचार का बहुत ज़ोरदार माध्यम थे। वैसे रेडियो प्रोग्राम का मतलब होता है रेडियो के कार्यक्रम लेकिन यहां फ़िल्मों के प्रचार के लिए रेडियो प्रोग्राम ही नाम दिया गया। कहा जाता फ़लां फ़िल्म का रेडियो प्रोग्राम।
सिलोन पर लगभग रोज़ ही रेडियो प्रोग्राम आया करते पर रविवार को तो इन कार्यक्रमों की भरमार होती। एक कार्यक्रम कुल 15 मिनट का हुआ करता और रविवार को एक ही घण्टे में 2-3 कार्यक्रम प्रसारित होते थे।
फ़िल्म रिलीज़ होने के कुछ महीनें पहले से ये कार्यक्रम शुरू होते। सप्ताह में कम से कम एक बार होते। अक्सर इन कार्यक्रमों की प्रस्तुति अमीन सयानी करते।
इसमें फ़िल्म से जुड़े सभी नाम बताए जाते। कुछ संवाद सुनवाए जाते। सभी गीतों के मुखड़े बजते। कुल मिलाकर फ़िल्म किस तरह की है ये जानकारी मिल जाती जिससे दर्शकों को ये तय करने में आसानी हो जाती थी कि फ़िल्म देखें या नहीं। जैसे फ़िल्म आज की ताज़ा खबर का रेडियो प्रोग्राम -
इस फ़िल्म के नाम से फ़िल्म का अंदाज़ा नहीं होता था क्योंकि ताज़ा खबर तो कुछ भी हो सकती है। कलाकार भी किरण कुमार और राधा सलूजा थे जिनकी कोई छवि उस समय तक नहीं बन पाई थी। रेडियो प्रोग्राम सुन कर जानकारी मिली कि यह एक मनोरंजक फ़िल्म है। जिन्हें इस तरह की फ़िल्में पसन्द नहीं वे देखने नहीं गए।
जहां तक मेरी जानकारी है यादों की बारात पहली फ़िल्म थी जिसके रेडियो प्रोग्राम में धर्मेन्द्र आए थे। शायद तभी से कलाकारों की इस तरह से प्रचार कार्यक्रम में भाग लेने की शुरूवात हुई।
जब से विविध भारती व्यावसायिक हुई तो यहां भी रेडियो प्रोग्रामों का दौर शुरू हुआ और शायद पहली फ़िल्म थी रातों का राजा जिसके नायक थे धीरज कुमार जिनकी बतौर नायक शायद यह पहली फ़िल्म थी।
रेडियो प्रोग्राम का कोई लाभ फ़िल्म को नहीं मिला और फ़िल्म फ़्लाप रही। पर इसका रफ़ी का गाया एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ। सभी तरह के कार्यक्रमों में यह गीत गूंजने लगा था और फ़ौजी भाई तो इसकी कुछ ज्यादा ही फ़रमाइश करते थे -
मेरे लिए आती है शाम चंदा भी है मेरा ग़ुलाम
धरती से सितारों तक है मेरा इंतज़ार
रातों का राजा हूं मैं
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Friday, December 7, 2007
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7 comments:
अन्नपूर्णाजी,
नमस्कार,
फिल्मो के रेडियो प्रोग्रामका मंथन रसप्रद रहा ।
मैनें एक पोस्टमें फिल्म झूमरु के रेडियो प्रोग्राम के बारेमें लिखा था, जो १९५९-६० की बात थी । उसके पहेले फिल्म छोटे नवाबका रेडियो प्रोग्रम भी मूझे याद है । फिल्म जंगली, एप्रील फूल, आओ प्यार करें, सब याद है । फिल्म बोम्बे का चोर के रेडियो प्रोग्रम और विज्ञापन स्व. श्री बालगोविंद श्रीवास्तव और श्रीमती कमल बारोट करते थे । फिल्म जंगली के विज्ञापनमें कश्मीर को महत्व दिया गया था । और कश्मीर की कलीमें भी याहू बजाकर स्व. श्री शील कूमार बोलते थे ’फिर वोही शम्मी कपूर, फिर वोही कश्मीर’ साथमें कमल बारोट भी फिल्म का नाम बोलती थी । उस जमानेमें उस फिल्मो से जूडी हस्तीयों को बूलाने के लिये एक अलग कार्यक्रम रेडियो सिलोन से हर रविवार दो पहर १२.४५ पर संगीत पत्रिका नामसे होता था जो रविवार की सुबह की साप्ताहिक विस्तृत सभा का अन्तिम कार्यक्रम था । उसको पहेले श्री अमीन सायानी और श्रीमती कमल बारोट बारी बारीसे एक एक हप्ते प्रस्तूत करते थे । बादमें श्री ब्रिज भूषणजी और शील कूमारजी भी जूडे । अभी सुरतमें करीब तीन महिना पहेले मेरे घर पर आये श्री गोपाल शर्माजी ने बताया था, कि शील कूमारजी का असली नाम प्रकाश शैल था । और जहाँ तक मूझे याद है, वे जब तक रेडियो सिलोन से विज्ञापन और फिल्मो के प्रायोजित रेडियो कार्यक्रम करते थे अपना नाम नहीं बोलते थे पर सिर्फ़ रविवार रात्री ८.४५ पर आने वाले ’सितारों की दूनिया’ कार्यक्रममें अपना नाम शीक कूमार नहीं पर शिव कूमार बोलते थे । कुछ इस तराह ’ये प्रोग्राम श्री बाल गोविन्द श्रीवास्तवनें तैयार किया और शिव कूमार ने प्रस्तूत किया ।’ यहाँ एक बात साफ़ कर दूँ, कि इस शील कूमार या शिव कूमार को मैं रेडियो सिलोन के नियमीत उद्दघोषक रहे कवि स्व. शिव कूमार ’सरोज’ से मिलावट नहीं ही करता हूँ । फिल्म रातों का राजा के विज्ञापन रेडियो सिलोन से भी आते थे, जो श्री अमीन सयानी साहब ही करते थे ।
फ़िल्म 'संगम' का प्रोमो रेडियो कार्यक्रम आज भी याद है जिसमे वैजयंतीमाला का इस फ़िल्म का dialogue सुनाया जाता था "जिंदगी भर घास खोदते रहिएगा मिस्टर खन्ना "
श्री राजेन्द्रजी,
क्या आपको याद है कि लिडर फिल्म के विज्ञापन और रेडियो प्रोग्राम्स पहेले नक्वी रझवी करते थे पर इस फिल्म की पब्लिसीटी के दौरान ही वे इस पैसे से अपने आपको बाहर कर गये थे, इस वजहसे बाकी समय के लिये उसकी पब्लिसीटी श्री अमीन सायानी साहबने की थी ?
पियुष महेता ।
पीयूष जी इस जानकारी के लिए धन्यवाद. हम सब इस बात के लिए आपके शुक्रगुजार हैं कि आप ऐसी जानकारियां दे कर इतिहास को संजो रहे है, दर्ज कर रहे हैं. यह बड़ा काम है. आपसे रेडियो और संगीत के बारे में और भी जानने की ललक हमेशा बनी रहेगी.
राजेन्द्रजी,
बात एइसी है, कि किशोरदा को लोगोने भले ही आराधना के बाद प्यार दिया, पर मैं जबसे (१९५७ से यानि मेरी ८ सालकी उम्रसे ही उनका और तलत साहबका चाहक रहा हूँ । और रफी साहब के मुकाबले उन दोनोंके गाने कम बजते थे तो जब भी बजते थे उनके लिये एक अजीबसा खि़चाव रहता था । क्यों की रेडियो के अलावा कोई साधन ज्यादा आम लोगो के लिये उपलब्ध नहीं थे, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा, कि रेडियो भी बहोत कम थे । इस तरह जब भी किशोरदा या तलत साहब के बारेमें कोई विशेष बात पढ़नी या सुननी मिलती मन झूम उठ़ता है । इस तरह यह बात भी कोई मेहमूद साहब के लिये प्रसिद्ध हुए श्रद्धांजलि लेखमें पढी़ ही है और किशोरदा की चाहना के कारण याद रह गयी है । हाँ, वह अख़बार या सामयिक का नाम या लेखक का नाम याद नहीं रह पाया । इस लिये उनका जिक्र नहीं कर सकता, इसका खेद है ।
पियुष महेता ।
पीयूष जी किशोर कुमार की धूम तो आराधना के पहले भी थी. हालांकि वे इससे पहले ख़ुद अपने लिए या देव आनंद के लिए ही गाते थे. आराधना से पहले किशोर थोड़े नेपथ्य में चले गए थे यहाँ तक कि एस डी बर्मन भी रफी से देव आनंद के लिए गवाने लगे थे. आराधना के जरिये किशोर फिर उभर कर आए. समाज के बदलते मिजाज़ से एकाकार हो कर उभरने वाले राजेश खन्ना की आवाज़ बन कर वे क्लिक हो गए. उनका फंटूश फ़िल्म का गाना "दुखी मन मेरे सुन मेरा कहना" मेरे सबसे पसंददीदा गानों में एक है.
charchaa ke liye sabhii ka dhanyavaad
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