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Saturday, May 31, 2008
रेडियोनामा: गुलदस्ता
आपने जो सुगम संगीत के और गुल्दस्ता के बारेमें लिखा़ है, वह सही है, पर यह बात संगीत के सभी प्रकारो को लागु होती है, यहा~ तक, कि फिल्म संगीत की भी कई रचनाएं इस तरह की है, उदाहरण के तौर पर गोल्डन ज्यूबिली मन चाहे गीत्तमें स्व. किशोर दा का गाना करीब ३ अक्तूबर,२००७ के दिन बजा था, जो फिल्म मूसाफि़ऱ से था और सलिलदा के संगीतमें था, जिसके बोल थे मून्ना बडा प्यारा जो विविध भारती की केन्द्रीय सेवा से पहेली बार बजा था, जो अभी तक तो अन्तीम बार ही है । मेरी फोन इन फरमाईश पर, जो किशोरदा के लिये विषेष था, फिल्म मेम साहब का गाना दिल दिल से मिला कर देखो, भी प्रथम बार और अभी तक़ अन्तीम बार बजा था । फिल्मी धूनो का तो क्या कहना ? सन २००० के मिलेनियम छाया गीत के दौरान एक और सिर्फ़ एक दिन श्री युनूसजीने अन्तराल के दौरान श्री एनोक डेनियेल्स की पियानो-एकोर्डियन पर बजाई ७८ आरपीएममें रेकोडमें प्रस्तूत फिल्म दिल अपना और प्रित पराई के गीत मेरा दिल अब तेरा हो साजना सुनाई थी, जो भी प्रथम बार और अब तक अन्तीम बार थी ।
क्षेत्रीय सुगम संगीत के कलाकारों का भी आकाशवाणी के क्षेत्रीय चेनलोनए यही हाल किया हुआ है । आकाशवाणी अहमदाबाद के एक समय के सहायक केन्द्र निर्देषक श्री तुषार शुक्ल साहबने उस समय एक साप्ताहिक श्रंखला कंकुनो सुरज नाम से शुरू की थी जिसमें इस प्रकार के सभी गुजराती नाट्य संगीत, सुगम संगीत और फिल्म संगीत को परस्तूत करके सभी की सभी रचनाओंसे इन्साफ़ किया था। जिसमें श्रोताओं के प्रतिभाव (मेरे दो बार सहित) भी प्रस्तूत होते थे और कई श्रोताओंने तो अपने निजी़ संग्रहमें से भी इस प्रकार की रचनाओं को आकाशवाणी को भेंट के रूपमें दिया था । पर अब काफी़ लम्बा समय इस श्रंखला को बंध हुए हो गया ।
पियुष महेता ।
सुरत-३९५००१
Friday, May 30, 2008
गुलदस्ता
यह कार्यक्रम हमेशा से ही विविध भारती पर प्रसारित होता रहा है। पहले यह रंग-तरंग नाम से दोपहर में प्रसारित होता था।
ऐसा ही कार्यक्रम सिलोन पर साढे बारह से एक बजे तक दोपहर में हुआ करता था। यही कार्यक्रम दस या पन्द्रह मिनट के लिए सुगम संगीत नाम से हैदराबाद केन्द्र से भी होता है। आजकल बहुत ही कम हो गया है।
इसी कार्यक्रम से कई ऐसे कलाकारों की पहचान बनती है जो फ़िल्मों तक नहीं जाते। इसके अलावा फ़िल्मी हस्तियों को भी एक अलग अंदाज़ में हम सुन सकते है।
पहले तो इस कार्यक्रम में गीतकार या शायर, गायक और संगीतकार के नाम ही बताए जाते थे पर अब समय के साथ-साथ बदलाव आया है और एलबम के नाम भी बताए जाते है।
ऐसे एलबमों के गीत भी बजते है जिससे नामचीन हस्तियाँ जुड़ी है जैसे दिशा एलबम में आवाज़ अलका याज्ञिक की और गीत अटल बिहारी वाजपेयी के है। इस तरह गुलदस्ता में पुराने नाम भी है जैसे हेमन्त कुमार जाने पहचाने नाम है जैसे जावेद अख़्तर, गुलज़ार, आशा भोंसले और ऐसे नाम भी है जो ग़ैर फ़िल्मी संगीत में अधिक सुने जाते है जैसे जगजीत सिंह, हरिहरन और साथ ही नए नाम भी जुड़ते है।
चुनाव भी बहुत बढिया होता है। युगल स्वरों की यह ग़ज़ल -
जब रात का आँचल गहराए
और सारा आलम सो जाए
तुम मुझसे मिलने शमा जला कर
ताजमहल में आ जाना
यह राजेन्द्र मेहता नीना मेहता से लेकर स्थानीय केन्द्र में हैदराबाद के स्थानीय कलाकारों की आवाज़ों में भी कई-कई बार सुना और हर बार सुनना अच्छा लगा।
आजकल आकाशवाणी के शुरूवाती दौर के कलाकारों की आवाज़ें बहुत कम सुनने को मिल रही है जैसे उषा टण्डन, शान्ता सक्सेना, शान्ति माथुर, मधुरानी। वैसे भी आजकल फ़िल्मी गीतों से ज्यादा गैर फ़िल्मी गीत आ गए है और इस तरह के कार्यक्रम होते है कम इसीलिए पुरानी आवाज़े कम होती जा रही है।
लगता है विविध भारती को जल्दी ही पुराने फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रम की तरह पुराने ग़ैर फ़िल्मी गीतों - ग़ज़लों का कार्यक्रम भी शुरू करना पड़ेगा नहीं तो नई पीढी का परिचय इन लाजवाब कलाकारों से नहीं हो पाएगा।
Wednesday, May 28, 2008
रेडियो से जुड़ी मेरी यादें और विभिन्न उदघोषक (भाग-1)
All India Radio Announcers Pronunciation
“रेडियो” का नाम आते ही एक रोमांटिक सा अहसास मन पर तारी हो जाता है, रेडियो से मेरे जुड़ाव की याद मुझे बहुत दूर यानी बचपन तक ले जाती है। आज भी मुझे अच्छी तरह से याद है कि सन 1975 में जब हमारा परिवार सीधी (मप्र में रीवा/चुरहट से आगे स्थित) में रहता था और मैं शायद छठवीं-सातवीं में पढ़ता था। घर पर एक विशाल सा रेडियो था बुश बैरन (Bush Baron) का, आठ बैंड का, चिकनी लकड़ी के कैबिनेट वाला, वाल्व वाला। उस जमाने में ट्रांजिस्टर नहीं आये थे, वाल्व के रेडियो आते थे, जिन्हें चालू करने के बाद लगभग 2-3 मिनट रुकना पड़ता था वाल्व गरम होने के लिये। उन रेडियो के लिये लायसेंस भी एक जमाने में हुआ करते थे, उस रेडियो में एक एंटीना लगाना पड़ता था। वह एंटीना यानी तांबे की जालीनुमा एक बड़ी सी पट्टी होती थी जिसे कमरे के एक छोर से दूसरे छोर पर बाँधा जाता था। उस जमाने में इस प्रकार का रेडियो भी हरेक के यहाँ नहीं होता था और “खास चीज़” माना जाता था, और जैसा साऊंड मैने उस रेडियो का सुना हुआ है, आज तक किसी रेडियो का नहीं सुना। बहरहाल, उस रेडियो पर हमारी माताजी सुबह छः बजे मराठी भक्ति गीत सुनने के लिये रेडियो सांगली, रेडियो परभणी और रेडियो औरंगाबाद लगा लेती थीं, जी हाँ सैकड़ों किलोमीटर दूर भी, ऐसा उस रेडियो और एंटीना का पुण्य-प्रताप था, सो रेडियो से आशिकाना बचपन में ही शुरु हो गया था।
सीधी में उन दिनों घर के आसपास घने जंगल हुआ करते थे, सुबह रेडियो की आवाज से ही उठते थे और रेडियो की आवाज सुनते हुए ही नींद आती थी। उन दिनों मनोरंजन का घरेलू साधन और कुछ था भी नहीं, हम लोग रात 8.45 पर सोने चले जाते थे, (आजकल के बच्चे रात 12 बजे भी नहीं सोते), उस समय आकाशवाणी से रात्रिकालीन मुख्य समाचार आते थे, और श्री देवकीनन्दन पांडेय की गरजदार और स्पष्ट उच्चारण वाली आवाज “ये आकाशवाणी है, अब आप देवकीनन्दन पांडे से समाचार सुनिये…” सुनते हुए हमें सोना ही पड़ता था, क्योंकि सुबह पढ़ाई के लिये उठना होता था और पिताजी वह न्यूज अवश्य सुनते थे तथा उसके बाद रेडियो अगली सुबह तक बन्द हो जाता था। देवकीनन्दन पांडे की आवाज का वह असर मुझ पर आज तक बाकी है, यहाँ तक कि जब उनके साहबजादे सुधीर पांडे रेडियो/फ़िल्मों/टीवी पर आने लगे तब भी मैं उनमें उनके पिता की आवाज खोजता था। रेडियो सांगली और परभणी ने बचपन के मन पर जो संगीत के संस्कार दिये और देवकीनन्दन पांडे के स्पष्ट उच्चारणों का जो गहरा असर हुआ, उसी के कारण आज मैं कम से कम इतना कहने की स्थिति में हूँ कि भले ही मैं तानसेन नहीं, लेकिन “कानसेन” अवश्य हूँ। विभिन्न उदघोषकों और गायकों की आवाज सुनकर “कान” इतने मजबूत हो गये हैं कि अब किसी भी किस्म की उच्चारण गलती आसानी से पचती नहीं, न ही घटिया किस्म का कोई गाना। अस्तु…
जब थोड़े और बड़े हुए और चूंकि पिताजी की ट्रांसफ़र वाली नौकरी थी, तब हम अम्बिकापुर (सरगुजा छत्तीसगढ़) और छिन्दवाड़ा में कुछ वर्षों तक रहे। उस समय तक घर में “मरफ़ी” का एक टू-इन-वन तथा “नेल्को” कम्पनी का एक ट्रांजिस्टर आ चुका था (और शायद ही लोग विश्वास करेंगे कि नेल्को का वह ट्रांजिस्टर -1981 मॉडल आज भी चालू कंडीशन में है और उसे मैं दिन भर सुनता हूँ, और मेरी दुकान पर आने वाले ग्राहक उसकी साउंड क्वालिटी से रश्क करते हैं, उन दिनों ट्रांजिस्टर में FM बैंड नहीं आता था, इसलिये इसमें मैंने FM की एक विशेष “प्लेट” लगवाई हुई है, जो कि बाहर लटकती रहती है क्योंकि ट्रांजिस्टर के अन्दर उसे फ़िट करने की जगह नहीं है)। बहरहाल, मरफ़ी के टू-इन-वन में तो काफ़ी झंझटें थी, कैसेट लगाओ, उसे बार-बार पलटो, उसका हेड बीच-बीच में साफ़ करते रहो ताकि आवाज अच्छी मिले, इसलिये मुझे आज भी ट्रांजिस्टर ही पसन्द है, कभी भी, कहीं भी गोद में उठा ले जाओ, मनचाहे गाने पाने के लिये स्टेशन बदलते रहो, बहुत मजा आता है। उन दिनों चूंकि स्कूल-कॉलेज तथा खेलकूद, क्रिकेट में समय ज्यादा गुजरता था, इसलिये रेडियो सुनने का समय कम मिलता था।
शायद मैं इस बात में कोई अतिश्योक्ति नहीं कर रहा हूँ कि मेरी उम्र के उस समय के लोगों में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिसने रेडियो सीलोन से प्रसारित होने वाला “बिनाका गीतमाला” और अमीन सायानी की जादुई आवाज न सुनी होगी। जिस प्रकार एक समय रामायण के समय ट्रेनें तक रुक जाती थीं, लगभग उसी प्रकार एक समय बिनाका गीतमाला के लिये लोग अपने जरूरी से जरूरी काम टाल देते थे। हम लोग भोजन करने के समय में फ़ेरबदल कर लेते थे, लेकिन बुधवार को बिनाका सुने बिना चैन नहीं आता था। जब अमीन सायानी “भाइयों और बहनों” से शुरुआत करते थे तो एक समाँ बंध जाता था, यहाँ तक कि हम लोग उनकी “सुफ़ैद” (जी हाँ अमीन साहब कई बार सफ़ेद को सुफ़ैद दाँत कहते थे) शब्द की नकल करने की कोशिश भी करते थे। रेडियो सीलोन ने अमीन सायानी और तबस्सुम जैसे महान उदघोषकों को सुनने का मौका दिया। तबस्सुम की चुलबुली आवाज आज भी जस की तस है, मुझे बेहद आश्चर्य होता है कि आखिर ये कैसे होता है? उन दिनों ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस का दोपहर साढ़े तीन बजे आने वाला फ़रमाइशी कार्यक्रम हम अवश्य सुनते थे। “ये ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सर्विस है, पेश-ए-खिदमत है आपकी पसन्द के फ़रमाइशी नगमें…”, जिस नफ़ासत और अदब से उर्दू शब्दों को पिरोकर “अज़रा कुरैशी” नाम की एक उदघोषिका बोलती थीं ऐसा लगता था मानो मीनाकुमारी खुद माइक पर आन खड़ी हुई हैं।
“क्रिकेट और फ़िल्मों ने मेरी जिन्दगी को बरबाद किया है”, ऐसा मेरे पिताजी कहते हैं… तो भला क्रिकेट और कमेंट्री से मैं दूर कैसे रह सकता था। इस क्षेत्र की बात की जाये तो मेरी पसन्द हैं जसदेव सिंह, नरोत्तम पुरी और सुशील दोषी। तीनों की इस विधा पर जबरदस्त पकड़ है। खेल और आँकड़ों का गहरा ज्ञान, कई बार जल्दी-जल्दी बोलने के बावजूद श्रोता तक साफ़ और सही उच्चारण में आवाज पहुँचाने की कला तथा श्रोताओं का ध्यान बराबर अपनी तरफ़ बनाये रखने में कामयाबी, ये सभी गुण इनमें हैं। फ़िलहाल इतना ही…
अगले भाग में विविध भारती और टीवी के कुछ उदघोषकों पर मेरे विचार (भाग-2 में जारी………)
Tuesday, May 27, 2008
रेडियोनामा: एक सुर बेसुरा सा…
श्री अन्नपूर्णाजी,
आपकी चाह सही है । पर संगीत सरिता के निर्माण और प्रसारण की जो तराह बनी है उसमें इस बातका होना ज्यादा हद तक ना मुमकीन बना हुआ है ।
एक तो पूर्व ध्वनिआंकित कार्यक्रम और श्रंखला बद्ध प्रसारण और कार्यक्रम निर्माण पूरा होने के बाद प्रसारण तारीखे तय होना । अगर इस तरह की श्रद्धांजलिया~ संगीत सरितामें कोई श्रंखला की कोई किस्त का प्रसारण कोई कोई दिन आने वाले दूसरे दिन पर तय करके इस तरह के विषेष श्रद्धांजलि कार्यक्रम प्रस्तूत किये जाये तो इस कि कोई गेरन्टी नहीं कि आने वाले दूसरे दिन भी कोई इस तरह के शास्त्रीय संगीत से जूडे़ कलाकार की जन्म तिथी या पूण्य तिथी नहीं आयेगी । तो इस प्रकार की श्रंखलाओं के समाप्ति तक कितने दिनों के अन्तराल आयेंगे । कहीं आपको ऐसा तो नहीं लगेगा कि युनूसजी और महेन्द्र मोदी साहब का काम मैं कर रहा हू~ । वैसए श्री एनोक डेनियेल्स और श्री अमीन सयानि साहब के विडियो वाले पोस्ट पर प्रतिक्रिया की अपेक्षा रख़ने का मूल उदेश्य ज्यादा लोगो की खुशी की बातोंको उन तक पहोंचाना था, क्यों कि लोगो की चाह उम्रके इस पडाव पर उन जैसे लोगो के जीवन की ताक़त और जीने की चाह बनती है । वैसे यह बात किसी भी व्यक्ति के लिये सहज है । आशा है आप और अन्य पाठ़क मूझसे सहमत होगे ।
पियुष महेता ।
एक सुर बेसुरा सा…
इसके साथ-साथ मेरी संगीत यात्रा श्रृंखला में संगीतज्ञों की पूरी यात्रा उन्हीं की ज़ुबानी सुनाई जाती है जिससे उनकी शिक्षा, उनके कार्यक्रम, पुरस्कार सम्मान आदि के बारे में अच्छी जानकारी मिलती है।
पर कभी किसी कार्यक्रम में यह नहीं सुना कि आज अमुक कलाकार का जन्मदिन है, पुण्यतिथि है, उन्हें अमुक सम्मान मिला है। यहाँ तक कि हर साल गणतंत्र दिवस पर विभिन्न क्षेत्रों में योगदान के लिए सरकार पद्म पुरस्कार प्रदान करती है। इस सिलसिले में शास्त्रीय संगीत के कई कलाकार सम्मानित हुए। इतना ही नहीं विदेशों में भी भारतीय कलाकार सम्मानित होते है पर कभी विविध भारती ने इसकी चर्चा नहीं की।
कई बार विभिन्न कार्यक्रमों में सुनने को मिलता है कि आज अमुक गायक कलाकार या संगीतकार या गीतकार या निर्माता-निर्देशक का जन्मदिन या पुण्य तिथि है या उन्हें अमुक सम्मान मिला है और शुरू हो जाता है उनके गीतों का सिलसिला।
यह सिलसिला भूले-बिसरे गीतों से शुरू होता है। सुहाना सफ़र में, मन चाहे गीत में गीत बजते है। यहाँ तक कि अक्सर एक ही फ़िल्म से कार्यक्रम भी समर्पित हो जाता है।
फ़िल्मी दुनिया के अलावा कुछ और हस्तियों को भी याद किया जाता है जैसे सखि-सहेली में कल्पना चावला, सुनिता विलियम्स। और तो और जब भारत की क्रिकेट टीम कहीं मैच जीतती है तब मन चाहे गीत में भी उन्हें बधाई दे दी जाती है। पर खेद है कि संगीत सरिता में ऐसा कभी कुछ नहीं होता।
अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कई कलाकार हमारे साथ है जो अब भी शास्त्रीय संगीत की परम्परा बनाए रखे है। कुछ हमसे बिछुड़ गए। आख़िर यह हमारी संस्कृति का महत्वपूर्ण अंग है इतनी महत्वपूर्ण फ़िल्में तो नहीं।
मानते है कि विविध भारती के कार्यक्रम फ़िल्मों से ही अधिक जुड़े है पर संगीत सरिता जैसे कार्यक्रमों का अपना महत्व है जिनका अपनी संस्कृति को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान है। रोज़ संगीत सरिता सुनने पर भी पता ही नहीं चलता कि किस महान संगीतज्ञ का जन्मदिन, पुण्यतिथि कब है। किसे, कब, क्या सम्मान मिला है।
आशा है इस कार्यक्रम में कलाकारों के योगदान को भी उचित समय पर उचित रूप में याद कर इस कार्यक्रम को कलाकारों के लिए समर्पित किया जाएगा। किसी महान संगीतज्ञ के जन्मदिन या पुण्यतिथि या उन्हें सम्मान मिलने पर संगीत सरिता में उनका गायन वादन प्रस्तुत कर उनकी शैली की चर्चा की जएगी।
Saturday, May 24, 2008
यह विविध भारती का विज्ञापन कार्यक्रम है
आपने स्थानीय विज्ञापन प्रसारण सेवा के केन्द्रों के झरोखा की बात प्रस्तुत की है उसमें मुम्बई विज्ञापन प्रसारण सेवा कुछ: इस तरह से अलग रही है । एक समय उस पर मराठी भाषा सिर्फ़ कुछ: गिने चुने विज्ञापनों तक ही सीमीत थी । यह बात करीब १९६७ से १९७० तक की है । यह केन्द्र केन्द्रीय विज्ञापन प्रसारण सेवा से अलग हुआ था । इस लिये शुरूमें वहाँ से सभा की शुरूआत में , बीचमें बार बार और सभा के अन्तमें कहीं भी मुम्बई नाम नहीं था पर सिर्फ़ यह विविध भारती का विज्ञापन कार्यक्रम इस प्रकार से उद्दघोषणा होती थी ।
बादमें अन्य केन्द्रों की तरह ’विविध भारती की विज्ञापन प्रसारण सेवा का यह मुम्बई केन्द्र है ’ बादमें एक दौर इस तरह का आया कि, आमी विविध भारती ची जाहेरात सेवा चे मुम्बई केन्द्रावरण बोलत आहे बोला जाता और बादमें मराठी नाटकरंग और मराठी सुगम और फिल्म संगीत के स्थानीय या कहिये कि केन्द्र के प्रसारण मर्यादा को देख़ते हुए अर्धक्षेत्रीय कार्यक्रमो को छोड़ कर इस मराठी उद्दघोषणा के साथ बोला जाता था कि अब सुनिए झरोखा या मधुमालती या बेलाके फूल जो बही मराठी वाले उद्दधोषक हिन्दीमें बोलना शुरू करते थे। (जिसमें विविध भारती की केन्द्रीय सेवाके आज दिनों के और भूतकाल के भी जानेमाने उद्दघोषक श्री अमरकान्त दुबे जी भी थे) ।
रात्री ११.३० पर अन्तिम स्थानीय कार्यक्रम के बाद सभा समाप्ती के पूर्व स्थानीय हवामान सूचना भी हिन्दी में रहती थी पर सभा समाप्ती वही उद्दघोषक मराठी में करते है; हाँ हिन्दी फिल्म संगीत के स्थानिय कार्यक्रमो में वे लोग प्रस्तुति माध्यम अन्य वि.प्र.सेवा की तरह क्षेत्रीय भाषा नहीं पर हिन्दी ही रख़ते है ।
एक बात का ताज्जूब हो रहा है, कि श्री अमीन सायानी साहब को पहेले तकनीकी कारणो सर नहीं देख़ पाने पर जो एक श्री अमीन साहब को सुनने-देखनेकी की इन्तेजारी पाठ़कोमें थी उसकी खुशी यह मोका मिलने के श्री कान्तीभाई, श्रीमती लावण्याजी ,श्री खु़शबूजी और श्री सागरजी (श्री हर्षद भाई तो पुरानी पोस्ट पर देख़ पाने पर ही अपना ख़याल बता चूके थे ) बाद गायब हुई क्यों दिखी यह समझमें नहीं आया । मैंने तो कम बोल कर श्री अमीन साहब को ही ज्यादा बोलने का मोका दिया है ।
इन प्रतिभावो को मैं श्री अमीन साहब को पहोंचाने वाला हूँ । और श्री एनोक डेनियेल्स की पोस्ट वाली धून जो आपका शौक़ की बात है बह भी पता नहीं वला की आपने धूनें सुनी भी या नहीं । श्रीमती ममताजी (गोवा) के भी यह रूचि के विषय है ।
पियुष महेता ।
सुरत ।
चाहो तो इसे पहेली मान लो…
विविध भारती की केन्द्रीय सेवा के साथ-साथ क्षेत्रीय सेवा के कार्यक्रम भी प्रसारित होते है इस तरह विविध भारती ट्यून करने पर हम केन्द्रीय और क्षेत्रीय कार्यक्रमों का मिला-जुला प्रसारण सुनते है और इसी के अनुसार झरोखा में कार्यक्रमों का विवरण बताया जाता है। इसीलिए झरोखा क्षेत्रीय भाषा में सुनने को मिलता है।
आज हम आकाशवाणी हैदराबाद से विविध भारती पर तेलुगु भाषा के झरोखा की बात करेंगें।
जैसा कि हम सब जानते है कि भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत भाषा है। तभी तो बहुत सी भारतीय भाषाओं में कई शब्द संस्कृत के है। दक्षिण की भाषाओं में कुछ ज्यादा ही है। दक्षिणी भाषा सुनने पर हमें कई ऐसे शब्द सुनने को मिलेगें जो संस्कृत के होने के कारण हिन्दी में आसानी से समझे जा सकते है।
इसी बात को ध्यान में रख कर मैं यहाँ आज प्रस्तुत कर रही हूँ - झरोखा जो किसी विशेष दिन का नहीं है। मैं केवल केन्द्रीय सेवा के हिन्दी कार्यक्रमों का केवल विवरण ही बता रही हूँ समय नहीं बता रही हूँ।
हाँ… चाहो तो इसे पहेली मान लो और इस विवरण को हिन्दी में बताओ…
भूले-बिसरे गीत - पात सिनमा नुन्ची सुमधुर पाटलु
शास्त्रीय संगीत आधारंगा कार्यक्रमु संगीत-सरिता - प्रसिद्ध वायलन वादक एम राजम गारि तो निम्मी मिश्रा गारि संभाषणा
ओके विषय आधारंगा पाटलु - त्रिवेणी
सुहाना सफ़र - इन्दुलो कल्याणजी आनन्दजी स्वर बद्ध चेसिना कोनि पाटलु
पाँप संगीत कार्यक्रमु - म्यूज़िक मसाला
श्रोतलु कोरिना सिनमा पाटलु कार्यक्रमु - मन चाहे गीत
स्त्रीला कार्यक्रमम सखि-सहेली - कबरलु , विशेषालु , पाटलु
सेहतनामा कार्यक्रमलो हृदय व्याधि गुरिन्ची डाँ… … चैपतारु
सैनिक सोदरलु कोरिकइना सिनमा पाटलु - जयमाला
पत्रावली - विविध भारती कार्यक्रममपई श्रोतलु अभिप्रायालु , सूचनालु
हवा महल - हाउज़ फ़ुल नाटिका, रचना सुरिन्दर कौर, निर्वाहणा कमल दत्त
गुलदस्ता - गज़ल गान लहरी
ओके सिनमा पाटलु कार्यक्रमु - एक ही फ़िल्म से - ई रोज़ चित्रम अनमोल घड़ी
Thursday, May 22, 2008
मोबाइल पर रेडियो
संचार क्रांति के इस युग में तकनीकी कदम तेज़ी से बढ रहे है। सेलफोन पर रेडियो और कैमरे से शुरूवात हुई और देखते ही देखते संदेश भेजने में तस्वीरों के साथ-साथ वीडियो रिकार्डिंग शुरू हुई फिर ई-मेल और इंटरनेट की सुविधा की चर्चा।
इंटरनेट की सुविधा अभी सामान्य भी नहीं हो पाई कि बात चल रही है मोबाइल पर फ़िल्मों की। वैसे आजकल मोबाइल पर गाने तो देखे जा ही रहे है कल शायद फ़िल्में भी देखने को मिले।
यहाँ एक बात चुभ रही है कि मोबाइल कंपनियाँ तेज़ी से आगे बढ कर सुविधाएँ देने की कोशिश कर रही है पर इनको विस्तार नहीं दे रही जैसे रेडियो के मामले में एक सामान्य सेलफोन में बीस स्टेशन है और इतने ही एफ़एम केन्द्र जिनमें केवल केन्द्रीय सेवा के साथ विविध भारती और स्थानीय केन्द्र ही सेट किए जा सकते है।
जब मोबाइल कंपनियाँ इंटरनेट तक सेट करने की कोशिश कर रही है तो क्यों नहीं रेडियो के विभिन्न तरंगों पर होने वाले प्रसारणों को मोबाइल पर सेट करने की कोशिश करतीं जिससे एफ़एम के साथ-साथ शार्टवेव के प्रमुख केन्द्र जैसे रेडियो सिलोन, उर्दू सर्विस, बीबीसी, वायस आँफ़ अमेरिका तथा मीडियम वेव के स्थानीय प्रसारण भी मोबाइल के इन बीस केन्द्र में सेट हो सकें।
इससे न सिर्फ़ रेडियो के सभी केन्द्र लोकप्रिय होंगें बल्कि विज्ञापन सेवा का भी विस्तार होगा क्योंकि सेलफोन तो हाथ में होते है और हमेशा साथ रहते है जबकि टीवी और कंप्यूटर हमेशा साथ नही रखे जा सकते। इसीलिए विज्ञापनों की होड़ भी यहाँ बढेगी जो मोबाइल कंपनियों को भी विस्तार दे सकेगी। यह काम तकनीकी रूप से बहुत कठिन भी नहीं लगता है।
Wednesday, May 21, 2008
'संगीत सरिता' की अमूल्य कड़ी
विविध भारती और इस कार्यक्रम से जुड़े जो भी लोग जीवित हैं उन्हें युनुस ख़ान के जरिए मेरी पत्नी डॉ. स्वाति का 'आभार ' पहुँचे । स्वाति का जन्मस्थान ग्वालियर है इसलिए उन्हें लाजमीतौर पर शास्त्रीय संगीत में रुचि है ।
युवा कवि एकांत श्रीवास्तव से बातचीत सुनिए विविध भारती पर आज शाम चार बजे ।
जनवरी के महीने में मैंने तरंग पर एकांत श्रीवास्तव से मिलने का एक संस्मरण लिखा था ।
मित्रों का आग्रह था कि जब ये इंटरव्यू प्रसारित हो तो सूचना ज़रूर दी जाए । एकांत मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं और उनसे बातचीत करने में सचमुच बहुत आनंद आया । एकांत श्रीवास्तव से मेरी और कमल शर्मा की बातचीत सुनिए आज शाम पिटारा में । कार्यक्रम होगा 'आज के मेहमान' ।
इस कार्यक्रम में एकांत ने अपने लेखन की शुरूआत, बचपन के दिन, अपनी रचना प्रक्रिया, अपने रचनात्मक संघर्ष, आलोचना की सरज़मीं पर अपने क़दम, संपादन के अनुभव जैसे कई मुद्दों पर बातचीत की है ।
इस अंतरंग बातचीत को ज़रूर सुनियेगा ।
एकांत से जुड़ी तरंग की पुरानी पोस्ट यहां पढि़ये । इसमें एकांत की कुछ कविताएं भी प्रकाशित की गयी हैं ।
Monday, May 19, 2008
ख़ाका
हैदराबादी से मेरा मतलब है हैदराबादी तहज़ीब से जुड़े लोग जो पुराने शहर में ज्यादा नज़र आते है क्योंकि नए शहर में अन्य स्थानों से आकर बसे लोग होने से यह तहज़ीब कुछ कम होती जा रही है।
जहाँ तक आकाशवाणी हैदराबाद की बात करें तो वो पहले रेडियो दक्कन हुआ करता था। हैदराबाद की जो ख़ास उर्दू भाषा है उसे दक्खिनी उर्दू कहा जाता है जिसे महमूद ने फ़िल्मों में बहुत लोकप्रिय किया। हाँ के लिए हौ, ना के लिए नक्को, यहीं है के लिए यईंच है, बातें करना के लिए बाताँ करना जैसे शब्द और वाक्य।
रेडियो में तो अपनी संस्कृति से जुड़े कार्यक्रम प्रसारित होते है। आकाशवाणी हैदराबाद में भी ऐसे कार्यक्रम है जो हैदराबादी संस्कृति दिखाते है। ढोलक के गीतों की चर्चा तो हम पहले ही कर चुके है आज हम बात करेंगें एक ऐसे कार्यक्रम की जिसे विविध भारती की भाषा में झलकी कहा जाता है।
पाँच मिनट से लेकर पन्द्रह मिनट तक प्रसारित होने वाली यह झलकियाँ वास्तव में नाटक ही होती है। आकाशवाणी हैदराबाद के उर्दू कार्यक्रमों में प्रसारित होने वाली इस तरह की झलकियों को ख़ाका कहा जाता है जो हैदराबादी उर्दू में होती है।
इन ख़ाकों के माध्यम से कई बार गंभीर मसलों पर भी संदेश दिए गए है जैसे शिक्षा, परिवार नियोजन आदि। कई ख़ाके ऐसे भी होते है जिनमें नोक-झोक भी होती है। हमारे समाज में दो तरह की नोक-झोक बहुत प्रचलित है एक तो पति-पत्नी या मियाँ-बीवी की और दूसरी सास-बहू की। ऐसी दो झलकियाँ मियाँ-बीवी और सास-बहू शीर्षक से हवामहल में भी प्रसारित हो चुकी है।
अगर इन ख़ाकों में हास्य हो तो मिज़ाहिया ख़ाका कहा जाता है यानि हास्य झलकी। इन ख़ाकों का प्रसारण पहले बहुत होता था - रात में नयरंग में, दोपहर में ख़वातीन (महिलाओं) के लिए कार्यक्रम में परन्तु आजकल जैसे-जैसे हमारी नई पीढी इस तहज़ीब से दूर होती जा रही है वैसे-वैसे इन ख़ाकों के प्रसारणों में कमी आती जा रही है क्योंकि आजकल न तो उस तरह से लिखने वाले रहे और न ही वैसे कलाकार और श्रोता भी तो ऐसे कार्यक्रमों के कम हो गए है।
Sunday, May 18, 2008
मेरी मुम्बई यात्रा में श्री अमीन सायानीजी से मुलाकात भाग-२
मेरी इस श्रंखला जो विडीयो अपलोडिंग के सही नहीं होने के कारण अधूरी छूट गयी थी, इसको इस कडी़ में अपने उन विडीयो रेकोर्डिंग को चार भाग में बांटकर फिर से अलग अलग अपलोड कर रहा हूँ तो देखिये मेरी श्री अमीन सायानी साहब से बातचीत।
: भाग १
भाग २
भाग ३
कथादेश के लोकप्रिय स्तंभ 'यायावर की डायरी' वाले सत्यनारायण जी से बातचीत सुनिए आज विविध भारती पर
रेडियोनामा पर मैं अकसर अपनी जोधपुर जैसलमेर यात्रा का ब्यौरा देता रहा हूं । और वहां रिकॉर्ड किये गये महत्त्वपूर्ण इंटरव्यूज़ के प्रसारण की ख़बरें भी देता रहा हूं ।
लंबे समय तक कथादेश पढ़ते आ रहे लोग जानते होंगे कि सत्यनारायण हिंदी के यायावर लेखक हैं । लगभग आखिरी पन्नों पर छपने वाला उनका कॉलम 'यायावर की डायरी' अपने अनूठे अनुभव-जगत की वजह से बेहद लोकप्रिय रहा है ।
दिलचस्प बात ये है कि सत्यनारायण अपने अनुभव जगत का पिटारा तो अकसर खोलते हैं । पर खुद सत्यनारायण के बारे में हमें बहुत सारी बातें नहीं पता । मसलन वो कहां के रहने वाले हैं । उन्होंने लिखना-पढ़ना कैसे शुरू किया । वग़ैरह । और जब विविध भारती की टोली जोधपुर जैसलमेर की यात्रा पर गई, तो अचानक ही हमने सत्यनारायण जी को इंटरव्यू का निमंत्रण भेजा । उनका नंबर हसन जमाल से प्राप्त किया गया । और फिर थोड़ी ना नकुर तथा संकोच के बाद वो राज़ी हो गये बातचीत के लिए । मुझे पहले ही जोधपुर निवासियों ने ताकीद कर दी थी कि सत्यनारायण जी बहुत कम बोलते हैं । सावधान रहना ।
लेकिन सत्यनारायण खुले और खुलकर बोले । उनका अनूठा अनुभव जगत खुला और उनके जीवन के कुछ अनछुए तथ्य उजागर हुए ।
इस इंटरव्यू को आज शाम चार से पांच बजे के बीच आप यूथ एक्सप्रेस में सुन सकते हैं विविध भारती पर । अगर समय कम है तो समय बारीकी से बता दें । साढ़े चार से पांच बजे तक सत्यनारायण जी से की गयी बातचीत प्रसारित होगी इस कार्यक्रम में । तो रविवार के अपने शेड्यूल में सत्यनारायण से की गयी इस बातचीत को सुनना भी शामिल कर लीजिए ।
ये रहीं सत्यनारायण के साथ की गयी छोटी सी अड्डेबाज़ी की तस्वीर --
Friday, May 16, 2008
क्योंकि रेडियो को रिमोर्ट कन्ट्रोल नहीं होता…
कभी आपने सुना होगा यह संदेश -
थोड़े से संगीत के बाद कहा जाता है - आप सुन रहे है विविध भारती और इसके बाद फिर बज़ उठता है संगीत जिसकी आवाज़ का स्तर बहुत ऊँचा है। इतना ऊँचा है कि अगर तुरन्त आवाज़ कम न की गई तो लगता है कि घर की छत ही उड़ जाएगी।
आवाज़ कम करने के लिए रेडियो के पास ही जाकर नाँब घुमाना पड़ता है क्योंकि रेडियो को तो रिमोर्ट कन्ट्रोल नहीं होता है कि आप दूर से कहीं से भी आवाज़ कम करें और बढा लें।
अक्सर शाम में ये कसरत हो जाती है। सात बजे राष्ट्रीय समाचार बुलेटिन के लिए आवाज़ बढानी पड़ती है। समाचार समाप्त होने के बाद तुरन्त आवाज़ कम करना ज़रूरी हो जाता है। क्योंकि संदेश की आवाज़ बहुत बढ जाती है और यही समय होता है दूरदर्शन के क्षेत्रीय समाचार के मुख्य बुलेटिन का जो पन्द्रह मिनट चलते है और यही वह समय है जब एक पैर रसोई में होता है।
अगर यह सोच कर छोड़ भी दे कि कुछ सेकेण्स का ही तो संदेश है और कभी-कभी संदेश नहीं भी बजता है पर नहीं… उसके बाद बजने वाली जयमाला की संकेत धुन की आवाज़ का स्तर तो… ओफ़्फ़ ! लगता है युद्ध का बिगुल बज उठा है और देश भर के सैनिकों का आह्वान किया जा रहा है। सबसे ऊँची आवाज़ जयमाला के संकेत धुन की ही है।
इतना ही नहीं संकेत धुन के बाद एक बार फिर आवाज़ बढानी पड़ती है तभी तो आप कार्यक्रम सुन पाएगें। जैसे ही उदघोषक की आवाज़ आए रेडियो की आवाज़ बढानी है।
सिर्फ़ शाम ही नहीं दिन में भी कभी-कभार ऐसा हो जाता है। समाचार सुनने के लिए तो आवाज़ ज़रूर बढानी है और समाचार सुनने के बाद ज़रूर कम करनी है।
जहाँ तक संकेत धुनों का सवाल है वन्दनवार की धुन में आवाज़ का स्तर सामान्य है। अन्य धुनों में बढा हुआ है जो जयमाला के लिए ऊँचाई पर है। सभी संदेशों में आवाज़ का स्तर ऊँचा है।
वैसे यह ग़लत भी नहीं कि संदेशों और संकेत धुनों की आवाज़े ऊँची होनी चाहिए पर अब तो स्थितियाँ बदल रही है। आजकल रेडियो सुनते हुए भी टीवी पर समाचार सुने जाते है। सेलफोन से ऐसी जगहों पर भी रेडियो सुने जा रहे है जहाँ से पास बैठे व्यक्ति तक भी आवाज़ न पहुँचे।
ऐसे में क्या प्रसारण के समय कन्ट्रोल रूम से ही सारे प्रसारण की आवाज़ का एक ही स्तर बनाए नहीं रखा जा सकता…
Wednesday, May 14, 2008
जब दो केन्द्र मिले…
कभी-कभी यूँ भी हो जाता कि एक स्टेशन से आवाज़ आने के बजाय पास के दूसरे स्टेशन से आवाज़ आनी शुरू हो जाती और कभी दो स्टेशन एक साथ बोलने लगते तो कभी एक के बाद एक।
आज एक ऐसा ही सीन याद आ रहा है जो मैनें एक हिन्दी फ़िल्म में देखा था जिसमें संजीव कुमार थे और नायिका शायद मौसमी चटर्जी थी।
होता यूँ है कि पति-पत्नी में झगड़ा हो जाता है तो पति संजीव कुमार कहते है कि पत्नी के बिना भी घर चल सकता है। कौन सी बड़ी बात है घर के काम करना। फिर गुस्से में ट्रांज़िस्टर चालू करते है और सुनाई देने लगता है महिला संसार कार्यक्रम जिसमें एक महिला आलू की सब्जी बनाना बता रही है। संजीव कुमार सोचते है मैं भी यह सुन कर सब्जी बनाऊंगा और शुरू हो जाते है।
तभी आवाज़ बन्द हो जाती है और धक्का देने पर दूसरा स्टेशन आता है जहाँ एक अवकाश प्राप्त फ़ौजी भाई अच्छे स्वास्थ्य के लिए योगासन बता रहे है। फिर दोनों केन्द्र मिल जाते है और संजीव कुमार कुछ इस तरह से काम करते है -
महिला - पहले आलूओं को धोइए
फ़ौजी भाई - फिर लंबी-लंबी सांसे लीजिए
अब आलूओं का छिलका निकल गया है अब इसके टुकड़े करने के लिए
दोनों हाथ ऊपर उठाइए नज़रे सीधी रख सामने देखिए
अब कढाही में तेल गरम करने के लिए रखिए
फिर धीरे-धीरे अपना बायां पैर ऊपर उठाइए और एक पैर पर खड़े हो जाइए
अब इन लम्बे टुकड़ों को धीरे-धीरे कढाही में छोड़िए
इसके लिए हाथों को नीचे ले आइए ताकि सुविधा रहे
अब जब तक टुकड़े गहरे लाल न तले जाए
ऐसे ही खड़े रहिए
अब टुकड़ों को पलटने के लिए
धीरे-धीरे अपना पैर ज़मीन पर ले आइए
करछी से धीरे से टुकड़ों को पलटाइए
और गहरी साँसे लीजिए, ऐसा तीन बार कीजिए
जिससे आलू पूरे लाल तले जाएगें
अब अगले आसन के लिए तैयार हो जाइए
सारा मसाला कढाही में मिला दीजिए
अगले आसन से पहले थोड़ा विश्राम करें
फिर नमक मिर्च डाल कर दो मिनट भूनिए और गरमा गरम सब्जी तैयार
और इसी के साथ रेडियोनामा का 250वाँ और अपना 90वाँ चिट्ठा समाप्त कर मैं बढ रही हूँ शतक की ओर
happy blogging and enjoy आलू की सब्जी…
Monday, May 12, 2008
रवीन्द्र संगीत
समाचार पत्रों में विभिन्न जगह आयोजित कार्यक्रमों के समाचार मिले जिनमें से आकर्षक कार्यक्रम था गुरूदेव की भूमि कलकत्ता के विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम जो साहित्य, कला और संगीत से सरोबार रहा।
रवीन्द्रनाथ टैगोर के साहित्य का अनुवाद तो सभी भाषाओं में हुआ। हिन्दी अनुवाद को विविध भारती के हवामहल के अलावा नाटकों में भी सुना और कई-कई बार सुना। बहुत ही सुन्दर नाट्य रूपान्तर और प्रस्तुति। पर खेद है कि कभी भी रवीन्द्र संगीत की चर्चा नहीं हुई।
संगीत सरिता कार्यक्रम रोज़ प्रसारित होता है। वर्षों से प्रसारित हो रहा है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत, वाद्य, फ़िल्मी संगीत की जानकारी दी जाती है। कर्नाटक संगीत की भी चर्चा होती है। बहुत ही बारिकी से यह भी बताया जाता है कि शास्त्रीय संगीत के इन दोनों रूपों हिन्दुस्तानी और कर्नाटक की परम्परा क्या है, इनमें समानता और फ़र्क क्या है और फ़िल्मों में इसका प्रयोग कैसा रहा।
यहां तक कि दोनों तरह के संगीत में प्रयुक्त होने वाले वाद्यों की चर्चा भी विस्तार से की जाती है जिसमें जाने-माने संगीतज्ञ भी भाग लेते है। पर शास्त्रीय संगीत के तीसरे रूप रवीन्द्र संगीत की कभी चर्चा नहीं हुई।
मुझे लगता है कि सचिन देव (एस डी) बर्मन और अनिल विश्वास के संगीत पर कुछ तो छाप रवीन्द्र संगीत की होगी। हो सकता है कि मन्ना डे और पंकज मलिक की गायकी पर भी इसका प्रभाव रहा हो। इन सभी कलाकारों पर संगीत सरिता में चर्चा तो की गई पर रवीन्द्र संगीत का कभी नामो-निशान नहीं रहा।
यह आकाशवाणी संस्कृति के बाहर की बात तो नहीं है। कलकत्ता के केन्द्रों से ज़रूर रवीन्द्र संगीत के कार्यक्रम होते होंगें ऐसा मेरा अनुमान है। क्या संगीत सरिता में एक श्रृंखला ऐसी नहीं हो सकती जिससे रवीन्द्र संगीत के बारे में कम से कम आरंभिक जानाकारी मिल जाए ?
Saturday, May 10, 2008
जी हुज़ूर, बहुत फ़र्क है आकाशवाणी और एफ़एम स्टेशनों के कार्य-कल्चर में !
हम आकाशवाणी संस्कृति के लोग हैं ...हम अपना रेट बताने के आदी नहीं आपके स्टेशन के जो भी व्यावसायिक मानदंड हैं , मुझे मंज़ूर होंगे.मैने सोचा इस बार बात हो ही जानी चाहिये ....क्योंकि आख़िर आप भी मेरी आवाज़ को बेच ही रहे हैं न. ख़ैर थोड़ी ही देर बाद बंदे का फ़ोन आया...कहने लगा सर ! हमारे पैकेज इस तरह से हैं . मैने कहा बात राशि की नहीं व्यावसायिक अनुशासन की है.
मैं पहुँच गया उनके स्टेशन ...स्क्रिप्ट देखा....स्टुडियोज़ में पहुँचे...एक दो टेक में काम हो गया....वाह ! वाह !...चलें ...जी सर !मज़ा आ गया...ये ही तो हम चाहते थी...हमारे आर.जे. से बात बन नहीं रही थी.
अपन तारीफ़ सुन कर लस्सी लस्सी (दैनिक भास्कर इन्दौर के कार्टूनिस्ट और मेरे मित्र इस्माईल लहरी का ईजाद किया मुहावरा) हुए जा रहे..आइये सर ! आपको हमारे स्टेशन हेड से तो मिलवा दूँ...मार्केटिंग वाले बंदे ने कहा.मैने
सोचा चैक वहाँ मिलेगा...उनके कैबिन में पहुँचे...बातचीत हुई...कैसे हैं...क्या चल रहा है...(चैक की कोई बात नहीं) मैने इजाज़त ली श्रीमान से. मार्केटिंग वाला युवक साथ साथ दरवाज़े तक छोड़ने आया...कहता है सर ! वो जो अमाउंट की बात हुई थी...एक बिल हमारे स्टेशन के नाम से भेज दीजिये...मुंबई से पेमेंट आ जाएगा...मैं क्या करता मन मसोसकर भरी धूप में घर चला आया.
रास्ते में आकाशवाणी के सुनहरे दिन याद आए...आपको प्रोड्यूसर का फ़ोन आया है, संजय भाई....नाटक के लिये आपको कल आना है ...कितनी बजे...ठीक वक़्त पर पहुँचिये आकाशवाणी के ड्यूटी रूम पर प्रोड्यूसर या निर्देशक बाक़ायदा आपका इंतज़ार कर रहा है.
आइये संजय भाई...यहाँ एक दस्तख़त कर दीजिये....चलिये रिहर्सल के लिये चलते हैं... एक दो घंटे में काम हो गया है...रेकॉर्डिंग हो गई है...बाहर निकलिये ...ड्यूटी रूम में आइये...बीस पैसे (आजकल एक रूपये का ) लाल रेवेन्यू स्टैंप निकालिये...नहीं है तो उतने पैसे चुकाइये और दस्तख़त कीजिये ...आपका चैक तैयार है...शाम को रेकॉर्डिंग पूरी करते ड्यूटी ऑफ़िसर जा चुका है तो नाटक का निर्देशक आपसे कहेगा संजय भैया कल ग्यारह बजे प्लीज़ आ जाइयेगा...और चैक ले जाइयेगा...
ये थी आकाशवाणी की तहज़ीब,जिसमें अतिथि कलाकार (केज़्यअल आर्टिस्ट) के लिये एक ख़ास तरह का आदर भाव और यह एहसास कि फ़लाँ कलाकार अपना समय निकाल कर हमारी प्रस्तुति को बेहतर बनाने आया है.
एयर कंडीशनर से लकदक एफ़एम कल्चर में स्कर्ट पहनी,फ़र्राटे से अंग्रेज़ी में चपड़ चूँ..करती युवतियों का शोर है....ठहाके हैं, बेतक़ल्लुफ़ी है लेकिन वह तमीज़ गुम है जो हमारे भारतीय जनमानस को फ़बती है. हो सकता है मैं पारम्परिक सोच वाली बात कर रहा हूँ या ये भी हो सकता है कि मैं आउट डेटेड हो चुका हूँ लेकिन फ़िर भी न जाने क्यूँ आकाशवाणी का वह सादा, आत्मीय,और संस्कारित परिवेश मुझे आज भी हाँट करता है ।
तलत महमूद की आवाज़ में विविध भारती पर बजता तराना गुनगुनाते हुए मैं आज फ़िर आकाशवाणी को
याद करते नहीं अघाता…लेकिन कर क्या भी सकता हूं …सिवा गुनगुनाने के
ऐ ग़में दिल क्या करूँ
ऐ वहशते दिल क्या करूँ
टीप: ये न समझ लीजिये कि मेरी ये पोस्ट सिर्फ़ भुगतान के विलम्बित हो जाने की झल्लाहट है . ये सिर्फ़ एक कार्य संस्कृति का शब्द चित्र है जिसमें बाज़ार की घुसपैठ है ...और तक़ाज़े हैं किसी काम को कैसे भी करवा लेने के.
Friday, May 9, 2008
सलाम इंडिया !
यह फ़िल्मी देश भक्ति गीत 15 अगस्त और 26 जनवरी के साथ-साथ और भी कुछ अवसरों पर सुनवाए जाते है। मेरा सुझाव है कि इन फ़िल्मी देश भक्ति गीतों की जगह फ़ौजी भाइयों के गाए गीत सुनवाए जा सकते है।
सेना का अपना बैंड होता है। उनके द्वारा तैयार किए गए गीत भी होते है। मुझे याद आ रहा है एक पुराना गीत -
नौजवानों भारत की तस्वीर बना दो
फूलों के इस गुलशन से काँटों को हटा दो
गीतों के अलावा कुछ धुनें भी फ़ौजी बैंड द्वारा तैयार की जाती है। कई बार परेड ग्राऊंड पर सुनने को मिली विशेष अवसरों पर बजाई गई इस क़ौमी तराने की धुन -
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा
कुछ मार्च पास्ट की धुनें भी होती है। अगर सप्ताह में कम से कम एक दिन फ़ौजी भाइयों से इन गीतों और धुनों को सुनवाया जाए तो फ़ौजी भाइयों की कला से भी हम श्रोता परिचित होंगें।
Wednesday, May 7, 2008
कार्यक्रमों में परिवर्तन का दौर
सबसे पहला परिवर्तन जो मैनें देखा वो था दोपहर एक बजे शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम अनुरंजनि के स्थान पर आधुनिक संगीत का कार्यक्रम म्यूज़िक मसाला।
पहले मुझे लगा था कि डेढ बजे तक आधे घण्टे के लिए मन चाहे गीत से पहले शास्त्रीय संगीत सुनना ही अच्छा है पर म्यूज़िक मसाला में गीतों का चुनाव अच्छा होने से यह भी बुरा नहीं लग रहा पर अनुरंजनि की कमी खल रही है।
दूसरा परिवर्तन जयमाला और हवामहल के बीच यानि 7:45 से 8:00 बजे तक 15 मिनट के कर्यक्रमों में किया गया जिनमें से इनसे मिलिए कार्यक्रम तो अंगद के पाँव की तरह बुधवार को अटल है।
गुरूवार को प्रसारित होने वाला राग-अनुराग कार्यक्रम अब रविवार को भी प्रसारित हो रहा है यानि सप्ताह में दो दिन। इसमें तीन-चार फ़िल्मी गीत सुनवाए जाते है और हर एक गीत के लिए गायक, गीतकार, संगीतकार और फ़िल्म के नाम के साथ-साथ यह भी बताया जाता है कि यह गीत किस राग पर आधारित है। इस तरह यह अच्छी जानकारी देने वाला कार्यक्रम है पर सप्ताह में एक दिन ही ठीक लगता है।
पत्रावली कार्यक्रम पहले की तरह सोमवार को प्रसारित हो रहा है पर साथ-साथ शनिवार को भी प्रसारित हो रहा है। वैसे महेन्द्र मोदी जी की आवाज़ सप्ताह में दो बार सुनना अच्छा लगता है पर पत्रावली ही क्यों ? साथ में किसी और कार्यक्रम में भी सुनना चाहेंगें।
स्वागत योग्य निर्णय है शुक्रवार को दुबारा शुरू करना लोक संगीत का। अब तक सुने डोगरी और मैथिली लोक गीत अच्छे लगे पर सबसे अच्छे थे पंजाबी लोक गीत। आसासिंह मस्तान की तो बात ही निराली है।
बज्में क़व्वाली कल की अच्छी रही। बहुत दिन बाद सुनी ताजमहल मुग़ले आज़म की क़व्वालियाँ। पिछले दो सप्ताह से ग़ैर फ़िल्मी क़व्वालियाँ सुनावाई जा रही थी जिनमें से एक भी अच्छी नहीं लगी। यहाँ तक कि जानी बाबू क़व्वाल की भी नहीं। हांलाकि जानी बाबू क़व्वाल की बहुत अच्छी क़व्वालियाँ है… ख़ैर…
रात के प्रसारण में सोमवार से लगातार साढे नौ बजे एक ही फ़िल्म कि गीत बजते रहे, मंगलवार को भी फिर गुरूवार को भी तो लगा कि क्या अनुरंजनि की तरह उजाले उनकी यादों के कार्यक्रम भी साफ़ हो गया है ? पर रविवार को प्रसारित हुआ तो अच्छा लगा।
पहले की ही तरह रोज़ सुबह सात बजे जब दुबारा विविध भारती की केन्द्रीय सेवा से जुड़ते है तो उदघोषक हमारा भूले-बिसरे गीत कार्यक्रम में दुबारा स्वागत करते है यानी हम बीच में से जुड़ रहे है। शायद भूले-बिसरे गीत साढे छह से साढे सात एक घण्टे के लिए कर दिया गया है पर सीमित क्षेत्र के लिए हम तो पहले की तरह आधा घण्टा ही सुन रहे है।
अगर पत्रावली और राग-अनुराग सप्ताह में दो की जगह एक बार रख कर दो अन्य कार्यक्रम शुरू किए जाए तो मज़ा आ जाए…
Monday, May 5, 2008
इलाहाबाद आकाशवाणी, बालसंघ और बड़े भैया विजय बोस
दरअसल इलाहाबाद में बल्कि देश के लगभग सारे आकाशवाणी केंद्रों में रविवार को बच्चों का एक कार्यक्रम आया करता था । मैंने आपको पहले ही बताया है कि मैंने जीवन में पहली बार रेडियो तभी देखा था जब इस कार्यक्रम में पापा मुझे लेकर गए थे ।
डाकसाब लिखते हैं---'बड़े भैया से मिलना या उनको देखना हमारा सपना होता था । खैर बचपना बीता और हम बड़े हो गये । बचपन की यादें मन में कहीं दबी पड़ी रह गयीं । फिर उन दिनों की बात याद आती है जब मैं SRN अस्पताल इलाहाबाद में RSO था । मुझे डॉक्टर तहिलियानी ने बुलाया और कहा कि स्तन कैंसर से ग्रस्त इस महिला की नियमित रूप से कीमोथेरेपी करनी है । महिला के साथ एक अधेड़ उम्र के कम बालों वाले व्यक्ति थे । उनसे पूछताछ की तो पता चला कि वो इलाहाबाद आकाशवाणी में काम करते हैं । तब तक मैं उन्हें नहीं पहचान पाया । फिर जब उन्होंने अपना नाम बताया- विजय बोस । तो मुझे जैसे पूरा का पूरा अपना बचपन याद आ गया । फिर उनसे मलाक़ातें होती रहीं और बालसंघ के बारे में बातें भी होती रहीं । उन्होंने बताया कि अभी भी वो बालसंघ करते हैं । तो मैंने उन्हें एक पहेली दी । जो बचपन में मारे संकोच के नहीं भेज सका था । उन्होंने इस पहेली को कार्यक्रम में शामिल किया और मैंने हॉस्टल के अपने कमरे में किसी तरह उसे रिकॉर्ड भी किया ।
मुझे ये देखकर बड़ा अफसोस होता था कि बड़े भैया की नज़रों के सामने उनकी पत्नी तिल तिल करके खत्म हो रही हैं । तब मुझे ये अहसास हुआ कि किस तरह रेडियो कलाकार अपनी निजी जिंदगी के दुखों को सीने में दबाए हुए दूसरों को खुश करते रहते हैं । बड़े भैया की पत्नी नहीं रहीं । आगे चलकर उनकी एक विवाहित बेटी का भी देहांत हुआ । लेकिन बड़े भैया बाल संघ करते रहे । और उनकी आवाज़ की चमक कभी मद्धम नहीं पड़ी । उसमें वही खुशी और उल्लास था, जबकि निजी जिंदगी में उनके मन पर दुखों के बादल छाए थे । आज भी हम अच्छे मित्र हैं । मैंने पिछले दिनों उनका एक इंटरव्यू रिकॉर्ड किया है । ताकि उनके जीवन की यात्रा पर कुछ प्रकाश डाला जा सके ।
टाइम्स ऑफ इंडिया में सन 1990 में विजय बोस यानी बड़े भैया पर एक लेख छपा था । जिसमें बड़े भैया ने अपने जीवन की कुछ अनछुई बातें बताई हैं । बड़े भैया कहते हैं कि वो पांच साल के थे जब उन्हें संगीत का शौक लग गया था । तब सड़कों पर बजते गाने वो ध्यान से सुनते और उन्हें याद भी कर लेते । यही नहीं दाढ़ी मूंछें आने से पहले तक मैं महिला पात्रों की तरह नाचता, गाता, उनके संवाद भी बोलता रहा । हालांकि घर में इन बातों को प्रोत्साहन नहीं मिलता था । लेकिन भाग्यवश मेरी मुलाकात हुई ओमप्रकाश शर्मा से । जो एक मशहूर रंग-निर्देशक थे । ग्यारह बरस की उम्र में उन्होंने मुझे स्टेज पर उतारा । और तब से मैंने पलटकर नहीं देखा ।
मेरे ऊपर लखनऊ रेडियो स्टेशन के बेहद मकबूल नाटयकर्मी मुख्तार अहमद साहब का गहरा असर था । मुख्तार साहब को आपने विविध-भारती के हवामहल में भी सुना होगा । वो मेरे आदर्श और गुरू रहे । हालांकि कभी उनसे सीखने का सौभाग्य हासिल नहीं हुआ । 1950 में मैंने NITA (north indian theatrical association) की स्थापना की । ये वो समय था जब फिल्मों, रेडियो और नाटकों की वजह से रंगमंच की धारा मद्धम पड़ रही थी । 'नीता' के बैनर तले कई मशहूर नाटक खेले गये जैसे- बिराज बहू, अलग अलग रास्ते, युगावतार, अनारकली इत्यादि । सन 1949 में जब इलाहाबाद में आकाशवाणी केंद्र खुला तो मुझे बतौर स्टाफ आर्टिस्ट रख लिया गया । तब के केंद्र निदेशक सुनील बोस ने मेरे लिए विशेष रूप से एक पद निर्मित किया । इसके बाद रेडियो की तमाम विधाओं में काम किया । बाद में मैं उदघोषक बन गया । अनेक नाटकों का निर्देशन किया, बच्चों का कार्यक्रम किया । तमाम तरह के काम किये । जिन नाटकों को करके मुझे खासी संतुष्टि मिली उनमें से कुछ के नाम हैं- सत्पुत्र, अंजू दीदी, न्याय दंड, परम महेश्वर, कल्लोल, तलवार की आरती, मटिया बुर्ज की एक शाम, शाहजहां, कौमुदी महोत्सव वगैरह ।
ये रही डाकसाब द्वारा की गयी रिकॉर्डिंग । जिसमें बड़े भैया अपने जीवन की कथा सुना रहे हैं ।
तो ये थी ब्रड़े भैया विजय बोस को समर्पित पोस्ट । बड़े भैया विजय बोस इलाहाबाद में सेवानिवृत्त जीवन बिता रहे हैं । हम कामना करते हैं कि वे शतायु हों । अगर आपमें से कोई रेडियोप्रेमी उनसे बात करना चाहे तो मेल कीजिए, उनका नंबर भेज दिया जायेगा । अगर आप रेडियोप्रेमी हैं और आपके जीवन में रेडियो के किसी पुराने प्रस्तुतकर्ता की भूली बिसरी याद है तो कृपया संपर्क करें रेडियोनामा से । आईये रेडियो के पुराने मशहूर प्रस्तुतकर्ताओं के काम को सलाम करें ।
विकीपीडिया पर बड़े भैया के बारे में यहां पढ़ें
शास्त्रीय संगीत का पहला पाठ
इस श्रृंखला को तीन संगीतज्ञों ने प्रस्तुत किया - पद्मा तलवलकर, पंडित विद्याधर व्यास और प्रभाकर कालेकर
शुरूवात की पद्मा तलवलकर जी ने और बताया कि हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में कुल दस थाट है। फिर शुरू हुआ सिलसिला एक के बाद एक सभी थाटों की जानकारी देने का। एक-एक थाट में आने वाले रागों की चर्चा की गई। इन रागों का आरोह-अवरोह चलन बताया गया फिर इन रागों में बंदिशें भी सुनवाई गई।
हर एक थाट के प्रचलित और कम प्रचलित दोनों ही तरह के रागों की चर्चा की गई। शुरूवाती कड़ियों में पद्मा तलवलकर जी ने मालवा थाट के राग मालवा, पूरिया की जानकारी दी। इसके बाद पंडित विद्याधर व्यास ने जिन थाटों की जानकारी दी उनमें है कल्याण थाट का राग कल्याण।
बाद की कड़ियों में प्रभाकर कालेकर जी ने खमाज थाट के राग कलावती की जानकारी दी और इसकी बंदिश में तीन ताल को भी समझाया। बिलावल थाट का राग शंकरा, कठिन राग विहाग और मधुर राग हंसध्वनि की चर्चा की।
अंतिम कड़ियों में आसावरी थाट का राग देसी और कम प्रचलित राग देश गन्धर्व की चर्चा की गई। अंत में प्रस्तुत किया गया थाट भैरवी जैसा कि शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रमों में कार्यक्रम का समापन राग भैरवी से होता है। पहले ऐसे कार्यक्रम रात-रात भर चला करते थे और जब रात की सामप्ति होने लगती तो कलाकार भैरवी के सुर छेड़ देते और श्रोता समझ जाते कि यह अंतिम प्रस्तुति है।
भैरवी थाट में भोपाल तोड़ी और बिलासख़ानी तोड़ी की चर्चा की गई। श्रृंखला में रागों की जानकारी के साथ-साथ सामान्य जानकारी भी दी गई जैसे बिलासख़ानी तोड़ी के लिए बताया गया कि यह तानसेन के पुत्र ने तैयार किया और उन्हीं के नाम से इसे जारी किया गया।
अंतिम प्रस्तुति थी राग भैरवी। इस तरह शास्त्रीय संगीत की आरंभिक जानकारी श्रोताओं को मिल गई।
Sunday, May 4, 2008
'शेष' पत्रिका के संपादक और नामचीन कथाकार हसन जमाल से बातचीत आज शाम साढ़े चार बजे विविध भारती पर
रेडियोनामा पर आज फिर मैं एक कार्यक्रम की सूचना देने के लिए आया हूं । दरअसल पहले ये सोचा था कि तरंग पर अपनी जैसलमेर जोधपुर यात्रा के ब्यौरे में ही हसन जमाल से हुई मुलाक़ात और अपने अनुभवों को विस्तार दूंगा लेकिन इतर व्यस्ताताओं की वजह से जैसलमेर यात्रा वाला चिट्ठा अटका पड़ा है ।
बहरहाल आज यूथ एक्सप्रेस कार्यक्रम में शाम चार बजे सुनिए प्रसिद्ध कहानीकार और 'शेष' पत्रिका के संपादक 'हसन जमाल' से यूनुस खान की बातचीत ।
अगर समय कम हो तो ये बता दूं कि ठीक साढ़े चार बजे के आसपास ये बातचीत शुरू होगी और तकरीबन 22 मि0 चलेगी ।
हसन भाई बहुत कम बोलते हैं और उनसे बातें उगलवाना मुश्किल है ।
लेकिन इस इंटरव्यू में शायद पहली बार उन्होंने अपने बारे में इतना कुछ कहा है ।
कोशिश रहेगी कि बाद में इसकी ऑडियो फाइल अपलोड की जाए ।
फिलहाल हसन साहब के साथ ये तस्वीर देख डालिये ।
हम चलते हैं । पर ये खबर दिये बिना कैसे जायें कि जल्दी ही कथादेश में यायावर की डायरी लिखने वाले 'सत्यनारायण' जी का इंटरव्यू भी यूथ एक्सप्रेस में आयेगा । फिर पंकज बिष्ट, गिरिराज किशोर, प्रहलाद अग्रवाल, आलोक पुराणिक, ज्ञान चतुर्वेदी, बालकवि बैरागी, राहत इंदौरी सभी के इंटरव्यू लाइन अप हैं ।
तो ज़रा रेडियोनामा पर इंतज़ार कीजिएगा आगे के इंटरव्यूज़ के लिए ।
हसन जमाल से बातचीत आज शाम साढ़े चार बजे के आसपास विविध भारती पर ।
चित्र में बाईं ओर कमल शर्मा । बीच में हसन जमाल । और दाहिनी ओर हम हशमत । सर्दियों के दिन थे जनाब वरना हम क्या येड़े हैं जो कोट शोट में नज़र आएं ।
Saturday, May 3, 2008
हा हा हा हा हा हा हा हा ही ही ही हे हे हे हे हे
वही होगा जो ऊपर शीर्षक में लिखा है. और क्या होगा.
विविध भारती के जुबली झंकार में देश के नामी व्यंग्यकार मिले और फ़िल्में आह फ़िल्में वाह के नाम पर हा हा ही ही हू हू हे है की बारहखड़ी बिखेर दी. लीजिए सुनें पहली किश्त.
डाउनलोड यहां से करें
ऑनलाइन प्लेयर पर सुनने के लिए नीचे दिए प्लेयर के प्ले बटन पर क्लिक करें.
दूसरी किश्त डाउनलोड यहां से करें
और ऑनलाइन प्लेयर पर यहाँ सुनें-
तीसरी किश्त डाउनलोड यहाँ से करें
ऑनलाइन प्लेयर पर यहाँ सुनें -
और चौथी, और अंतिम किश्त -
हा हा ही ही हे हे हू हू .... बिजली गोल हो गई! भई, मेरे शहर में बिजली बड़ी मंहगी है. ऊपर से बहुत आंख मिचौली खेलती है. ले दे कर मिलती है, थोड़ी थोड़ी और जब तब गोल होते रहती है... हा हा हा.... बू हू हू ... (ज्यादा हंसने से आंखों में आंसू आ ही जाते हैं,)
# अद्यतन - यूनुस खान ने इस कार्यक्रम के बचे भाग की अविकल रेकॉर्डिंग दो भागों में आर्काइव.ऑर्ग पर अपलोड किया है. इसकी एमपी 3 फ़ाइलें यहाँ से डाउनलोड करें -
पहला भाग यहाँ से डाउनलोड करें
दूसरा भाग यहाँ से डाउनलोड करें
ऑनलाइन प्लेयर पर यहाँ बजाने के कोड में कुछ त्रुटि आ रही है. त्रुटियों को दूर कर उन्हें शीघ्र ही यहाँ लगाया जाएगा.
फ़िल्में आह और फ़िल्में वाह के बीच व्यंग्यकारों की अपनी फ़िल्में
आप सबों को तो पता ही है कि आज विविध भारती अपनी स्वर्ण जयंति के उपलक्ष्य में जुबिली झंकार कार्यक्रम पेश कर रही है. आज का उसका मुख्य आकर्षण रहा " फ़िल्में आह, फ़िल्में वाह ". इसके बारे में यूनुस जी ने आपको कल ही जानकारी दे दी थी.
आपलोगों ने इस प्रोग्राम को सुना ही होगा. पाँच व्यंग्यकारों - प्रकाश पुरोहित, यज्ञ जी, ज्ञान चतुर्वेदी जी, और हमारे अगड़म बगड़म आलोक जी, यशवंत व्यास जी - ने इसमे शिरकत की थी. सबने तीखे, चुटीले, कँटीले व्यंग्यबाण हमारी फ़िल्मों के ऊपर छोड़े, जो हमें अंदर तक गुदगुदा गये.
सबकी अपनी अलग style थी, अपना एक लहज़ा था.
बातें गुरुदत्त की प्यासा, महबूब खान की मदर इंडिया से लेकर आमिर की तारे जमीं पर तक की हुई. नायिकाओं की तो खूब चर्चा हुई, देविका रानी से लेकर राखी सावंत तक.
कालजयी फ़िल्म शोले की चीड़ फ़ाड़ तक की गयी.
पर देखिये, इन व्यंग्यकारों की भी अपनी अभिलाषायें होती हैं. आखिर फ़िल्में सबको आकर्षित करती हैं. तो इन दिग्गजों नें भी अपनी इच्छा जाहिर कर ही दी कि आखिर ये होते तो कैसी फ़िल्में बनाते. अब ये हैम तो व्यंग्यकार, इनकी फ़िल्मों मेम चुटीलापन ना हो , ये तो हो ही नही सकता है ना. तो आईये , उन्हीं की जुबानी सुने कि वे कैसी फ़िल्में बनाते.
सबसे पहले हाज़िर है डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी जी की अदभुत सोच-
एक साधरण आदमी, एक डॉक्टर, एक कलेक्टर, एक नेता. किसी जमाने में ये चारो अपने दोस्त हुआ करते थे, निश्चय ही बचपन के स्कूली दिनों में ही होते होंगे.
वक़्त चारों को एक ही जगह मिलाता है, साधारण आदमी की किसी तरह मौत हो जाती है.
अब पोस्ट्मार्टम रिपोर्ट बनाने में डॉक्टर की जो मज़बूरियात होती है, वो अपने किस दोस्त की बात माने इसे देखने के लिये तो उनकी फ़िल्म के आने तक का इंतजार करना पड़ेगा. :)
अब देखिये यशवंत व्यास जी की सोच :
वो ध्यान पैसों पर भी रखते हैं. अगर उनके पास कुछ लाख रुपये हुए तो एक low budget की मल्टीप्ले़क्स फ़िल्म बनायेंगे, जिसमें कला और व्यावसायिकता के सारे मसाले होंगे.
पर अगर उनके पास कुछ करोड़ रुपये हों तो वे अपने ही एक उपन्यास - कॉमरेड गॉडसे- पर फ़िल्म बनाना चाहेंगे, जिसमें अमिताभ, शाहरूख और बिपाशा को वे लेना पसंद करेंगे.
आलोक जी अपनी अगड़म बगड़म करते हुए कुछ ऐसा सोचते हैं -
उनकी फ़िल्म का शीर्षक होगा- देवदास इन स्विट्ज़र्लैंड. मुख्य बात इसमें होगी कि एक भूतनी के साथ देवदास का अफ़ेयर चलता होगा. और वो देवदास और कोई नहीं, इमरान हाशमी ही बनेगा.
फ़िल्म के अंत में इंट्री होगी अपने उसी पुराने देवदास दिलीप कुमार साहब की और वो अपना इतने दिनों से संजोकर रखा गया अनुभव जो वे शाहरूख खान को भी नही दे पाये थे, नये देवदास को देंगे, बल्कि पिलायेंगे. उसके बाद क्या होगा? आप उनकी भी फ़िल्म के आने का इंतजार करें.
अब यज्ञ जी की बात क्या करूँ.
वो जिस हीरो के पास अपनी स्टोरी लेकर गये उसे नकल से सख्त नफ़रत है. पर वो चाहता है कि उसकी फ़िल्म हॉलीवुड की मैट्रिक्स से किसी मामले में कम ना हो. हीरो उसे बिलकुल मैट्रिक्स की तरह एक्शन करता दिखे. हीरोइन भी मैट्रिक्स की तरह हो..... और भी मैट्रिक्स की तरह हो... पर नकल से उसे सख़्त नफ़रत है.
प्रकाश जी तो मुगले आज़म ही बनाना चाहते हैं.
वे बनायेंगे " मुग़ले आज़म, पार्ट- 2 ". इस फ़िल्म में पृथ्वीराज कपूर की जगह वो अमिताभ बच्चन को लेंगें. अब अमिताभ जी की कितने भी लंबे हो जायें, पृथ्वीराज कपूर के जितना कद की बराबरी नहीं कर सकते न. इसीलिये वो अमिताभ जी को तीन रोल में लेंगे. सारी फ़िल्मों में एक अंत होता है, पर इस फ़िल्म में अंत होगा छह. सिनेमा हॉल का गेट कभी बंद नहीं होगा, लोग आते रहेंगे और जाते रहेंगे.
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जुबिली झंकार का पूरा कार्यक्रम ही मनोरंजक था. अगर किन्हीं गुणी जन ने इसे रिकॉर्ड किया है तो वो इसे आपके लिये हाज़िर होंगे ही. तब आप इसे अच्छे से मजे लेकर सुनियेगा.
नए फिल्मी गीतकारों का दर्द
Friday, May 2, 2008
कल विविध भारती पर होगा फिल्मों पर केंद्रित व्यंग्य सम्मेलन ' फिल्में आह फिल्में वाह' । आलोक पुराणिक भी इसमें शामिल हैं ।
मित्रो जैसा कि आप जानते हैं विविध भारती का ये स्वर्ण जयंती वर्ष है । और पूरे साल हर महीने की तीन तारीख़ को विविध भारती पर विशेष आयोजन किये जा रहे हैं । ये सिलसिला अक्तूबर में शुरू हुआ था और देखते देखते हम तीन मई तक आ पहुंचे हैं । मैंने सोचा तो ये था कि कल सुबह-सुबह इस आयोजन का विवरण देता, लेकिन फिर लगा कि अगर आज से बता दिया जाए तो लोगबाग अपना शेड्यूल व्यवस्थित कर लेंगे । जगह बना लेंगे विविध भारती के लिए अपने व्यस्त दिन में ।
हां तो तीन मई का विविध भारती का विशेष आयोजन है ‘फिल्में आह फिल्में वाह’ । ये फिल्मों पर केंद्रित एक व्यंग्य सम्मेलन है । इस व्यंग्य सम्मेलन में हिस्सा लेंगे कुछ मशहूर व्यंग्यकार । ज़रा फेहरिस्त जांचिए-
भोपाल से ज्ञान चतुर्वेदी, जिनकी पुस्तक बारामासी पर्याप्त चर्चित है । नया ज्ञानोदय में आप इनका नियमित कॉलम भी पढ़ते हैं ।
जयपुर से आए यशवंत व्यास । जो 'अहा! जिंदगी' के संपादक भी हैं । इनकी पुस्तक 'कॉमरेड गोडसे' भी महाचर्चित और पुरस्कृत हो चुकी है ।
ग़ाजियाबाद से आए आलोक पुराणिक ब्रह्माण्ड के सबसे धांसू रचनाकार हैं । ब्लॉगिंग की दुनिया में सक्रिय लोगों तक आलोक का आलोक ना पहुंचा हो ऐसा कैसे हो सकता है ।
इंदौर से आए 'प्रभात किरण' के संपादक और बेहतरीन व्यंग्यकार प्रकाश पुरोहित । जिनकी बीस कम पचास और अटकल पंजे बारह जैसी पुस्तकें चर्चित हैं ।
मुंबई के यज्ञ शर्मा जो नवभारत टाइम्स मुंबई में खाली पीली नामक और दिल्ली संस्करण में निंदक नियरे नामक कॉलम लिखते हैं ।
इन दिग्गजों के बीच इस कार्यक्रम का संचालन आपके इस दोस्त यूनुस ख़ान और मेरे वरिष्ठ सहयोगी कमल शर्मा ने किया है ।
अब ज़रा समय भी नोट कर लीजिए ।
शनिवार को दिन में ढाई बजे से लेकर शाम साढ़े पांच बजे तक ।
भाई रवि रतलामी इस कार्यक्रम के लिए रेडियोनामा पर संभवत: वही करेंगे जो उन्होंने पिछली बार किया था ।
तो ज़रूर सुनिए विविध भारती का बंपर व्यंग्य सम्मलेन -' फिल्में आह- फिल्में वाह'
Thursday, May 1, 2008
हवामहल की ज़मीन
हवामहल की अधिकतर झलकियों का विषय रहा पति-पत्नी की नोंक-झोंक। कभी-कभी तो ऐसी भी बातें हुई जो सत्य से परे है जैसे मरने के बाद अपनी शोक सभा देखना, चाँद के लोगों का ज़मीं के लोगों से मिलने आना वग़ैरह वग़ैरह…
मगर कभी-कभार हवामहल का एक अलग ही रूप देखने को मिला। जिस तरह सिक्के के दो पहलू होते है वैसे ही है यह दो रूप पर सिक्के के जिस ओर मूल्य लिखा होता है वहीं अधिकतर देखा जाता है उसी तरह हवामहल का भी रोचक पहलू ही देखा गया।
सिक्के के दूसरे पहलू में जिस तरह महत्वपूर्ण मुद्रा अंकित होती है पर जिसकी ओर देखने की आवश्यकता महसूस नहीं होती और कभी-कभार ही नज़र चली जाती है उसी तरह हवामहल का यह पहलू है जिसमें साहित्यिक रचनाओं का नाट्य रूपान्तर प्रस्तुत किया जाता है।
सबसे पहला नाम उभर कर आता है शरतचन्द्र के मूल बंगला उपन्यास का हिन्दी नाट्य रूपान्तर - परिणीता। रविन्द्रनाथ टैगोर के उपन्यास को भी इसी तरह "नौका डूबी" शीर्षक से प्रस्तुत किया गया। बाद में हवामहल की प्रकृति के अनुरूप इस विषय को आधुनिक रूप में भी प्रस्तुत किया गया जिसमें दुल्हनें नहीं केवल उनकी चप्पलें बदलती है।
साहित्य से चुनी हुई कहानियों का भी नाट्य रूपान्तर किया गया जैसे रविन्द्रनाथ टैगोर की कहानी जीवित या मृत, प्रेमचन्द की कहानी पूस की रात।
भारतीय साहित्य ही नहीं विदेशी साहित्य को भी शामिल किया गया। प्रसिद्ध अंग्रेज़ी कहानी "द लास्ट लीफ़". इसके अलावा एकाध झलकी मैनें ऐसी भी सुनी थी जो मूल रूसी कहानी के अंग्रेज़ी अनुवाद से किया गया हिन्दी नाट्य रूपान्तर था जिसके नाम मुझे याद नहीं आ रहे।
विदेशी साहित्य में सबसे अच्छे लगते थे ओ हेनरी की कहानियों के हिन्दी नाट्य रूपान्तर जिसमें सबसे अच्छी लगी - साबुन की टिकिया।
हालांकि हवामहल की लोकप्रिय झलकियों की जब भी चर्चा होती है उसमें इनमें से किसी का भी नाम नहीं होता क्योंकि हवामहल को हमेशा से ही एक विशेष नज़रिए से ही देखा गया है जिसमें सिर्फ़ हँसी है, गंभीरता नहीं है। इसीलिए हवामहल हमेशा हवामहल ही रहा और यह ध्यान ही नहीं रहा कि हवामहल के नीचे ज़मीन भी है।