दो दिन पहले रेडियोवाणी पर यूनुस भाई ने अंतरा चौधरी का गाया एक गीत आपको सुनाया था--काली रे काली रे...
मैने उस गीत से जुड़ी अपनी एक बेवक़ूफ़ी का ज़िक्र किया तो उम्मीद थी कि आपमे से कोई मुझे सहारा देगा लेकिन लगता है कि हम अपनी ही बात लिखते और पढ़ते हैं या फिर वाह बहुत बढिया. बधाई का जुमला हमने अपने क्लिपबोर्ड में copy कर रखा है और उसे यहां वहां चिपकाते रहते हैं.
काले गोरे का मसला क्या इतना भी ग़ौर तलब नहीं है कि उस पर दो शब्द कहे जाएं?
पेश है अपने रंग हज़ार से ये गीत...
सोचिये रेडियो से उन दिनों हज़ार बार बजने वाले इस गीत पर काली बीवियां क्या बहुत खुश होती होंगी?
अपने_रंग_हजार, इरफान, मेरी_काली_कलूटी
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11 comments:
इरफ़ान भाई काले और गोरे पर आपने जो बहस शुरू कर दी है वो काफी लंबी खिंच सकती है । पता नहीं क्यों भारतीय मानस में 'गोरे' रंग को लेकर एक 'प्रेफरेन्स' रहा है या कहें कि हम गोरे रंग से कुछ ज्यादा ही आतंकित हो जाते हैं । इंप्रेस हो जाने वाले अर्थों में आतंकित । कितने ऐसे गाने हैं जिनमें गोरों का गुणगान है । हमें तो वैवाहिक विज्ञापनों में 'वॉन्टेड फेयर गुडलुकिंग गर्ल' लिखते भी शर्म नहीं आते । मेरी भाषा को माफ कीजिएगा लेकिन खूबसूरती में बिल्ली हो और गुणों में बिल्ली का ???? तो भी हम खुश रहेंगे ।
भाईसाहब इस देश की यही मानसिकता 'गोरेपन' की क्रीमों का करोड़ों का धंधा फैला रही है । अब तो और ग़ज़ब हो गया है । आपने महिलाओं के काले-गोरेपन का प्रसंग छेड़ा है । लेकिन भैया आजकल 'लड़कों' के गोरेपन की क्रीमें आ गयीं । और धड़ल्ले से बिक भी रही हैं । इससे हमारी बीमार मानसिकता का पता चलता है । मुझे पता है कि काली रे काली वाले गाने का संदर्भ ना पता होने की वजह से आपसे ग़लती हुई । इसलिए ज्यादा परेशान होने की जरूरत नहीं है । कभी कभी ऐसा हो जाता है ।
काले गोरे की यह बहस दुख सुख की समानुपातिक है। जैसे दुख पसंद नहीं आता उसी तरह काला पसंद नहीं आता। किस्सा बीवी का हो तो मसला और भी संगीन हो जाता है। सुख के होते हुए भला कोई दुख के लालायित मिलेगा। चाहत यही रहती है कि सुख भले न हो, पर दुख तो हो ही न। पर इतने मात्र से दुख की अहमियत कम नहीं होने वाली, जिस तरह कालेपन की अहमियत कम नहीं हो सकती। फिर कैसे कहा जाएगा कि तन के उजरे मन के कारे। तन के कारे में भी मन के उजरे मिलते हैं। पर ऊपर से लगता है कि तन के काले मन के काले भी होंगे। पर नेताओं का चरित्र इस को झुठलाता है। वे ऊपर से उजरे होते हैं और मन के कीचड़ भी हो सकते हैं, जिस तरह कीचड़ काला ही होगा, उसी तरह बहुसंख्यक नेताओं के मन काले ही मिलेंगे। तन के काले अपवादस्वरूप ही मिलते हैं, हो सकता है कि वे मन के उजरे हों। बाबू जगजीवन राम के संबंध में क्या विचार है जहां तक मेरी जानकारी है कि वे तन के काले पर मन के उजले रहे। खैर .... बाकी चर्चा अन्य बुद्धिजीवियों के हवाले करता हूं।
श्री युनूसजी,
आप व्यक्तिगत नेताको क्यूं ले आये । नेता चाहे कोई भी वर्ण या जाती या धरम का हो या राजकिय पार्टीका ९०% मन के काले ही होते है । जाति या धर्मकी राजनिती करके वॊट बटोर बटोर कर अपनी निजी सम्पत्ति का मल्टीप्लिकेसन ही करते है । बाबू जगजीवनराम कम सम्पत्ति के मालिक थे क्या ? हाँ, डो. स्व. आम्बेडकरजी की बात और थी । वे कभी भी उपली कही जानेवाली जातियों का बूरा कभी नहीं चाहते थे, उनको सिर्फ़ समाजके अन्त्यजोको हो रहे अन्याय स्वीकार नहीं था और उनको सहीमें सन्मानिय दर्जा दिलाना चाहते थे । पर आज तो अनामत के लाभ वंश परंपरागत रूपसे ले ले कर निम्न कही जाने वाली जातियों के अपने आप बन बैठे उद्धारक होने का दिखावा करने वाले नेता लोग उन बिछडी जातियों के ८५% लोगोको वही निम्न हालकी परवा किये बिना, उन जातियोंमें उपली जाति वाला व्यवहार उन ८५% लोगोके साथ करते है । क्या यह मन्थन का विषय नहीं बन सकता ?
पियुष महेता
युनूसजी माफ करना । श्री अविनासजी की जगह जल्दीमें आपका नाम गलतीसे लिखा गया ।
इरफान भाई,
अब सारे जग की कोई क्या कहे ?
व्यक्तिगत मत यही है कि
पसँद अपनी अपनी ...
-- लावण्या
लावान्यमजी , ये to कोई बात नही हुई phir to आप इस बात से भी सहमत होंगी कि औरतों पर सबसे ज़्यादा ज़ुल्म औरतें ही करती हैं?
इरफ़ान जी और यूनुस जी इमानदारी से एक बात बताइए कि जब आपने अपने जीवन साथी की कल्पना की थी तब मन में कहीं न कहीं क्या बात नहीं थी कि 'वो' गोरी और सुंदर हो तो ठीक रहेगा।
भई ये तो एक स्वाभाविक कल्पना और खुशी है जो पूरी न होने पर भी 'चलता है'
मैनें कोई व्यक्ति ऐसा नहीं देखा जो यह कहें कि मुझे केवल काली ही चाहिए। खैर…
ये दोनों गाने तो अच्छे है ही साथ में रोटी फ़िल्म का किशोर कुमार का गाना भी क्या खूब है -
गोरे रंग पे न इतना गुमान कर
गोरा रंग तो दिन में ढल जाएगा
अन्नपूर्णा ऐसा मुमकिन नहीं है कि आपकी मुलाक़ात दूसरे लोगों से न हुई हो लेकिन आप हमें पहले लोगों में रखकर नाइंसाफ़ी कर रही हैं.
अन्नपूर्णा जी ईमानदारी से बताता हूं । मैंने जीवनसाथी की कल्पना की थी तो गोरेपन से कहीं ज्यादा थी मेरी मांग । मुझे एक संवेदनशील, समझदार, रचनात्मक और कलात्मक जीवनसाथी चाहिये थी । और मुझे मिली । सच यही है कि मैंने तो धर्म और जाति के बारे में जीवन में कभी सोचा भी नहीं । इसीलिए अंतधर्म विवाह किया और बेहिचक किया ।
हां ये ज़रूर है कि देश में कई लोग ऐसे हैं जिनके मन में 'गोरे' जीवनसाथी की चाहत रहती है । मुझे नहीं थी ।
इरफ़ान जी और यूनुस जी आप दोनों का शुक्रिया कि बहुत ही साफ़ जवाब आपने दिए जिससे इस बहस का एक पहलु साफ़ हो गया कि गोरापन सबकी शर्त नहीं होती। और इसे मानने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं बल्कि गर्व है। मुझे बहुत अच्छा लगा…
इर्फान भाई,
औरतेँ और मर्द , वो हर बुरे इन्सान हैँ जो, जुल्म करते हैँ अपने से नीचे के दूसरे तबक्कोँ के इन्सानोँ के साथ ..बिरले इन्सान वे होते हैँ जो झुककर जो अपने से कमज़ोर होते हैँ उन्को, सहारा देकर ऊपर उठाते हैँ ..और हाँ, ये "काले - गोरे" से बात, दूसरी तरफ जा रही है ये , जानती हूँ ..
-- लावण्या ( ये मेरा नाम है - "लावण्यम्` " मेरे ब्लोग का नाम है :)
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