अनीता कुमार को आप सभी ब्लॉगर-मित्र जानते हैं । कुछ हम कहें पर उनकी लेखनी नित नये विषयों को छूती हुई चर्चित बन रही है । पिछले दिनों भाई अजीत वडनेरकर के ब्लॉग शब्दों का सफ़र पर अनीता जी का बक़लम खुद बेहद चर्चित रहा । कई महीने पहले मैंने चैट पर अनीता जी को रेडियोनामा पर लिखने को कहा था । अनीता जी ने इस निवेदन को याद रखा और लिखा, ये हमारे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है । इस आलेख के ज़रिए अनीता जी बाक़ायदा रेडियोनामा की मंडली में शामिल हो रही हैं । रेडियोनामा ने एक वर्ष से भी कम समय में जिस तरह, एक माध्यम के तौर पर, रेडियो की लोगों की जिंदगी में जगह को रेखांकित किया है, उसे देखकर हम सभी को संतुष्टि और प्रसन्नता होती है । आगे चलकर हम चाहेंगे कि रेडियोनामा पर विमर्श वाले मुद्दे पर भी ज़ोर दिया जाये । जल्दी ही रेडियोनामा पर मैं अपना एक कॉलम लेकर उपस्थित होने वाला हूं । यहां हम रेडियोनामा के नामावर ये भी कहना चाहेंगे कि अगर आप रेडियोनामा का हिस्सा बनना चाहते हैं तो आपका हार्दिक स्वागत है । रेडियोनामा के प्रबंधन की जिम्मेदारी हैदराबाद से सागर नाहर बेहद सजगता से निभाते हैं, इस संबंध में उनसे अथवा मुझसे पत्र व्यवहार किया जा सकता है । आईये फिलहाल स्वागत करें अनीता कुमार का । ( चित्र-साभार: बकलम खुद पहला भाग, शब्दों का सफ़र)----यूनुस
रेडियोनामा हमारे पसंदीदा चिठ्ठों में से एक है, रेडियोनामा पर लिखने वाले इतना बड़िया और विस्तृत रूप से लिखते हैं कि क्या टिपियाये ये कभी तय नहीं कर पाए, इस लिए हम अदृश्य-पाठक ही बने रहे। यूनुस जी के निमंत्रण के बावजूद लिखने की तो हिम्मत ही नहीं हुई कभी ।
पर आज सोचा कि तैरना आता है या नहीं पानी में छलांग लगा ही दी जाए, राम भरोसे । तो लीजिए जी यहां हम हाजिए हैं।
हमारी दिनचर्या की मजबूरी और हमारी टी वी की लत के चलते पिछ्ले कई बरसों से रेडियो से नाता ऐसा ही है जैसे बरसात का सूरज से।
एक जमाना था जब रेडियो हमारी लाइफ़-लाइन हुआ करता था, सुबह जगाने से ले कर रात को सुलाने तक का काम रेडियो करता था । ये वो जमाना था जब एफ़ एम का नामो निशान भी नहीं था। मिडियम वेव पर सिर्फ़ विविध भारती और बुधवार के बुधवार रेडियो सिलोन बिनाका गीत माला सुनने के लिए लगाया जाता था।
रेडियो का शौक हमें बहुत छुटपन से हो गया था। भारत पाकिस्तान युद्ध के बाद रात को एक कार्यक्रम प्रसारित होता था मैं अफ़ीमची जो एक व्यंग हुआ करता था पाकिस्तान के हुकुमरानों पर्। मेरे पापा उसे बड़े चाव से सुनते थे और साथ में हम भी। व्यंग के रसिया शायद हम वहीं से बने। फ़िर इतवार के इतवार किसी फ़िल्म की कहानी का रेडियो रुपांतर, रात को ही रोज हवामहल जैसे कार्यक्रम हमें रेडियो से चिपकाए रखते थे।
बम्बई में टी वी तब आया जब हम ग्यारहवीं में थे, और वो भी सिर्फ़ दूरदर्शन। लेकिन जैसे जैसे वक्त गुजरा, टी वी में भी और चैनल जुड़ते गये और रेडियो में भी नये नये स्टेशन जुड़ते गये। समय के साथ हमारी भी दिनचर्या बदली। जब से कॉलेज की नौकरी शुरु की सुबह 6-30 बजे घर से निकल जाते है तो भजन सुनने का सिलसिला खत्म हो गया। रात होते होते जब फ़्री होते तो अब टी वी के सास बहू के सिरियलों का चस्का लग चुका था जो रात साढ़े ग्यारह बजे तक चलते थे। फ़िर भी रेडियो के कमी तो खलती ही थी।
कुछ साल पहले जब कार से कॉलेज जाना शुरु किया तो सुबह के भजन ढूंढने की कोशिश की लेकिन कार में विविध भारती आसानी से नहीं मिलता। तो सुबह हमारा साथी बनता है ए आई आर एफ़ एम गोल्ड, जब तक हम खबरें सुनते हैं तब तक हमारा सफ़र खत्म हो जाता है। वापसी में जब लौट रहे होते हैं तो एफ़एम गोल्ड पर मराठी कार्यक्र्म चल रहा होता है। कई सारे एफ़ एम स्टेशन आसानी से मिल जाते हैं। लेकिन हमें रेडियो मिर्ची, बजाते रहो, जैसे स्टेशन कभी नहीं अच्छे लगे, उन्हें सुन कर तो सर दर्द हो जाता है, तो हम दोपहर में सी डी सुनते हैं।
लेकिन मार्च के तीसरे हफ़्ते से हमारी दिनचर्या बदल जाती है और हमें सुबह आठ बजे ही जाना होता है, सफ़र भी लंबा हो जाता है। तो आज कल हम खूब मजे से आठ से दस एफ़ एम गोल्ड पर "हमसफ़र" सुनते है और अगर सफ़र फ़िर भी बाकि हो तो एफ़ एम रेनबो पर दस बजे से पुराने गाने बजने शुरु हो जाते हैं और हम एक बार फ़िर अपने पुराने दिनों में खो जाते हैं । और हम एक बार फ़िर अपने पुराने दिनों में खो जाते हैं । एफ़ एम गोल्ड और रेनबो पर न सिर्फ़ हमारे मनपंसद पुराने गीत बजते हैं, सोने पर सुहागा ये है कि उन स्टेशनों के उदघोषक भी बड़े संयत तरीके से, ठहरी हुई आवाज में नपी तुली बात कहते हैं। दूसरे एफ़ एम स्टेशनों पर ऐसा लगता है मानों उदघोषक नहीं कोई सेल्समैन बाजार में खड़े हो कर अपने अपने स्टेशन बेचने की कोशिश कर रहे हों, क्रिकेट के कमंटेटर की तरह आवाज ऊपर नीचे कर बेकार की एक्साइटमेंट बनाने की कोशिश, एक ही बात को कई कई बार दोहराना, यहां तक की भाषा भी ऐसी कि आप को लगे आप सिनेमा हॉल में सबसे आगे की सीटों पर बैठ गये है जहां आस पास के लोग सीटियां बजा रहे हैं। ऐसे में सर दर्द नहीं होगा तो क्या होगा, बेकार में रक्त चाप ऊपर करते रहते हैं । ये भी बर्दाशत कर लेते किसी तरह से पर लगता है इन एफ़ एम चैनलों के पास बहुत ही सीमित गानों का कलेक्शन होता है। आप जब भी रेडियो लगाइए वही घिसे पिटे नये गाने बार बार दोहराए जायेगें। उस हिसाब से मुझे लगता है कि आकाशवाणी और विविध भारती के पास गानों का बहुत ही बड़िया कलेक्शन है। आज कल रोज हमसफ़र सुन रही हूँ पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि अरे कल ही तो ये गाना सुना था। आज कल रोज हमसफ़र सुन रही हूँ पर कभी ऐसा नहीं हुआ कि अरे कल ही तो ये गाना सुना था।
आज कल विविध भारती अपने 50 वर्ष पूर्ण होने की खुशी में हर महीने की तीन तारीख को एक खास कार्यक्रम दे रहा है। आज भी तीन तारीख हैं । पिछ्ले कुछ दिनों से बार बार बताया जा रहा था कि आज के खास कार्यक्रम "प्यार की बातें, प्यार के गीत" में कुछ नामी गिरामी कवि भाग लेगें। प्रोग्राम दोपहर 2-30 बजे शुरु होना था। हमारे यहां रोज 3-30 बजे से 5-30 तक बिजली चली जाती है। पतिदेव खास बैटरी ले कर आए, हम भी अपना काम झटपट निपटा कर दोपहर 12 बजे ही लौट आये। और रेडियो-ऑन कर दिया। विविध भारती ने भी हमें दिल खोल कर जल्दी आने का इनाम दिया। सबसे पहले तो हमने एक बहुत ही मधुर गीत सुना जो विविध भारती की ही कर्मी (मेरे ख्याल से काचंन जी) का लिखा हुआ था,
" मैं हूं विविध भारती, हम हैं श्रोता तुम्हारे।
कितने अटूट हैं ये नाते रिश्ते हमारे
हम संग चलेगें , हम संग चले हैं"
गीत भावविभोर करने वाला था, और फ़िर आया अमीन सायानी द्वारा प्रस्तुत 'प्रेषित कार्यक्रमों को याद दिलाने का कार्यक्रम्। अमीन सायानी की आवाज के हम शुरु से दिवाने है। उन जैसा उदघोषक न हुआ है न हो सकेगा( युनुस जी माफ़ी चाहती हूँ), तो इतने सालों बाद उनकी आवाज सुन हम तो कार्यक्रम का नाम भी भूल गये, पूरे एक घंटे उनकी आवाज में सराबोर होते रहे। उसी प्रोग्राम में इतने दिनों बाद हरीश भिमाणी की आवाज भी हमें आनंदित कर गयी। और फ़िर आया वो कार्यक्रम जिसका हम इतने दिनों से इंतजार कर रहे थे, जैसे ही 2-30 बजे यूनुस जी की चिर परिचित मीठी आवाज कानों में पढ़ने लगी। प्रोग्राम का फ़ॉरमेट बहुत ही बड़िया था, गानों का चयन मन लुभावना। कवियों की कविताएं, खास कर निदा फ़ाजली साहब का तो जवाब ही नहीं था पर यूनुस जी की भी तैयारी बहुत जोर शोर से हुई थी पता लग रहा था, कवियों ने तो जो शेर पढ़े सो पढ़े, युनुस जी ने भी बीच बीच में जो शेर पढ़े , गजब के थे। कहीं बहुत ज्यादा दाद नहीं, एक बहुत ही संयत पर मजेदार प्रोग्राम जिसके नशे में हम झूम रहे होगें तभी तो ये अगड़म बगड़म( आलोक जी माफ़ करें इस चोरी के लिए वो भी पूरी सीनाजोरी के साथ) लिखे जा रहे हैं। यूनुस भाई अगले कार्यक्रम का इंतजार है। आशा है किसी मेहरबां ने पॉडकास्ट बनाया होगा ताकि हम इसे बार बार सुन सकें। ( अनीता जी रवि भाई इतने तत्पर हैं कि उन्होंने पॉडकास्ट बनाया भी और उसी दिन रेडियोनामा पर अपलोड भी कर दिया । यहां क्लिक कीजिए --यूनुस) यूनुस भाई वो विविध भारती वाला गाना भी पॉडकास्ट कीजिए न, अगर कॉपी राइट का प्रॉब्लम न हो तो।
मैं शुक्रगुजार हूँ विविध भारती की जिसने न सिर्फ़ मेरी टी वी की लत छुड़वा दी बल्कि मेरे पुराने दिन भी मुझे लौटा दिए। मानों मेरे कानो में फ़ूंका हो---आ अब लौट चलें ........और मैं लौट आई हूं ।
11 comments:
वाह, बहुत सुन्दर! अच्छी यादें संजोई हैं।
अनीता आंटी,
रेडियोनामा में आपका स्वागत है. रेडियो तो हमेशा से रहा है और रहेगा भी, पर उन सुनहरे दिनों की बात तो आप जैसे वरिष्ठ रेडियो श्रोता ही न यादों की दराज़ से निकाल कर लायेंगे. वैसे ही जैसे अभी कुछ वरिष्ठ गुणी श्रोता कर रहे हैं.
यूनुस भाई का धन्यवाद कि उन्होनें आपको इस मंच से जोड़ा. आपकी इस शुरुआती पोस्ट का तहे दिल से शुक्रिया.
अनीता जी, मैं प्रयास करूंगा कि गोल्डन जुबली गीत रेडियोनामा पर भी आएं । और हां अमीन सायानी तो सभी रेडियोवालों के लिए एक लाइट हाउस हैं । आपका स्वागत है रेडियोनामा में ।
अनीता दी…आपकी यादें उस मध्यमवर्गीय जनमानस का पता देती है जिसकी ज़िन्दगी में सारी अच्छाइयां मौजूद थीं। बहुत पैसा न था लेकिन सुकून था और उस सुकून में इज़ाफ़ा करता था रेडियो। सच कहूं कि ये तो एहसान है युनूस भाई और सागर भाई का हम पर कि उनकी नेक कोशिशों से हम सब एक जाजम पर मिल बैठे हैं। मैं एक छोटे से शहर इन्दौर का अति सामान्य नागरिक हूं लेकिन पिता (श्री नरहरि पटेल) के आकाशवाणी से जुडाव भर से मुझे अपने व्यक्तित्व को निखारने में जो चीज़ें मिली हैं वे अनमोल हैं…क्योंकि एक समय ऐसा था (जिसे आकाशवाणी का सुनहरा दौर कह सकते हैं वर्ष रहा होगा 1961 – 1957 जिस वक्त मैने होश सम्हाला और घर में बस रेडियो और रेडियो की ही चर्चा हुआ करता था) ये कहने मुझे कोई झिझक नहीं कि रेडियो से मिली सीखें किसी स्कूल और कालेज में नहीं मिल सकतीं । रेडियो(ख़ासकर आकाशवाणी,बीबीसी और विविध भारती) न होता तो शायद ज़िन्दगी अति सामान्य और बोझिल सी होती… मन में ख़लिश इतनी भर है कि नई पीढी रेडियो से मुहब्बत के रास्ते पर नहीं आना चाह रही है।रेडियोनामा का बिरादर आपको ख़ुशामदीद कहता है।
वाह, बहुत सुन्दर! अच्छी यादें संजोई हैं।
एक और रेडियो प्रेमी से मुलाक़ात अच्छी लगी।
अन्नपूर्णा
अनिताजी का स्वागत है रेडियोनामा पर.. रेडियो के बारे में जब भी किसी की यादें पढ़ते हैं तो हमें अपना बचपन और रेडियो से लगाव याद आ जाता है।
हम यहां आज रेडियो और जिस मधुर जमाने की बाते करते हैं, क्या हमारी आने वाली पीढ़ियां क्या कर पायेंगी?
@ संजय भाई साहब
यूनुस भाइ और मैं नहीं आपका भी रेडियोनामा के बनने में बहुत बड़ा योगदान है। हम सबका है अन्नपूर्णाजी, पियूष भाई , रविरतलामी जी.. किस किस का नाम लें; सबने मिलकर रेडियोनामा पर मेहनत की है
धन्यवाद दोस्तों, मुझे भी रेडियोनामा से जुड़ कर अच्छा लग रहा है। खुदा ने चाहा तो एक नयी पोस्ट ले कर जल्दी ही हाजिर होऊंगी, वो कहते हैं न शेर के मुह खून लग जाए तो छोड़ता नहीं, गीदड़ भी पीछे ही रहता है तो हम आप सब के पीछे लग लिए अब। …:)
अनिता जी , आपके बारे में "बकालाम्खुद " पे भी पढा और आपका ब्लोग टू देखती रहती हूँ .यहाँ पारा भी आप आ गयीं ये अच्छा किया --
Welcome !
बहुत बढ़िया संस्मरण है अनिताजी। और भी संस्मरण आएं तो मज़ा आएगा। हमारे पास भी रेडियो के दिनों की( रेडियो के दिन लदे नहीं हैं, वक्त की कमी से हम ही उससे दूर हैं )यादें हैं। कभी सुनाना चाहेंगे।
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