यूँ तो रेडियो से नाता बचपन से ही जुडा हुआ है मगर इसने सच्चे साथी की तरह तब साथ निभाया जब मैं अपने संघर्ष के दिनों में था और अक्सर अवसादों से घिर जाया करता था.. मैं उस समय BCA के अंतिम साल का छात्र था और अपने आखिरी सेमेस्टर में किसी भी आम बिहारी छात्र की तरह दिल्ली की और रवाना हो गया था.. वैसे तो मैं स्व-अध्ययन के लिए दिल्ली गया था जो मैं घर में रह कर भी कर सकता था.. मगर अपने शहर की मित्र मंडली से पीछा छुडाने के लिए ये बहुत ही जरूरी था.. मैं जब घर से निकला तो पापाजी ने मुझे एक ट्रांजिस्टर भी साथ में दे दिए जो उन्हें किसी ने दुबई से लाकर उपहार स्वरूप दिया था.. सन् २००४ में वैसा डिजिटल रेडियो मैंने शायद ही किसी के पास देखा था या फिर ये भी कह सकते हैं की मैंने उस समय तक ज्यादा दुनिया ही नहीं देखी थी..
पहली बार घर से निकलने पर जो कुछ भी किसी युवा में मन में चलता रहता है कुछ वैसा ही मेरे मन में भी चला करता था.. सोचता था की अब घर लौटूंगा तो कुछ बन कर ही.. मैंने अपने जीवनकाल में अब तक सबसे ज्यादा मेहनत भी वहीं किया था और कभी-कभी अवसाद में भी घिर जाता था.. मैंने दिल्ली पहुंच कर मुनिरका में अपना अड्डा जमाया जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के बिलकुल पास था सो उस विश्वविद्यालय को भी पास से देखने का मौका मिला.. दिन भर मैं JNU के पुस्तकालय में बैठ कर पढ़ता था.. वहाँ बाहरी लड़कों का बैठना मन था मगर जो कोई भी JNU जानते हैं वो ये भी जानते होंगे की ये बहुत ही आम है वहाँ..
वापस अपने कमरे में लौटते-लौटते रात के १० बजा जाया करते थे और फिर शुरू होती थी हमारी रेडियो मंडली.. मैं जिस घर में रहता था उसमे ६ मंजिल थे और रात होते ही एक

फिरा समय आया जब हमारे BCA की अंतिम परीक्षा का समय आने वाला था और लगभग एक-एक करके मेरे सभी साथी मुझे छोड़ कर वापस पटना चले गए.. कुछ इस भाग दौर की जिंदगी से बचने के लिए हमेशा के लिए दिल्ली से अपना बोरिया बिस्तर बाँध लिए तो कुछ के साथ पैसे की समस्या थी.. जब सारे लोग वापस चले गए तो मैंने भी वहां से अपने भैया के घर में शिफ्ट होने का सोचा जो वहीं दिल्ली में भोगल में रहते थे(उस समय कुछ लोगों को बहुत हैरानी होती थी की दोनो सगे भाई अलग क्यों रहते हैं, खैर इस पर कभी और चर्चा करूंगा), मगर जाने से पहले लगभग १५ दिन मैं वहां अकेला रहा था और मेरी दिनचर्या वही बनी रही.. हाँ एक बदलाव जरूर आया की अब रात में कोई मुझसे लड़ता नहीं था की रेडियो बंद करो या फिर तुम्हारे पुराने गीत और गजल से तो मैं तंग आ चूका हूँ.. मेरा तो यही मानना था की सारे साथीयों के चले जाने के बाद भी रेडियो ही मेरा ऐसा सच्चा साथी था जो हर समय मेरा साथ निभाता रहा.. कभी गीतों के साथ तो कभी खबरों के साथ..
8 comments:
यूनुस भाई, इस उम्र में रेडियो ने सभी का साथ दिया है। आज यह आलेख पढ़ कर पुराने दिन याद आ गए तब गिने चुने घरों में रेडियो हुआ करता था। 65 के भारत-पाक युद्ध के समाचार सुनाने के लिए नगरपालिका ने पूरे कस्बे में लाउडस्पीकर लगवा दिए थे जो नगर-भवन के एक रेडियो से जुड़े थे और समाचार के समय के मिनटों पहले ही उन बिजली के खंबों के आस पास भीड़ लग जाया करती थी... और फिर... रेडियो ..कथा के अनेक पड़ाव हैं। पर पढ़ाई के दिनों में यह बहुत काम आया सारी रात उस का चलना और हमारा पढ़ते रहना जैसे हमारी चौकसी कर रहा हो....
द्विवेदी जी रेडियो तो पहले था ही सबसे लोकप्रिय साधन, पर नए जमाने में मुझे लगता था कि ये लोकप्रियता केवल मुझ जैसे लोगो तक ही सीमित है... पर कुछ दिनों से मेरी ये धरना खूब ग़लत साबित हुई... कई लोग मिले जो मुझसे भी आगे थे रेडियो सुनने में...
टीवी के जमाने में भी जो रेडियो कि पहचान और प्रासंगिकता बनी हुई है... उसे देखकर खुशी तो होती ही है.
टिप्पणी का फ़ांट तो दिखा पर मूल पोस्ट का नही.
अरे भाई कोई अतुल की समस्या का हल करो ।
हर जगह फॉन्ट नहीं दिखते इनको
चक्कर क्या है ।
मैने पोस्ट सुधार दी है, मेरे खयाल से इस बार सही दिख रहे होंगे फोन्ट।
मैं यूनुस जी को सहृदय धन्यवाद देना हूँ मुझे इस चिट्ठे से जोड़ने के लिए..
प्रशांत रेडियोनमा से जुड़ने की बधाई और स्वागत।
सच रेडियो से बेहतर साथी तो हो ही नही सकता।
radio aaj bhi hostel lafe ka bahut bada sathi hai,ham jab padha karte the tab keval ek ghante ke liyedelhi fm ka sunday ko prasaran hota tha...par aaj bhi kai bar long drive par kuch gane..safar ko aasan bana dete hai.
Post a Comment
आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।