विविध भारती और फ़रमाइश दोनों का चोली-दामन का साथ है या यूँ कह सकते है कि विविध भारती वाले और फ़रमाइश करने वाले दोनों एक-दूजे के लिए बने है - मेड फ़ार इच अदर
बचपन से सुनती आई हूँ एक गाना सुनवाने के लिए फ़रमाइश करने वालों की सूची। कभी-कभी सूची बड़ी मज़ेदार हुआ करती जैसे एक दो सामान्य नाम लेने के बाद नाम आते पप्पू गुड्डी उनके मम्मी पापा और उनके परिवार के सभी सदस्य… अरे ! कितना बड़ा परिवार है !!
देश के कई शहरों के नाम तो हमें विविध भारती से ही पता चले जैसे भाटापारा, छपड़ा, छिवड़िया, देवरिया और भी ऐसे कई नाम है जिनको सुन कर लगता है क्या शहरों के ऐसे नाम भी है… अरे ऐसा नाम तो शायद ही कभी सुना हो…
मुद्दा ये कि पता नहीं देश के किस कोने से विविध भारती में चिट्ठी आ जाए। अब ये बात काग़ज़ों से निकल कर तार-बेतार पर आ गई है। जिन गानों की फ़रमाइश चिट्ठियों से आती थी अब फ़ोन पर आने लगी है। सीधे बात होती है इसीलिए फ़रमाइश के अलावा और भी दो-चार बातें हो जाती है। वैसे चिट्ठियों का क्रम अब भी जारी है।
इस समय मन चाहे गीत के अलावा सखि-सहेली में फ़रमाइशी गीतों का अनुरोध किया जाता है। सखि-सहेली में केवल महिलाएँ ही अनुरोध करती है। इन चिट्ठियों के अलावा हर शुक्रवार को सखियाँ फोन पर अपनी फ़रमाइश बताती है। फ़ोन पर फ़रमाइश की सुविधा सभी के लिए सप्ताह में तीन बार मंगलवार, गुरूवार और शनिवार को पिटारा के अंतर्गत हैलो फ़रमाइश कार्यक्रम में है। हर कार्यक्रम एक घण्टे का है।
सभी फ़रमाइशी कार्यक्रमों में अधिकतर वही गाने बार-बार सुनने को मिलते है। बचपन में अब्बा (मेरे पूज्य पिताजी) कहा करते थे अरे इतने लोगो ने फ़रमाइश कर दी इस गाने की, ये गाना तो अभी सप्ताह भर पहले ही तो सुना था। क्या इन लोगों ने यह गाना नहीं सुना था या इतना अच्छा है कि बार-बार सुनना चाहते है ! आख़िर कितनी बार ? जबकि कुछ गाने तो ऐसे है जो शायद ही कभी बजते हो।
गानों की फ़रमाइश के अलावा आजकल फ़ोन पर कुछ बातचीत भी होती है। बातों से लगता है कि कुछ पढने-लिखने वाले लड़के-लड़कियाँ है। कुछ पढी-लिखी और कुछ अशिक्षित गृहणियाँ है। कुछ व्यापारी है जैसे दुकान चलाने वाले। कुछ है खेती करने वाले। बहुत कम फ़ोन आते है रिटायर लोगों के।
हमें अक्सर इस बात का आश्चर्य होता है कि जो लोग अभी रिटायर है उनका ज़माना रेडियो का ज़माना था। उन्हें रेडियो की आदत रही होगी और ज़ाहिर है उस समय के गानों के शौकीन रहे होगें तो क्यों नहीं आज फ़ुरसत में अपने इस शौक को वे पूरा करते जबकि ऐसे लोगों के फोन बहुत ही कम आते है।
मैं हर शुक्रवार का हैलो सहेली ! ध्यान से सुनती हूँ और मुझे याद नहीं कि मैनें ऐसी किसी महिला का फोन सुना है जिसने यह कहा हो कि अब मैं नौकरी से रिटायर हुई हूँ और आराम से रेडियो सुनती हूँ। वैसे हमारे देश में महिलाएँ अध्यापन की नौकरी अधिक करती है। मैनें किसी अध्यापिका का फोन भी कभी नहीं सुना।
लगता है कुछ पेशे से जुड़े लोग ही विविध भारती में फ़रमाइश करते है और बाकी सब इन्हीं के फ़रमाइशी गीतों से संतोष कर लेते है।
जहाँ तक बात पिटारा की है हम तो कहेगें तीन दिन हैलो फ़रमाइश बहुत है। किसी एक दिन फ़रमाइश को छोड़ कर किसी और रूप में फ़िल्मी गीत सुनवाए जाए, किसी ऐसे रूप में जिसमें नए-पुराने उन सभी गीतों को समेटा जा सके जिनकी फ़रमाइश तो नहीं की जाती पर जो अच्छे और लोकप्रिय गीत है।
सबसे नए तीन पन्ने :
Saturday, June 28, 2008
Thursday, June 26, 2008
विविध भारती का ख़ूबसूरत अंदाज़
कहते है महिलाएँ जब भी आपस में बातें करती है उनकी बातचीत में दो मुख्य विषय होते है - रसोई और ख़ूबसूरती। पिछले चिट्ठे में हमने रसोई की बातें की, आज चर्चा ख़ूबसूरती की।
सखि-सहेली के बुधवार के प्रसारण में ख़ूबसूरती की चर्चा की जाती है। सखियाँ कहती भी है कि आज बुधवार है और आज हम देंगें ब्यूटी टिप्स। कभी-कभार कुछ सखियाँ भी चिट्ठी लिख कर कुछ टिप्स भेजती है जिसे पढकर भी सुनाया जाता है।
अक्सर उन सामान्य बातों को याद दिलाया जाता है जिन्हें हम भूल जाते है जैसे बालों में रूसी हो तो दही या बेसन से बालों को धोया जाए। हम सभी भारतीय इस बात को जानते है कि घरेलु उपाय से ख़ूबसूरती निखरती है पर उनकी ओर ध्यान कम ही जाता है पर सखि-सहेली उनकी ओर हमारा ध्यान खींचती है।
ऐसी कई काम की बातें बताई गई जैसे बदलते मौसम में बालों की देखभाल के घरेलु उपाय। त्वचा को नरम बनाने के लिए नींबू के रस में ग्लिसरीन मिला कर लगाना चाहिए। गरमी में त्वचा को अच्छा रखने के लिए टमाटर, खीरे और नींबू का रस मिला कर लगाना।
सखियों द्वारा भेजी गई जानकारियों में कई नई बातें जानने को मिली जैसे एक सहेली ने लिख भेजा कि ग्वारपाठे की पत्तियों के रस से त्वचा की देखभाल।
इन बाहरी उपायों के अलावा खाने-पीने पर नियंत्रण से भी सुन्दरता बनाए रखना। साथ ही स्वस्थ शरीर के लिए योग, कसरत जैसे उपाय सुझाए जाते है। कुल मिलाकर सुन्दरता के साथ-साथ अपने आप को स्वस्थ और आकर्षक बनाए रखने के लिए सभी देशी उपाए बताए जाते है।
यह सच भी है और विश्व में बड़े पैमाने पर मानी हुई बात है कि भारतीय परम्परा में योग से लेकर हल्दी, चन्दन और जड़ी-बूटियों से जो ख़ूबसूरती निखरती है उसका जवाब नहीं क्योंकि उसमें सुन्दरता के साथ शरीर स्वस्थ भी रहता है जबकि रसायनों से बने विदेशी मेकअप के सामान बेजान खूबसूरती देते है।
जो बात अपने उबटन में है वो फ़ेशियल में कहाँ ? तो कमलेश (पाठक) जी अपने देसी अध्ययन में डूब जाइए और सखियों-सहेलियों को गोते लगवाते रहिए।
सखि-सहेली के बुधवार के प्रसारण में ख़ूबसूरती की चर्चा की जाती है। सखियाँ कहती भी है कि आज बुधवार है और आज हम देंगें ब्यूटी टिप्स। कभी-कभार कुछ सखियाँ भी चिट्ठी लिख कर कुछ टिप्स भेजती है जिसे पढकर भी सुनाया जाता है।
अक्सर उन सामान्य बातों को याद दिलाया जाता है जिन्हें हम भूल जाते है जैसे बालों में रूसी हो तो दही या बेसन से बालों को धोया जाए। हम सभी भारतीय इस बात को जानते है कि घरेलु उपाय से ख़ूबसूरती निखरती है पर उनकी ओर ध्यान कम ही जाता है पर सखि-सहेली उनकी ओर हमारा ध्यान खींचती है।
ऐसी कई काम की बातें बताई गई जैसे बदलते मौसम में बालों की देखभाल के घरेलु उपाय। त्वचा को नरम बनाने के लिए नींबू के रस में ग्लिसरीन मिला कर लगाना चाहिए। गरमी में त्वचा को अच्छा रखने के लिए टमाटर, खीरे और नींबू का रस मिला कर लगाना।
सखियों द्वारा भेजी गई जानकारियों में कई नई बातें जानने को मिली जैसे एक सहेली ने लिख भेजा कि ग्वारपाठे की पत्तियों के रस से त्वचा की देखभाल।
इन बाहरी उपायों के अलावा खाने-पीने पर नियंत्रण से भी सुन्दरता बनाए रखना। साथ ही स्वस्थ शरीर के लिए योग, कसरत जैसे उपाय सुझाए जाते है। कुल मिलाकर सुन्दरता के साथ-साथ अपने आप को स्वस्थ और आकर्षक बनाए रखने के लिए सभी देशी उपाए बताए जाते है।
यह सच भी है और विश्व में बड़े पैमाने पर मानी हुई बात है कि भारतीय परम्परा में योग से लेकर हल्दी, चन्दन और जड़ी-बूटियों से जो ख़ूबसूरती निखरती है उसका जवाब नहीं क्योंकि उसमें सुन्दरता के साथ शरीर स्वस्थ भी रहता है जबकि रसायनों से बने विदेशी मेकअप के सामान बेजान खूबसूरती देते है।
जो बात अपने उबटन में है वो फ़ेशियल में कहाँ ? तो कमलेश (पाठक) जी अपने देसी अध्ययन में डूब जाइए और सखियों-सहेलियों को गोते लगवाते रहिए।
Wednesday, June 25, 2008
गुलाम गोवा और आजाद गोवा के रेडियो की महिला उदघोषिका
१८ जून को हर साल गोवा मे क्रांति दिवस के रूप मे मनाया जाता है। क्यूंकि १८ .६.१९४६ मे डॉक्टर राम मनोहर लोहिया ने गोवा के लोगों को पुर्तगालियों के ख़िलाफ़ आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया।१८ जून को गोवा की आजादी की लडाई के
इस अवसर पर गवर्नर ने सबसे पहले आजादी की इस लड़ाई मे शहीद हुए सेनानियों को श्रद्धा सुमन अर्पित किए ।२१ गन से सलामी दी गई। उसके बाद मुख्यमंत्री और स्वतंत्रता सेनानियों ने भी शहीद स्मारक पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर शहीदों को अपनी श्रधांजलि दी।
शहीदों की याद मे गोवा पुलिस द्वारा जो धुन बजाई जाती उसका नाम दीवाली है। और धुन के आख़िर मे दो बिगुल बजाने वाले (लोन बग्लर ) पार्क के पास बनी ईमारत की खिड़की से बिगुल बजाते है।इस सबसेऊपर वाली फोटो को जूम करके देखने पर आपको वो खिड़की मे दिख सकता है।
इन ४१ सम्मानित किए गए स्वतंत्रता सेनानी मे मिस
इस क्रांति दिवस के दौरान उनसे मिलने और बात करने का मौका मिला और तब उन्होंने बताया कि जब भारतीय सेना ने गोवा को आजाद करवा लिया था तब भारतीय सेना के प्रमुख जनरल चौधरी ने लिबिया जी से पूछा था कि अब क्या चाहती है। तो इस पर लिबिया जी ने कहा कि वो आजाद गोवा का पहला प्रसारण भी ख़ुद ही करना चाहती है और इसके लिए उन्हें प्लेन मे बैठ कर broadcast करने की इजाजत दी गई और१७ .१२.१९६१ को प्लेन से ही लिबिया जी ने गोवा के लोगों को आजादी का संदेश दिया। आजकल लिबिया जी गोवा मे वकालत कर रही है।
नोट--पंजिम के मेन मार्केट का नाम १८ जून रोड है। तो अब जब आप गोवा आए तो १८ जून पर शौपिंग जरुर करियेगा । :)
इतिहास मे स्वर्ण अक्षरोंसे लिखा गया है। १८ जून १९४६ को डॉक्टर राम मनोहर लोहिया जी ने गोवा के लोगों को एकजुट होने और पुर्तगाली शासन के ख़िलाफ़ लड़ने का संदेश दिया था। १८ जून को हुई इस क्रांति के जोशीले भाषण ने आजादी की लड़ाई को मजबूत किया और आगे बढाया। इस साल भी गोवा मे revolution day के दिन अलग-अलग जगहों जैसे पंजिम, मडगांव और वास्को मे समारोह का आयोजन किया गया।पंजिम के आजाद मैदान मे गोवा के गवर्नर श्री एस.सी.जमीर गोवा के मुख्यमंत्री और गोवा सरकार के अधिकारियों और जनता ने इस समारोह मे भाग लिया। इस साल ४१ स्वतंत्रता सेनानियों को सम्मानित किया गया।
इस अवसर पर गवर्नर ने सबसे पहले आजादी की इस लड़ाई मे शहीद हुए सेनानियों को श्रद्धा सुमन अर्पित किए ।२१ गन से सलामी दी गई। उसके बाद मुख्यमंत्री और स्वतंत्रता सेनानियों ने भी शहीद स्मारक पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर शहीदों को अपनी श्रधांजलि दी।
गवर्नर ने अपने भाषण मे कहा की आजादी का सबसे बड़ा फायदा है की किसी भी व्यक्ति को अपनी बात कहने की आजादी होती है।और गवर्नर के भाषण का बिल्कुल सही उपयोग गोवा दमन और दियू स्वतंत्रता सेनानी एसोसिअशन के अध्यक्ष जयद्रथ शोदंकर ने किया और उन्होंने एक के बाद एक अपनी शिकायतें बतानी शुरू की कि किस तरह से स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों suffer करना पड़ रहा है। स्वतंत्रता सेनानी जो इस समरोह मे भाग लेने आए थे उन्होंने अपने भाषण मे बहुत नाराजगी दिखाई और कहा क्यूंकि न तो उनके परिवार और बच्चों को सरकारी नौकरी मिली है और न ही उन्हें और किसी तरह का बेनिफिट मिला है। जबकि हाल ही मे ५०० लोग पंचायती राज मे और ४०० लोग स्वस्थ्य मंत्रालय गोवा मे भरती किए गए है। पर उसमे एक भी स्वतंत्रता सेनानी के परिवार का सदस्य नही है। पूरी ख़बर यहाँ पढिये।
शहीदों की याद मे गोवा पुलिस द्वारा जो धुन बजाई जाती उसका नाम दीवाली है। और धुन के आख़िर मे दो बिगुल बजाने वाले (लोन बग्लर ) पार्क के पास बनी ईमारत की खिड़की से बिगुल बजाते है।इस सबसेऊपर वाली फोटो को जूम करके देखने पर आपको वो खिड़की मे दिख सकता है।
इन ४१ सम्मानित किए गए स्वतंत्रता सेनानी मे मिस
लिबिया लोबो सरदेसाईभी थी ।लिबिया जी १९४९-५० गोवा यूथ लीग की मेंबर थी और १९५५ -६१ तक कैसल रॉक (जो आज का बेलगाम है ) से अंडर ग्राउंड रेडियो स्टेशन voice of freedom के नाम से चलाती थी । उस समय गोवा के आखिरी गवर्नर जनरल को आत्म समर्पण करने को कहा और चेतावनी दी कि अगर ऐसा नही किया तो लिबरेशन फोर्स (भारतीय सेना) गोवा मे प्रवेश कर जायेगी।ये संदेश हर १० मिनट के अंतराल पर लिबिया जी के द्वारा उनके रेडियो स्टेशन से प्रसारित किया जाता रहा था।१७.१२.११९६१ मे गुलाम गोवा के लिए उनके रेडियो स्टेशन का ये आखिरी प्रसारण था।
इस क्रांति दिवस के दौरान उनसे मिलने और बात करने का मौका मिला और तब उन्होंने बताया कि जब भारतीय सेना ने गोवा को आजाद करवा लिया था तब भारतीय सेना के प्रमुख जनरल चौधरी ने लिबिया जी से पूछा था कि अब क्या चाहती है। तो इस पर लिबिया जी ने कहा कि वो आजाद गोवा का पहला प्रसारण भी ख़ुद ही करना चाहती है और इसके लिए उन्हें प्लेन मे बैठ कर broadcast करने की इजाजत दी गई और१७ .१२.१९६१ को प्लेन से ही लिबिया जी ने गोवा के लोगों को आजादी का संदेश दिया। आजकल लिबिया जी गोवा मे वकालत कर रही है।
नोट--पंजिम के मेन मार्केट का नाम १८ जून रोड है। तो अब जब आप गोवा आए तो १८ जून पर शौपिंग जरुर करियेगा । :)
Tuesday, June 24, 2008
रेडियोनामा: पद लहरी बनाम वाक्यांजलि
रेडियोनामा: पद लहरी बनाम वाक्यांजलि
श्री अन्नपूर्णाजी
आपने जो एक शब्द का कार्यक्रमके हर गाने के मूख़डे में होनेका जो जिक्र किया है उस कार्यक्रमका नाम जो रेडियो श्रीलंका से सबसे पहले प्रस्तूत हुआ था और अभी नझदीकी भूतकालमें ही बन्द हुआ है उसका नाम शिर्षक संगीत है, जो सबसे पहेले श्री गोपाल शर्माजीने बनाया था । और जो दूसरा कार्यक्रम एक वाक्य के हर शब्द से शुरू होने वाले गानोको क्रमांक अनुसार प्रस्तूत किया जाता था उसका नाम वाक्य गीतांजली था जो शायद स्व. शिव कूमार ’सरोज’ (जो गीतकार भी थे)ने प्रयोजा था । एक विषेष बात रेदियो सिलोन के बारेंमें बतानी है कि १ मई, २००८ से उनका हिन्दी सेवाका शामका प्रसारण बंध किया गया है और सुबह ९.३० के बजाय ८.३० पर समाप्त होता है । इस लिये इन दोनों कार्यक्रम के अलावा साझ और आवाझ, आप के अनुरोध पर बंध किये गये है और श्रीमती पद्दमिनी परेरा ८ मई, २००८ को निवृत्त हुई है ।
पियुष महेता
सुरत ।
श्री अन्नपूर्णाजी
आपने जो एक शब्द का कार्यक्रमके हर गाने के मूख़डे में होनेका जो जिक्र किया है उस कार्यक्रमका नाम जो रेडियो श्रीलंका से सबसे पहले प्रस्तूत हुआ था और अभी नझदीकी भूतकालमें ही बन्द हुआ है उसका नाम शिर्षक संगीत है, जो सबसे पहेले श्री गोपाल शर्माजीने बनाया था । और जो दूसरा कार्यक्रम एक वाक्य के हर शब्द से शुरू होने वाले गानोको क्रमांक अनुसार प्रस्तूत किया जाता था उसका नाम वाक्य गीतांजली था जो शायद स्व. शिव कूमार ’सरोज’ (जो गीतकार भी थे)ने प्रयोजा था । एक विषेष बात रेदियो सिलोन के बारेंमें बतानी है कि १ मई, २००८ से उनका हिन्दी सेवाका शामका प्रसारण बंध किया गया है और सुबह ९.३० के बजाय ८.३० पर समाप्त होता है । इस लिये इन दोनों कार्यक्रम के अलावा साझ और आवाझ, आप के अनुरोध पर बंध किये गये है और श्रीमती पद्दमिनी परेरा ८ मई, २००८ को निवृत्त हुई है ।
पियुष महेता
सुरत ।
पद लहरी बनाम वाक्यांजलि
फ़िल्मी गीत प्रस्तुत करने के बहुत सारे ढंग है। कहीं फ़रमाइश को आधार बना कर तो कहीं फ़िल्में, कलाकार या विषय को आधार बना कर फ़िल्मी गीत सुनवाए जाते है।
आजकल एक कार्यक्रम आकाशवाणी हैदराबाद केन्द्र से प्रसारित हो रहा है। तेलुगु फ़िल्मी गीतों का यह कार्यक्रम बहुत समय से चल रहा है। इसका स्वरूप अच्छा है। इसमें एक पद को लिया जाता है। मैं यहाँ बता दूँ कि तेलुगु में शब्द को पद कहते है।
इस साप्ताहिक कार्यक्रम में हर सप्ताह एक पद या शब्द लिया जाता है और ऐसे फ़िल्मी गीत सुनवाए जाते है जिसके मुखड़े में वह शब्द हो जैसे एक पद लिया गया है अम्माई यानि लड़की। अब उन तेलुगु फ़िल्मी गीतों को आप सुन सकेंगें जिसके मुखड़े में अम्माई शब्द है।
एक इसी तरह का कार्यक्रम रेडियो सिलोन से पहले शायद सवेरे आप ही के गीत कार्यक्रम के बाद प्रसारित होता था जो शायद साप्ताहिक था। इस कार्यक्रम का नाम था - वाक्यांजलि
इसमें एक अच्छा सा वक्य चुना जाता था। यह ध्यान रखा जाता था कि वाक्य उपदेशात्मक हो या बोधगम्य हो या कोई अच्छी सी बात इस वाक्य में कही गई हो। यह वाक्य पाँच-छ्ह शब्दों का होता था क्योंकि आधे घण्टे में पाँच-छह गीत ही सुनवाए जा सकते है।
इस वाक्य के हर शब्द से शुरू होने वाला फ़िल्मी गीत सुनवाया जाता था। शब्दों को क्रम से लिया जाता था जैसे पहले शब्द से शुरू होने वाला गीत कार्यक्रम का पहला गीत होता उसके बाद दूसरे, तीसरे शब्द आदि।
कई बार ऐसा होता कि उस शब्द से शुरू होने वाला गीत नहीं मिलता तब ऐसा गीत चुना जाता जिसमें शब्द गीत के मुखड़े में हो। कभी ऐसा भी होता कि कोई शब्द गीत के मुखड़े में भी नहीं मिलता तब उससे मिलते-जुलते शब्द के गीत को चुना जात जैसे फुलवारी शब्द न मिले तो ऐसा गीत सुनवाया जाता जिसमें फूल शब्द हो।
आजकल एक कार्यक्रम आकाशवाणी हैदराबाद केन्द्र से प्रसारित हो रहा है। तेलुगु फ़िल्मी गीतों का यह कार्यक्रम बहुत समय से चल रहा है। इसका स्वरूप अच्छा है। इसमें एक पद को लिया जाता है। मैं यहाँ बता दूँ कि तेलुगु में शब्द को पद कहते है।
इस साप्ताहिक कार्यक्रम में हर सप्ताह एक पद या शब्द लिया जाता है और ऐसे फ़िल्मी गीत सुनवाए जाते है जिसके मुखड़े में वह शब्द हो जैसे एक पद लिया गया है अम्माई यानि लड़की। अब उन तेलुगु फ़िल्मी गीतों को आप सुन सकेंगें जिसके मुखड़े में अम्माई शब्द है।
एक इसी तरह का कार्यक्रम रेडियो सिलोन से पहले शायद सवेरे आप ही के गीत कार्यक्रम के बाद प्रसारित होता था जो शायद साप्ताहिक था। इस कार्यक्रम का नाम था - वाक्यांजलि
इसमें एक अच्छा सा वक्य चुना जाता था। यह ध्यान रखा जाता था कि वाक्य उपदेशात्मक हो या बोधगम्य हो या कोई अच्छी सी बात इस वाक्य में कही गई हो। यह वाक्य पाँच-छ्ह शब्दों का होता था क्योंकि आधे घण्टे में पाँच-छह गीत ही सुनवाए जा सकते है।
इस वाक्य के हर शब्द से शुरू होने वाला फ़िल्मी गीत सुनवाया जाता था। शब्दों को क्रम से लिया जाता था जैसे पहले शब्द से शुरू होने वाला गीत कार्यक्रम का पहला गीत होता उसके बाद दूसरे, तीसरे शब्द आदि।
कई बार ऐसा होता कि उस शब्द से शुरू होने वाला गीत नहीं मिलता तब ऐसा गीत चुना जाता जिसमें शब्द गीत के मुखड़े में हो। कभी ऐसा भी होता कि कोई शब्द गीत के मुखड़े में भी नहीं मिलता तब उससे मिलते-जुलते शब्द के गीत को चुना जात जैसे फुलवारी शब्द न मिले तो ऐसा गीत सुनवाया जाता जिसमें फूल शब्द हो।
Monday, June 23, 2008
'एक स्टेशन व्रत' रेडियो के निर्माता; जगदीश शाह
(दाढ़ी वाले जगदीश भाई हैं )<
१९६३ में वडोदरा जिले की सावली तहसील तहसील में कार्यरत युवा सर्वोदयी कार्यकर्ता जगदीश शाह का वेतन सौ रुपए था। जापानी सेट असी रुपये का मिलता था , कैसे खरीदते ?'रेडियो जगत' नामक गुजराती पत्रिका के वे नियमित पाठक थे। इसमें तीन ट्रांजिस्टर वाले सेट बनाने की विधि और उसका सर्किट दिया हुआ था। इस विधि से सेट बनाने के लिए बाजार से ३५ रुपए का सामान खरीदना पड़ता। सामाजिक जीवन की सक्रियता के में से रात बेरात जग कर जगदीश भाई ने जो ट्रांजिस्टर सेट बनाया वह सिर्फ़ एक स्टेशन पकड़ता था- उनके सर्वोदयी बन्धु इस गुण की तुलना - 'एक पत्नी व्रत' से करते और कुछ इसे ब्रह्मचारी रेडियो कहते। गुजरात का पहला रेडियो स्टेशन भी वडोदरा का था जो बाद में वडोदरा-अहमदाबाद संयुक्त स्टेशन बना।वडोदरा से स्टेशन न हते इसके लिए आन्दोलन भी हुआ था। राजकोट और भुज स्टेशन बाद में बने।
रविवार शाम ४ बजे इस स्टेशन से 'विसराता सुर' नामक कार्यक्रम में हिन्दी फिल्मों के भूले बिसरे गीत आते तब जगदीश भाइ ध्यान मग्न हो सुनते।
जगदीश भाई से हिन्दी फिल्मों के रेडियो प्रसारण के अनेक रोचक तथ्य जानने को मिले। जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट में सूचना प्रसारण मन्त्री श्री केसकर पर 'शास्त्रीय संगीत लॉबी' का दबाव पड़ा था जिसके चलते आकशवाणी पर फिल्मी गीत और हारमोनियम नहीं बजते थे। लोग रेडियो सिलोन और रेडियो गोआ पर हिन्दी फ़िल्मी गीत सुनते। हारमोनियम पर रोक का किस्सा कुछ तकनीकी है , फिर कभी।
१५ अगस्त १९५३ को जगदीश भाई ने सर्वोदय आन्दोलन के लिए जीवन समर्पित किया , उसके पहले हर हफ़्ते तीन हिन्दी और एक अंग्रेजी फिल्म देखने का नियम था।घर से दो रुपये हफ़्ता पॉकेट खर्च मिलता।एक आने का टिकट के हिसाब से चार आने खर्च हो जाते ! -यह उन्हें मंजूर नहीं था। इसलिए एक अन्य शौक से धनोपार्जन करते-डाक टिकट संग्रह द्वारा। सैंकड़ों भारतीय टिकट विदेशी टिकट संग्रहकर्ताओं को भेजते और उनसे प्राप्त टिकतों के सौ-सौ के पैकेट आठ आठ आने में बेचते।२६ जनवरी १९५० को संविधान सभा लागू होने की खुशी में वडोदरा में डाक टिकट प्रदर्शनी लगी।जगदीश भाई के संग्रह के दो फ्रेम प्रदर्शित हुए और पसन्द किए गए।१५-१६ साल के किशोर के संग्रह से लोग प्रभावित हु। पतों का आदान-प्रदान हुआ और आठ आने पैकेट वाले कई ग्राहक बन गये। स्तैनली गिबन्स का आलबम भी खरीद लिया।
१९५३ में जगदीश भाई ने कई चीजें छोड़ी- जिनमें ऑमलेट के साथ फिल्में देखना भी था।सर्वोदयी गोल में रेडियो के लिए भी माहौल कुछ प्रतिकूल था। १९६३ में विनोबा की पदयात्रा बंगाल में थी। जगदीश भाई २० दिन उसमें शामिल रहे।एक दिन विनोबा की निकट सहयोगी कुसुमताई से मिलने गये तब एक छोटे सेट पर वे फिल्मी गीत सुन रही थीं। जगदीश भाई बल्लियों उछल पद़्ए और उनसे बोले,'यह तो अति उत्तम यन्त्र है।' कुसुमताई ने बताया,'यह 'बाबा' को समाचार सुनाने के लिए आया है।'
मैंने उन्हें रेडियोनामा के बारे में बताया और यह भी कि उनके सर्वोदयी साथी भगवान काका पर मैंने इस चिट्ठे पर एक पोस्ट लिखी थी। इस चिट्ठे के संस्थापक युनुस ख़ान और उनकी पत्नी रेडियो सखी ममता के अहमदाबाद में नूरजहां , शमशाद बेगम और मुबारक बेगम पर केन्द्रित 'ग्रामोफोन क्लब ऑफ़ इण्डिया' द्वारा आयोजित अहमदाबाद में हुए कार्यक्रम के बारे में बताया। जगदीश भाई ने बताया कि वडोदरा के एक यादवजी ऐसा क्लब चलाते।के सी डे के गीत गाने वाले अम्बालाल जो स्वयं प्रज्ञा चक्षु थे इस क्लब के आयोजन में गाते थे। युनुस बताते हैं कि गुजरातियों में पुराने हिन्दी फिल्मी गीतों के संग्रह का शौक व्यापक है।छूटते ही जगदीश भाई कहते हैं-'सूरत के सूरत के हरीश रघुवंशी तो हिन्दी फिल्म संगीत के एन्साइक्लोपीडिया हैं-उनकी गुजराती में एक वृहत पुस्तक भी है"।जगदीश भाई ने भी गुजराती में हिन्दी फिल्मी गीतों की अंत्याक्षरी के लिए राष्ट्री अय्र भक्ति गीतों की एक किताब तैय्यार की है जिसकी २०,००० प्रतियां बिक चुकी हैं।पुस्तक में २०४ गीत हैं तथा इनके पद के शुरुआती वर्ण की विशेष सूची भी दी गयी है। इनमें से १७१ गीतों की एक सीडी भी बनायी है।सर्वोदय जगत के सम्पादक कुमार प्रशान्त के सुझाव पर सर्व सेवा संघ प्रकाशन,राजघाट ,वाराणसी ने हिन्दी संस्करण छापा है।'हिन्दी वाले प्रचार करना नहीं जानते'-जगदीश भाई कष्ट के साथ बताते हैं।
पिछले दस सालों में जगदीश भाई सिर्फ़ यात्रा में रेडियो ले जाते हैम ,बीबीसी सुनने के लिए।पुरानी फिल्मों का उनका संग्रह ४००-५०० सीडी डीवीडी का है।अब के गीतोम के तर्ज ,बोल और नृत्य- जोहराबाई अम्बालेवाली ,सुरैय्या ,कानन देवी,गीता दत्त , लता मगेशकर के इस प्रेमी को नहीं रुचते।
१९६३ में वडोदरा जिले की सावली तहसील तहसील में कार्यरत युवा सर्वोदयी कार्यकर्ता जगदीश शाह का वेतन सौ रुपए था। जापानी सेट असी रुपये का मिलता था , कैसे खरीदते ?'रेडियो जगत' नामक गुजराती पत्रिका के वे नियमित पाठक थे। इसमें तीन ट्रांजिस्टर वाले सेट बनाने की विधि और उसका सर्किट दिया हुआ था। इस विधि से सेट बनाने के लिए बाजार से ३५ रुपए का सामान खरीदना पड़ता। सामाजिक जीवन की सक्रियता के में से रात बेरात जग कर जगदीश भाई ने जो ट्रांजिस्टर सेट बनाया वह सिर्फ़ एक स्टेशन पकड़ता था- उनके सर्वोदयी बन्धु इस गुण की तुलना - 'एक पत्नी व्रत' से करते और कुछ इसे ब्रह्मचारी रेडियो कहते। गुजरात का पहला रेडियो स्टेशन भी वडोदरा का था जो बाद में वडोदरा-अहमदाबाद संयुक्त स्टेशन बना।वडोदरा से स्टेशन न हते इसके लिए आन्दोलन भी हुआ था। राजकोट और भुज स्टेशन बाद में बने।
रविवार शाम ४ बजे इस स्टेशन से 'विसराता सुर' नामक कार्यक्रम में हिन्दी फिल्मों के भूले बिसरे गीत आते तब जगदीश भाइ ध्यान मग्न हो सुनते।
जगदीश भाई से हिन्दी फिल्मों के रेडियो प्रसारण के अनेक रोचक तथ्य जानने को मिले। जवाहरलाल नेहरू की कैबिनेट में सूचना प्रसारण मन्त्री श्री केसकर पर 'शास्त्रीय संगीत लॉबी' का दबाव पड़ा था जिसके चलते आकशवाणी पर फिल्मी गीत और हारमोनियम नहीं बजते थे। लोग रेडियो सिलोन और रेडियो गोआ पर हिन्दी फ़िल्मी गीत सुनते। हारमोनियम पर रोक का किस्सा कुछ तकनीकी है , फिर कभी।
१५ अगस्त १९५३ को जगदीश भाई ने सर्वोदय आन्दोलन के लिए जीवन समर्पित किया , उसके पहले हर हफ़्ते तीन हिन्दी और एक अंग्रेजी फिल्म देखने का नियम था।घर से दो रुपये हफ़्ता पॉकेट खर्च मिलता।एक आने का टिकट के हिसाब से चार आने खर्च हो जाते ! -यह उन्हें मंजूर नहीं था। इसलिए एक अन्य शौक से धनोपार्जन करते-डाक टिकट संग्रह द्वारा। सैंकड़ों भारतीय टिकट विदेशी टिकट संग्रहकर्ताओं को भेजते और उनसे प्राप्त टिकतों के सौ-सौ के पैकेट आठ आठ आने में बेचते।२६ जनवरी १९५० को संविधान सभा लागू होने की खुशी में वडोदरा में डाक टिकट प्रदर्शनी लगी।जगदीश भाई के संग्रह के दो फ्रेम प्रदर्शित हुए और पसन्द किए गए।१५-१६ साल के किशोर के संग्रह से लोग प्रभावित हु। पतों का आदान-प्रदान हुआ और आठ आने पैकेट वाले कई ग्राहक बन गये। स्तैनली गिबन्स का आलबम भी खरीद लिया।
१९५३ में जगदीश भाई ने कई चीजें छोड़ी- जिनमें ऑमलेट के साथ फिल्में देखना भी था।सर्वोदयी गोल में रेडियो के लिए भी माहौल कुछ प्रतिकूल था। १९६३ में विनोबा की पदयात्रा बंगाल में थी। जगदीश भाई २० दिन उसमें शामिल रहे।एक दिन विनोबा की निकट सहयोगी कुसुमताई से मिलने गये तब एक छोटे सेट पर वे फिल्मी गीत सुन रही थीं। जगदीश भाई बल्लियों उछल पद़्ए और उनसे बोले,'यह तो अति उत्तम यन्त्र है।' कुसुमताई ने बताया,'यह 'बाबा' को समाचार सुनाने के लिए आया है।'
मैंने उन्हें रेडियोनामा के बारे में बताया और यह भी कि उनके सर्वोदयी साथी भगवान काका पर मैंने इस चिट्ठे पर एक पोस्ट लिखी थी। इस चिट्ठे के संस्थापक युनुस ख़ान और उनकी पत्नी रेडियो सखी ममता के अहमदाबाद में नूरजहां , शमशाद बेगम और मुबारक बेगम पर केन्द्रित 'ग्रामोफोन क्लब ऑफ़ इण्डिया' द्वारा आयोजित अहमदाबाद में हुए कार्यक्रम के बारे में बताया। जगदीश भाई ने बताया कि वडोदरा के एक यादवजी ऐसा क्लब चलाते।के सी डे के गीत गाने वाले अम्बालाल जो स्वयं प्रज्ञा चक्षु थे इस क्लब के आयोजन में गाते थे। युनुस बताते हैं कि गुजरातियों में पुराने हिन्दी फिल्मी गीतों के संग्रह का शौक व्यापक है।छूटते ही जगदीश भाई कहते हैं-'सूरत के सूरत के हरीश रघुवंशी तो हिन्दी फिल्म संगीत के एन्साइक्लोपीडिया हैं-उनकी गुजराती में एक वृहत पुस्तक भी है"।जगदीश भाई ने भी गुजराती में हिन्दी फिल्मी गीतों की अंत्याक्षरी के लिए राष्ट्री अय्र भक्ति गीतों की एक किताब तैय्यार की है जिसकी २०,००० प्रतियां बिक चुकी हैं।पुस्तक में २०४ गीत हैं तथा इनके पद के शुरुआती वर्ण की विशेष सूची भी दी गयी है। इनमें से १७१ गीतों की एक सीडी भी बनायी है।सर्वोदय जगत के सम्पादक कुमार प्रशान्त के सुझाव पर सर्व सेवा संघ प्रकाशन,राजघाट ,वाराणसी ने हिन्दी संस्करण छापा है।'हिन्दी वाले प्रचार करना नहीं जानते'-जगदीश भाई कष्ट के साथ बताते हैं।
पिछले दस सालों में जगदीश भाई सिर्फ़ यात्रा में रेडियो ले जाते हैम ,बीबीसी सुनने के लिए।पुरानी फिल्मों का उनका संग्रह ४००-५०० सीडी डीवीडी का है।अब के गीतोम के तर्ज ,बोल और नृत्य- जोहराबाई अम्बालेवाली ,सुरैय्या ,कानन देवी,गीता दत्त , लता मगेशकर के इस प्रेमी को नहीं रुचते।
Saturday, June 21, 2008
राष्ट्रीय गीत और गान के राग
बरसों से संगीत सरिता, स्वर सुधा, राग-अनुराग जैसे कार्यक्रम हम सुनते आए है। हमें यह पता चल गया है कि ये ढेर सारे फ़िल्मी गीत कौन-कौन से राग पर आधारित है। पर खेद है कि अब तक यह जानकारी नहीं मिली कि राष्ट्रीय गीत वन्देमातरम और राष्ट्रीय गान जन गन मन किन रागों पर आधारित है।
यह दोनों ही रचनाएँ बंगला भाषा के कवियों से निकली है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रची गई इन रचनाओं को ये कवि स्वयं जन सभाओं में गाया करते थे जिससे लगता है कि यह रचनाएँ रविन्द्र संगीत में निबद्ध है। राष्ट्रीय गान के तो रचनाकार ही रविन्द्रनाथ टैगोर है।
बंकिम चन्द्र द्वारा रचित वन्देमातरम तो बहुत लम्बी रचना है जिसमें माँ दुर्गा की शक्ति का भी बख़ान है पर पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है और इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा देकर इसकी न केवल धुन बल्कि गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है जो बावन सेकेण्ड है।
इस तरह लगता है कि राष्ट्रीय गान और गीत के न सिर्फ़ राग बल्कि इसमें बजने वाले साज़ भी लगभग तय है। हम विविध भारती से अनुरोध करते है कि अपने प्रतिष्ठित कार्यक्रम संगीत सरिता में राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत का संगीत विश्लेषण प्रस्तुत करें।
साथ ही लोकप्रिय क़ौमी तराना - सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा, का भी संगीत विश्लेषण प्रस्तुत करें। मोहम्मद इक़बाल की यह रचना लगता है हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ही रची गई है जो लगभग एक ही धुन में लोकप्रिय है। मेरी जानकारी में यह तराना किसी और धुन में नहीं है।
यह दोनों ही रचनाएँ बंगला भाषा के कवियों से निकली है। स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान रची गई इन रचनाओं को ये कवि स्वयं जन सभाओं में गाया करते थे जिससे लगता है कि यह रचनाएँ रविन्द्र संगीत में निबद्ध है। राष्ट्रीय गान के तो रचनाकार ही रविन्द्रनाथ टैगोर है।
बंकिम चन्द्र द्वारा रचित वन्देमातरम तो बहुत लम्बी रचना है जिसमें माँ दुर्गा की शक्ति का भी बख़ान है पर पहले अंतरे के साथ इसे सरकारी गीत के रूप में मान्यता मिली है और इसे राष्ट्रीय गीत का दर्जा देकर इसकी न केवल धुन बल्कि गीत की अवधि तक संविधान सभा द्वारा तय की गई है जो बावन सेकेण्ड है।
इस तरह लगता है कि राष्ट्रीय गान और गीत के न सिर्फ़ राग बल्कि इसमें बजने वाले साज़ भी लगभग तय है। हम विविध भारती से अनुरोध करते है कि अपने प्रतिष्ठित कार्यक्रम संगीत सरिता में राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत का संगीत विश्लेषण प्रस्तुत करें।
साथ ही लोकप्रिय क़ौमी तराना - सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा, का भी संगीत विश्लेषण प्रस्तुत करें। मोहम्मद इक़बाल की यह रचना लगता है हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में ही रची गई है जो लगभग एक ही धुन में लोकप्रिय है। मेरी जानकारी में यह तराना किसी और धुन में नहीं है।
Thursday, June 19, 2008
श्री अमीन सायानी साहब की प्रस्तूती : कोलगेट संगीत सितारोंकी मेहफी़ल
आदरणिय पाठकगण,
कल श्री अमीन सायानी साहबसे आकाशवाणी के कुछ: प्रायमरी और कुछ: स्थानिय विविध केन्द्रों से शुरू हुए उनके कार्यक्रम कोलगेट संगीत सितारों की मेहफी़ल के बारेमें सत्तावार जानकारी प्रप्त हुई । यह मेईल नोन युनिकोड आकृति देव फोन्ट्समें होते हुए पढ़ पाना असंभव था । इस लिये मेरी तकलीफ़ के बारेमें मेरे उनको सुचीत करने पर उनके बेटे श्री राजीलजीने उन फोन्ट्स का झिप वर्झन भेजा । तब जो सुचना हिन्दीमें माईक्रो सोफ्ट वर्ड्झमें पढी उसको जेपीजी में परिवर्तीत करके आपके लिये प्रस्तूत करने की कोशिश की है, जिससे संबंधीत श्रोता अपने अपने संबंधित केन्दों से अपने अपने समय पर यह कार्यक्रम श्रंखला सुन शके । एक बात और कहनी है, की यह श्रंखला पहेले आकाशवाणी के करीब ४० केन्दो से प्रसारित होनी तह थी । पर आकाशवाणी द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों के प्रस्तूती दरों में तगडी वृद्धि किये जाने पर इस श्रंखला के प्रायोजकोने अपना बजेट बढाने के बजाय उसको ४० की जगह करीब १३ केन्दों तक सिमीत कर दिया ।
तो पढी़ये श्री अमीन सायानी साहब का संदेश ।
पियुष महेता ।
सुरत ।
कल श्री अमीन सायानी साहबसे आकाशवाणी के कुछ: प्रायमरी और कुछ: स्थानिय विविध केन्द्रों से शुरू हुए उनके कार्यक्रम कोलगेट संगीत सितारों की मेहफी़ल के बारेमें सत्तावार जानकारी प्रप्त हुई । यह मेईल नोन युनिकोड आकृति देव फोन्ट्समें होते हुए पढ़ पाना असंभव था । इस लिये मेरी तकलीफ़ के बारेमें मेरे उनको सुचीत करने पर उनके बेटे श्री राजीलजीने उन फोन्ट्स का झिप वर्झन भेजा । तब जो सुचना हिन्दीमें माईक्रो सोफ्ट वर्ड्झमें पढी उसको जेपीजी में परिवर्तीत करके आपके लिये प्रस्तूत करने की कोशिश की है, जिससे संबंधीत श्रोता अपने अपने संबंधित केन्दों से अपने अपने समय पर यह कार्यक्रम श्रंखला सुन शके । एक बात और कहनी है, की यह श्रंखला पहेले आकाशवाणी के करीब ४० केन्दो से प्रसारित होनी तह थी । पर आकाशवाणी द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों के प्रस्तूती दरों में तगडी वृद्धि किये जाने पर इस श्रंखला के प्रायोजकोने अपना बजेट बढाने के बजाय उसको ४० की जगह करीब १३ केन्दों तक सिमीत कर दिया ।
तो पढी़ये श्री अमीन सायानी साहब का संदेश ।
पियुष महेता ।
सुरत ।
और भी राज्य है राजस्थान के अलावा
कल रात जयमाला के बाद इनसे मिलिए कार्यक्रम में बीएसएफ़ के फ़ौजी भाई की पत्नी से ममता (सिंह) जी की बातचीत प्रसारित हुई। ऐसी और भी बातचीत के कार्यक्रम प्रसारित हुए। इनसे मिलिए कार्यक्रम में फ़ौजी अधिकारियों से शायद अशोक सोनावणे जी ने भी बातचीत की।
पिछले रविवार यूथ एक्सप्रेस में मीडिया को लेकर जो बातचीत कमल (शर्मा) जी ने विश्लेषक विनोद जी से की उनके तार भी जैसलमेर से जुड़े थे।
सखि-सहेली में जयपुर आकाशवाणी केन्द्र में तैयार कार्यक्रम दुबारा भी प्रसारित किया गया। दुबारा सुनना भी बहुत अच्छा लगा लेकिन…
अब लग रहा है जैसे विविध भारती को जैसलमेरिया हो गया जैसे मच्छर काटने से मलेरिया होता है वैसे ही विविध भारती की टीम जैसलमेर क्या गई, बस सबको जैसलमेरिया हो गया।
एक कहावत है अंग्रेज़ी में - डू नाँट पे टू मच फ़ाँर ए विज़ल। इस कहावत से संबंधित छोटी सी कहानी है - एक ग़रीब लड़का था। जब वह दूसरे बच्चों को स्टील से बनी सीटी (विज़ल) बजाते देखता तो उसका भी मन करता बजाने को। जैसे-तैसे पैसे जोड़ कर उसने सीटी खरीदी। बहुत ख़ुश हुआ। एक कोने में बैठ कर सीटी बजानी शुरू की। बजाया बहुत बजाया फिर बजाते बजाते थक गया और सोचने लगा अब इसे क्या बजाऊँ ? कब तक बजाऊँ ? इसीलिए कहते है डू नाँ पे टू मच फ़ाँर ए विज़ल
कुछ ऐसी ही स्थिति नज़र आ रही है विविध भारती के कार्यक्रमों में। जहाँ सुनो वहाँ जैसलमेर, चाहे इनसे मिलिए हो या सखि-सहेली या यूथ एक्स्प्रेस वग़ैरह वग़ैरह…
शायर ने क्या ख़ूब कहा - और भी ग़म है ज़माने में मुहब्बत के सिवाय। भई सच में ज़िन्दगी में मुहब्बत ही सब कुछ नहीं है। वैसे ही और भी रज्य है इस देश में राजस्थान के अलावा, एक जैसलमेर ही इकलौता शहर नहीं है।
विविध भारती की टीम का दौरा कोई कुंभ का मेला तो है नहीं जो चौदह साल में एक बार लगे। अरे भई… और राज्यों के भी दौरे कीजिए। हम मानते है कि राजस्थान की रंग-बिरंगी संस्कृति की छटा ही निराली है पर पूर्वोत्तर राज्यों का प्राकृतिक सौन्दर्य कुछ कम नहीं है। वहाँ के लोक संगीत को भी बटोर लाते।
अगर फ़ौजी भाइयों के पास ही जाना है तो असम में भी बहुत से फ़ौजी भाई है। कच्छ की सीमा सुरक्षा के जवानों से भी बात करेगें तो मज़ा आएगा। कच्छ के रेगिस्तान को जानेंगें तो भी मज़ा आएगा।
हमें इतना ज्ञान नहीं है कि जैसलमेर की सीमा अन्य सीमाओं से कितनी विशेष है और इसकी बहुत अधिक जानकारी भी नहीं मिली। पर इतना जानते है अपने देश में निराली विविधता है जो विविध भारती जैसलमेर की तर्ज पर समेट कर अपने श्रोताओं तक पहुँचा दे तो मज़ा आ जाए।
पिछले रविवार यूथ एक्सप्रेस में मीडिया को लेकर जो बातचीत कमल (शर्मा) जी ने विश्लेषक विनोद जी से की उनके तार भी जैसलमेर से जुड़े थे।
सखि-सहेली में जयपुर आकाशवाणी केन्द्र में तैयार कार्यक्रम दुबारा भी प्रसारित किया गया। दुबारा सुनना भी बहुत अच्छा लगा लेकिन…
अब लग रहा है जैसे विविध भारती को जैसलमेरिया हो गया जैसे मच्छर काटने से मलेरिया होता है वैसे ही विविध भारती की टीम जैसलमेर क्या गई, बस सबको जैसलमेरिया हो गया।
एक कहावत है अंग्रेज़ी में - डू नाँट पे टू मच फ़ाँर ए विज़ल। इस कहावत से संबंधित छोटी सी कहानी है - एक ग़रीब लड़का था। जब वह दूसरे बच्चों को स्टील से बनी सीटी (विज़ल) बजाते देखता तो उसका भी मन करता बजाने को। जैसे-तैसे पैसे जोड़ कर उसने सीटी खरीदी। बहुत ख़ुश हुआ। एक कोने में बैठ कर सीटी बजानी शुरू की। बजाया बहुत बजाया फिर बजाते बजाते थक गया और सोचने लगा अब इसे क्या बजाऊँ ? कब तक बजाऊँ ? इसीलिए कहते है डू नाँ पे टू मच फ़ाँर ए विज़ल
कुछ ऐसी ही स्थिति नज़र आ रही है विविध भारती के कार्यक्रमों में। जहाँ सुनो वहाँ जैसलमेर, चाहे इनसे मिलिए हो या सखि-सहेली या यूथ एक्स्प्रेस वग़ैरह वग़ैरह…
शायर ने क्या ख़ूब कहा - और भी ग़म है ज़माने में मुहब्बत के सिवाय। भई सच में ज़िन्दगी में मुहब्बत ही सब कुछ नहीं है। वैसे ही और भी रज्य है इस देश में राजस्थान के अलावा, एक जैसलमेर ही इकलौता शहर नहीं है।
विविध भारती की टीम का दौरा कोई कुंभ का मेला तो है नहीं जो चौदह साल में एक बार लगे। अरे भई… और राज्यों के भी दौरे कीजिए। हम मानते है कि राजस्थान की रंग-बिरंगी संस्कृति की छटा ही निराली है पर पूर्वोत्तर राज्यों का प्राकृतिक सौन्दर्य कुछ कम नहीं है। वहाँ के लोक संगीत को भी बटोर लाते।
अगर फ़ौजी भाइयों के पास ही जाना है तो असम में भी बहुत से फ़ौजी भाई है। कच्छ की सीमा सुरक्षा के जवानों से भी बात करेगें तो मज़ा आएगा। कच्छ के रेगिस्तान को जानेंगें तो भी मज़ा आएगा।
हमें इतना ज्ञान नहीं है कि जैसलमेर की सीमा अन्य सीमाओं से कितनी विशेष है और इसकी बहुत अधिक जानकारी भी नहीं मिली। पर इतना जानते है अपने देश में निराली विविधता है जो विविध भारती जैसलमेर की तर्ज पर समेट कर अपने श्रोताओं तक पहुँचा दे तो मज़ा आ जाए।
Tuesday, June 17, 2008
युवावाणी
युवावाणी यानि युवाओं की वाणी - जैसी आकाशवाणी वैसी ही युवावाणी, अपने स्तर के श्रोताओं का परिपूर्ण संसार।
जहाँ तक मेरी जानकारी है सत्तर के दशक में आकाशवाणी से युवावाणी कार्यक्रम आरंभ हुए। पहले शायद दिल्ली या मुंबई फिर सत्तर के दशक के मध्य तक देश के अधिकांश आकाशवाणी केन्द्रों से इसकी शुरूवात हो गई।
युवावाणी कार्यक्रम युवाओं के लिए युवाओं द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला कार्यक्रम है। लगभग सभी केन्द्रों के कार्यक्रम का ढांचा एक जैसा है जिसमें शायद कुछ फेर-बदल होता रहता है। प्रसारण का समय सप्ताह में एक बार कम से कम तो अधिक से अधिक रोज़ एक घण्टा है जिसमें से आधा घण्टा सुबह और आधा घण्टा शाम में है। कहीं-कहीं शायद पैंतालीस मिनट तक भी रहा।
युवावाणी अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषा दोनों में रही और एक के बाद एक भाषाओं में लगातार प्रसारण समय रहा। राज्यों की विशेष स्थिति पर दो से अधिक भाषाओं में भी कार्यक्रम रहे जैसे आकाशवाणी हैदराबाद से अंग्रेज़ी, तेलुगु और उर्दू में रोज़ एक घण्टा और हिन्दी में सप्ताह में आधे घण्टे का प्रसारण।
युवावाणी में क्या नहीं है ? सभी तरह के कार्यक्रम है जैसे रूपक (फ़ीचर) होता है जो किसी भी विषय पर होता है, क्विज़ होता है सामान्य जानकारी बढाने के लिए, वार्ताएँ होती है विभिन्न विषयों पर, कैरियर के लिए उपयोगी बातें बताई जाती है, विभिन्न व्यक्तियों से भेंट वार्ताएँ होती है जिसमें कला और साहित्य से लेकर आईएएस जैसी परीक्षाओं में सफल उम्मीदवारों से भी बातचीत की जाती है।
फ़िल्मी गीत और ग़ैर फ़िल्मी गीत होते है जो नए गाने होते है। सप्ताह में या महीने में एक बार एक कार्यक्रम होता है जिसका शीर्षक अधिकांश केन्द्रों में मेरी पसन्द रहा जिसमें प्रस्तुतकर्ता अपनी पसन्द के गीत सुनवाते है और कुछ गीत के बारे में तो कुछ अपने मन की बात बताते है।
ऐसा ही कार्यक्रम अंग्रेज़ी में भी होता है जिसका शीर्षक है माई काइन्ड आँफ़ म्यूज़िक जिसमें अंग्रेज़ी फ़िल्मी और ग़ैर फ़िल्मी गीत सुनने को मिलते है। इस तरह इसी कार्यक्रम से पाश्चात्य संगीत सुनने को मिलता है। कभी-कभी केवल पाश्चात्य धुनें भी सुनवाई जाती है।
आपमें से बहुतों को याद होगी कम सैपटैम्बर की लोकप्रिय धुन जो कई हिन्दी फ़िल्मों और नाटकों में भी बजती रही।
युवावाणी में नाटकों का भी नियमित प्रसारण होता रहा। इतना ही नहीं कहानियाँ और कविताएँ भी प्रसारित होने से नए कवियों, लेखकों और कलाकारों को भी प्रोत्साहन मिला। इसी कार्यक्रम से कई गायक और संगीतकार उभरे।
जहाँ तक मेरी जानकारी है सत्तर के दशक में आकाशवाणी से युवावाणी कार्यक्रम आरंभ हुए। पहले शायद दिल्ली या मुंबई फिर सत्तर के दशक के मध्य तक देश के अधिकांश आकाशवाणी केन्द्रों से इसकी शुरूवात हो गई।
युवावाणी कार्यक्रम युवाओं के लिए युवाओं द्वारा प्रस्तुत किया जाने वाला कार्यक्रम है। लगभग सभी केन्द्रों के कार्यक्रम का ढांचा एक जैसा है जिसमें शायद कुछ फेर-बदल होता रहता है। प्रसारण का समय सप्ताह में एक बार कम से कम तो अधिक से अधिक रोज़ एक घण्टा है जिसमें से आधा घण्टा सुबह और आधा घण्टा शाम में है। कहीं-कहीं शायद पैंतालीस मिनट तक भी रहा।
युवावाणी अंग्रेज़ी और क्षेत्रीय भाषा दोनों में रही और एक के बाद एक भाषाओं में लगातार प्रसारण समय रहा। राज्यों की विशेष स्थिति पर दो से अधिक भाषाओं में भी कार्यक्रम रहे जैसे आकाशवाणी हैदराबाद से अंग्रेज़ी, तेलुगु और उर्दू में रोज़ एक घण्टा और हिन्दी में सप्ताह में आधे घण्टे का प्रसारण।
युवावाणी में क्या नहीं है ? सभी तरह के कार्यक्रम है जैसे रूपक (फ़ीचर) होता है जो किसी भी विषय पर होता है, क्विज़ होता है सामान्य जानकारी बढाने के लिए, वार्ताएँ होती है विभिन्न विषयों पर, कैरियर के लिए उपयोगी बातें बताई जाती है, विभिन्न व्यक्तियों से भेंट वार्ताएँ होती है जिसमें कला और साहित्य से लेकर आईएएस जैसी परीक्षाओं में सफल उम्मीदवारों से भी बातचीत की जाती है।
फ़िल्मी गीत और ग़ैर फ़िल्मी गीत होते है जो नए गाने होते है। सप्ताह में या महीने में एक बार एक कार्यक्रम होता है जिसका शीर्षक अधिकांश केन्द्रों में मेरी पसन्द रहा जिसमें प्रस्तुतकर्ता अपनी पसन्द के गीत सुनवाते है और कुछ गीत के बारे में तो कुछ अपने मन की बात बताते है।
ऐसा ही कार्यक्रम अंग्रेज़ी में भी होता है जिसका शीर्षक है माई काइन्ड आँफ़ म्यूज़िक जिसमें अंग्रेज़ी फ़िल्मी और ग़ैर फ़िल्मी गीत सुनने को मिलते है। इस तरह इसी कार्यक्रम से पाश्चात्य संगीत सुनने को मिलता है। कभी-कभी केवल पाश्चात्य धुनें भी सुनवाई जाती है।
आपमें से बहुतों को याद होगी कम सैपटैम्बर की लोकप्रिय धुन जो कई हिन्दी फ़िल्मों और नाटकों में भी बजती रही।
युवावाणी में नाटकों का भी नियमित प्रसारण होता रहा। इतना ही नहीं कहानियाँ और कविताएँ भी प्रसारित होने से नए कवियों, लेखकों और कलाकारों को भी प्रोत्साहन मिला। इसी कार्यक्रम से कई गायक और संगीतकार उभरे।
Monday, June 16, 2008
मास्टर इब्राहिम की क्लेरिनेट
आदरणिय पाठकगण,
आज आपको इस पोस्ट पर मास्टर इब्राहिम की क्लेरिनेट पर बजाई हुई फिल्म बडी बहन और फिल्म गंगा जमूना के दो गीतों की धूने सुना रहा हूँ ।
आप सुनिये और पसंद आयी या नहीं बताईए ।
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आज आपको इस पोस्ट पर मास्टर इब्राहिम की क्लेरिनेट पर बजाई हुई फिल्म बडी बहन और फिल्म गंगा जमूना के दो गीतों की धूने सुना रहा हूँ ।
आप सुनिये और पसंद आयी या नहीं बताईए ।
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Friday, June 13, 2008
विविध भारती की रसोई में सखि- सहेली
जहाँ तक मेरी जानकारी है विविध भारती पर महिलाओं के लिए विशेष रूप से तैयार किया जाने वाला पहला कार्यक्रम है - सखि-सहेली।
वैसे विविध भारती का स्वरूप ही कुछ ऐसा रहा कि कार्यक्रमों के तो अलग-अलग वर्ग रहे जैसे शास्त्रीय संगीत, फ़िल्मी संगीत, लोक संगीत, कविताएँ, वार्ताएँ, नाटक, प्रहसन पर श्रोताओं के अलग-अलग वर्ग नहीं रहे। अब तो दो वर्ग स्पष्ट है - युवाओं का यूथ एक्स्प्रेस और महिलाओं की सखि-सहेली।
सप्ताह के पाँच दिनों में से सोमवार को सखि-सहेली रसोई पर ध्यान देती है। भले ही विविध भारती पर शायद यह पहली बार हो पर आकाशवाणी में हमेशा से ही महिलाओं के कार्यक्रम और उसमें रसोई के कार्यक्रम रहे है।
मेरी दीदी का आकाशवाणी हैदराबाद के इस कार्यक्रम में पहले कुछ ज्यादा ही योगदान हुआ करता था। वह जब भी कार्यक्रम देती उसमें विविधता रखती थी जैसे - मिठाई, नमकीन, विशेष सब्जी बनाना और विधि बाताते समय वह पौष्टिकता भी बतातीं थी। इन दोनों ही बातों का न होना सखि-सहेली में मुझे कुछ खटकता है।
सखि-सहेली में कभी एक ही चीज़ बनाना बताते है कभी दो या तीन। कई बार बहुत ही साधारण सी चीज़े बताई जाती है जैसे मख़ाने की खीर। कभी-कभी तो ऐसी चीज़े बताई जाती है जिन्हें सुन कर लगता है कहीं सखियाँ मज़ाक तो नहीं कर रही वैसे आज पहली अप्रैल तो नहीं है - जब बतातीं है कि करेले की कचौरी कैसे बनती है।
अच्छा तो तब लगता है जब शक्करकंद की पूरिया, शाकाहारी कवाब, आँवले का अचार, बेसन केसर बर्फ़ी बनाना बताया जाता है।
कभी कुछ ग़लत भी लगता है जैसे एक बार पना बनाने के लिए बताया गया कि थोड़े से रिफ़ाइंड तेल में ज़ीरे को भून कर डालना चाहिए। मुझे लगता है कि गर्मी में बनाए जाने वाले इस पना में भूना ज़ीरा जरूर डाला जाता है पर अक्सर ज़ीरे को पहले से ही भून कर रख लिया जाता है क्योंकि गरम तेल डाल कर बनाया गया पना गर्मी में शायद ही पिया जा सकेगा।
सबसे अच्छी लगी अगरसा बनाने की विधि। यह ऐसी चीज़ है जो सभी क्षेत्रों में नहीं बनाई जाती बल्कि कई क्षेत्र के लोग तो जानते भी नहीं। अच्छा होगा अगर ऐसी ही चीज़ों के बारे में ज्यादा बताया जाए। हमारे देश में इतने राज्य है और सभी राज्यों के कुछ ख़ास पकवान होते है जैसे -
गुजरात का ढोकला, खाखरा मुंबई की ख़ास भेलपूरी राजस्थान की कचौड़ियाँ, दक्षिण का इडली, डोसा, साँभर। वैसे ये चीज़े अन्य राज्यों में खाने को तो मिल जाती है पर कुछ विशेष चीज़े ऐसी है जिन्हें खाना तो दूर की बात रही जिनके बारे में जानकारी भी बहुतों को नहीं है जैसे -
बंगाली सब्जी जिसका नाम शायद दम्बोख़्त है जो शायद आलू या जिमीकन्द से बनती है ऐसा ही एक और नाम है पाश्ता या शायद पोश्ता जो शायद करेले से बनती है। इसके अलावा मछली या परवल का झोल भी बनाया जाता है। इनके तो नाम भी ठीक से पता नहीं है। आकाशवाणी के क्षेत्रीय केन्द्रों की सहायता से ऐसे पकवान बताए जा सकते है। साथ ही थोड़ी सी जानकारी पौष्टिकता की भी दी जाए तो सोमवार की सखि-सहेली स्वादिष्ट हो जाए।
वैसे विविध भारती का स्वरूप ही कुछ ऐसा रहा कि कार्यक्रमों के तो अलग-अलग वर्ग रहे जैसे शास्त्रीय संगीत, फ़िल्मी संगीत, लोक संगीत, कविताएँ, वार्ताएँ, नाटक, प्रहसन पर श्रोताओं के अलग-अलग वर्ग नहीं रहे। अब तो दो वर्ग स्पष्ट है - युवाओं का यूथ एक्स्प्रेस और महिलाओं की सखि-सहेली।
सप्ताह के पाँच दिनों में से सोमवार को सखि-सहेली रसोई पर ध्यान देती है। भले ही विविध भारती पर शायद यह पहली बार हो पर आकाशवाणी में हमेशा से ही महिलाओं के कार्यक्रम और उसमें रसोई के कार्यक्रम रहे है।
मेरी दीदी का आकाशवाणी हैदराबाद के इस कार्यक्रम में पहले कुछ ज्यादा ही योगदान हुआ करता था। वह जब भी कार्यक्रम देती उसमें विविधता रखती थी जैसे - मिठाई, नमकीन, विशेष सब्जी बनाना और विधि बाताते समय वह पौष्टिकता भी बतातीं थी। इन दोनों ही बातों का न होना सखि-सहेली में मुझे कुछ खटकता है।
सखि-सहेली में कभी एक ही चीज़ बनाना बताते है कभी दो या तीन। कई बार बहुत ही साधारण सी चीज़े बताई जाती है जैसे मख़ाने की खीर। कभी-कभी तो ऐसी चीज़े बताई जाती है जिन्हें सुन कर लगता है कहीं सखियाँ मज़ाक तो नहीं कर रही वैसे आज पहली अप्रैल तो नहीं है - जब बतातीं है कि करेले की कचौरी कैसे बनती है।
अच्छा तो तब लगता है जब शक्करकंद की पूरिया, शाकाहारी कवाब, आँवले का अचार, बेसन केसर बर्फ़ी बनाना बताया जाता है।
कभी कुछ ग़लत भी लगता है जैसे एक बार पना बनाने के लिए बताया गया कि थोड़े से रिफ़ाइंड तेल में ज़ीरे को भून कर डालना चाहिए। मुझे लगता है कि गर्मी में बनाए जाने वाले इस पना में भूना ज़ीरा जरूर डाला जाता है पर अक्सर ज़ीरे को पहले से ही भून कर रख लिया जाता है क्योंकि गरम तेल डाल कर बनाया गया पना गर्मी में शायद ही पिया जा सकेगा।
सबसे अच्छी लगी अगरसा बनाने की विधि। यह ऐसी चीज़ है जो सभी क्षेत्रों में नहीं बनाई जाती बल्कि कई क्षेत्र के लोग तो जानते भी नहीं। अच्छा होगा अगर ऐसी ही चीज़ों के बारे में ज्यादा बताया जाए। हमारे देश में इतने राज्य है और सभी राज्यों के कुछ ख़ास पकवान होते है जैसे -
गुजरात का ढोकला, खाखरा मुंबई की ख़ास भेलपूरी राजस्थान की कचौड़ियाँ, दक्षिण का इडली, डोसा, साँभर। वैसे ये चीज़े अन्य राज्यों में खाने को तो मिल जाती है पर कुछ विशेष चीज़े ऐसी है जिन्हें खाना तो दूर की बात रही जिनके बारे में जानकारी भी बहुतों को नहीं है जैसे -
बंगाली सब्जी जिसका नाम शायद दम्बोख़्त है जो शायद आलू या जिमीकन्द से बनती है ऐसा ही एक और नाम है पाश्ता या शायद पोश्ता जो शायद करेले से बनती है। इसके अलावा मछली या परवल का झोल भी बनाया जाता है। इनके तो नाम भी ठीक से पता नहीं है। आकाशवाणी के क्षेत्रीय केन्द्रों की सहायता से ऐसे पकवान बताए जा सकते है। साथ ही थोड़ी सी जानकारी पौष्टिकता की भी दी जाए तो सोमवार की सखि-सहेली स्वादिष्ट हो जाए।
Thursday, June 12, 2008
मेरी मुम्बई यात्रा विविध भारती के संग
यह कडी थोडी़ देरी से आयी है ।
दि. २७ फरवरी २००८ के दिन, मेरे चचेरे भाई श्री जतिन के विले पारले स्थित घर से मैं सुबह का खाना (यानि की मेरा लंच ही) ले कर करीब ११.३० पर निकल कर बोरिवली वाली लोकल ट्रेईन पकड़ कर बादमें बोरिवली स्टेसन से गोराई बस डेपो जाने वाली बेस्ट की बस पकड कर विविध भारती सेवा कार्यालय,जो गोराई बस डेपो के सामने ही है, करीब १२.४५ पर पहोंचा, तो सबसे पहेले आमना सामना रेडियो सखी़ श्रीमती ममताजी से हुआ । तो उन्हॊंने पहेले भी अन्य साथियो~ की तरह पिछ़ली मुलाकातो से पहचान होने के करण नमस्कार और हाल चाल पूछ़ताछ की पर तीन तारीख़ की तैयारीया~ में व्यस्त होने के कारण अपने काम के लिये चली गयी । बादमें श्री कमल शर्माजी, जो मेरे विविध भारतीमें सबसे प्रथम परिचीत है, मिले पर वे भी हाल चाल पूछ़ कर स्टूडियोमें कार्यक्रम निर्माण में व्यस्त हो गये । बादमें श्री युनूसजी आये और कुछ उनका काम इस प्रकारका था कि वे कुछ: समय अपना काम करते हुए कुछ: बातें भी करते रहे । उस समय दौरान मैनें श्री अशोक सोनावणेजी जो करीब़ १९९९में मिल पाये थे पर कुछ: फोन इन कार्यक्रमों में बात होने के कारण उनसे पहचान रही थी, वे सजीव प्रसारणमें व्यस्त थे, उनसे मिलना चाहा तो ३ बजे सखी सहेली के समय वे प्रसारण कक्ष से बाहर आये, जो खबर मूजे़ पहचानने वाले प्रसारण अधिकारी श्री पी के ए नायर साहबने दी तो उनको ढू~ढ रहा था तो ममताजी ने उनसे परिचय ताझा करवाया तब श्री अशोकजीने मेरी करीब २००१ में जल तरंग पर फिल्मी धून की कार्यक्रम हल्लो आपके अनुरोध में कि हुई फरमाईश (जो कभी मैं रेडियोनामा पर रखू~गा) को तूर्त याद किया । तब एक साथीने टिपणी की कि वे लोग बजाने के बाद काफी़ चीझे भूल जाते है पर मेरे जैसे श्रोता याद रखते है । बादमें थोडी देर वे और श्री अमरकान्त दूबेजी भी मेरे साथ कुछ: देर के लिये बातें करने के लिये बैठे । उस दौरान श्री शहनाझ अखतरीजी भी आयी और थोडी़ सी पूरानी पहचान ताझा करके अपने काममें जूट गयी । बादमें श्री महेन्द्र मोदी साहब बाहर से आये तो उन्होंने मूझे पहचान कर मंद हास्य किया । पर वे उस दिन आकाशवाणी के मुम्बई स्थित उप-महानिर्देषक श्री से उनकी बैठक तय थी इस लिये बोल के चले गये । थोडी़ देर के लिये श्रीमती निम्मी मिश्राजी से भी बात हुई, जो भी मूझे श्रोता के रूपमें हल्लो आप के अनुरोध पर और सिने पहेली से जानती ही है पर आमना सामना करीब ७ या ८ साल पहेले हुआ था जो अभी फिरसे हुआ । बादमें आकशवाणी सुरत से ही परिचयमें आये सहायक अभियंता श्री के एस पाटिल साहब से भेट हुई और उनके साहब अभियंता श्री अजय श्रीवास्तवजी से भी तीन साल पहेले हुई पहचान ताझा हुई । कार्यक्रम अधिकारी श्री राकेश जोषीजी और श्रीमती कमलेश पाठक्जी से भी पहचान ताझी हुई और श्रीमती शकुंतला पंडितजी से पहली बार पहचान हुई । अन्तमें कार्यक्रम अधिकारिणी श्रीमती कांचन प्रकाश संगीतजी से (जो मूझे २८ अप्रिल, २००७ के स्वर्ण-स्मृति कार्यक्रमें मेरा टेलिफोनिक इन्टर्व्यू कर चूकी थी और जिसे आप पिछले एक मेरे पोस्टमें सुन चूके है) प्रथम प्रत्यक्ष मुलाकात हुई और कार्यक्रमों के बारेमें काफी़ सारी बातें हुई । वे अपना दूसरा काम भी निपटाती गयी पर उन्होंने पहेले से ही बोल दिया था कि काम का प्रकार ऐसा है कि साथ साथ बात करनेमें उन्हें कोई आपत्ती नहीं है । इस तरह शाम करीब ४.४५ पर मैं वहा~ से बोरिवली मेरी ममेरी (सागरजी गलती हो तो ध्यान खिंचीये) बहन श्रीमती हर्षदा निरंजन मून्शी के घर मिलने गया । पिछली मुम्बई की कई मुलाकातो के दौरान कई बार उनके यहा~ भी ठहरना हुआ है और उन यात्रा के दौरान उनका, उनके पति श्री निरंजन मुन्शीजी उनके बेटे श्री तुषार और पुत्रवधू श्रीमती अनुराधा तथा उनके बच्चों का मूझे काफी़ सहयोग मिला था और इस बार भी मीठा झगडा किया कि उनके यहा~ मैं रहने क्यों नहीं आया । बस इधर ही रात्री का खाना रखो पर इस बार मैंनें कहा कि मेरे चचेरे भाई के यहा~ मेरा खाना बिगडेगा । इस तरह मैं विले पार्ले चला गया और दूसरे दिन मेरे दूसरी ममेरी बहन के यहा~ और बादमें सुरतमॆं बेन्क की नौकरी के दौरान मेरे बहोत ही अच्छे और कद्रदान मेनेजर रहे मूल कर्नाटक के श्री पी सुरेन्द्र उपाध्या साहब से, मेरे दूसरे चचेरे भाई श्री प्रकाशसे और रेडियो श्रीलंका के प्रखर श्रोता श्री प्रभाकर व्यासजी जो ७८ साल के है पर आज भी भगवान की कृपा से अच्छी शहदसे है से मिला जो विले पार्ले ही रहते है पर नझदीकी समयमें बडौ़दा में बसने वाले है उनसे मिला, जो भी मेरे घर एक बार आ गये है । अगली बार रेडियो श्रीलंका के एक और भूतपूर्व उद्दघोषक श्री रिपूसूदन कूमार ऐलावादीजी से बातचीत का दृष्यांकन आप देखेंगे ।
पियुष महेता ।
दि. २७ फरवरी २००८ के दिन, मेरे चचेरे भाई श्री जतिन के विले पारले स्थित घर से मैं सुबह का खाना (यानि की मेरा लंच ही) ले कर करीब ११.३० पर निकल कर बोरिवली वाली लोकल ट्रेईन पकड़ कर बादमें बोरिवली स्टेसन से गोराई बस डेपो जाने वाली बेस्ट की बस पकड कर विविध भारती सेवा कार्यालय,जो गोराई बस डेपो के सामने ही है, करीब १२.४५ पर पहोंचा, तो सबसे पहेले आमना सामना रेडियो सखी़ श्रीमती ममताजी से हुआ । तो उन्हॊंने पहेले भी अन्य साथियो~ की तरह पिछ़ली मुलाकातो से पहचान होने के करण नमस्कार और हाल चाल पूछ़ताछ की पर तीन तारीख़ की तैयारीया~ में व्यस्त होने के कारण अपने काम के लिये चली गयी । बादमें श्री कमल शर्माजी, जो मेरे विविध भारतीमें सबसे प्रथम परिचीत है, मिले पर वे भी हाल चाल पूछ़ कर स्टूडियोमें कार्यक्रम निर्माण में व्यस्त हो गये । बादमें श्री युनूसजी आये और कुछ उनका काम इस प्रकारका था कि वे कुछ: समय अपना काम करते हुए कुछ: बातें भी करते रहे । उस समय दौरान मैनें श्री अशोक सोनावणेजी जो करीब़ १९९९में मिल पाये थे पर कुछ: फोन इन कार्यक्रमों में बात होने के कारण उनसे पहचान रही थी, वे सजीव प्रसारणमें व्यस्त थे, उनसे मिलना चाहा तो ३ बजे सखी सहेली के समय वे प्रसारण कक्ष से बाहर आये, जो खबर मूजे़ पहचानने वाले प्रसारण अधिकारी श्री पी के ए नायर साहबने दी तो उनको ढू~ढ रहा था तो ममताजी ने उनसे परिचय ताझा करवाया तब श्री अशोकजीने मेरी करीब २००१ में जल तरंग पर फिल्मी धून की कार्यक्रम हल्लो आपके अनुरोध में कि हुई फरमाईश (जो कभी मैं रेडियोनामा पर रखू~गा) को तूर्त याद किया । तब एक साथीने टिपणी की कि वे लोग बजाने के बाद काफी़ चीझे भूल जाते है पर मेरे जैसे श्रोता याद रखते है । बादमें थोडी देर वे और श्री अमरकान्त दूबेजी भी मेरे साथ कुछ: देर के लिये बातें करने के लिये बैठे । उस दौरान श्री शहनाझ अखतरीजी भी आयी और थोडी़ सी पूरानी पहचान ताझा करके अपने काममें जूट गयी । बादमें श्री महेन्द्र मोदी साहब बाहर से आये तो उन्होंने मूझे पहचान कर मंद हास्य किया । पर वे उस दिन आकाशवाणी के मुम्बई स्थित उप-महानिर्देषक श्री से उनकी बैठक तय थी इस लिये बोल के चले गये । थोडी़ देर के लिये श्रीमती निम्मी मिश्राजी से भी बात हुई, जो भी मूझे श्रोता के रूपमें हल्लो आप के अनुरोध पर और सिने पहेली से जानती ही है पर आमना सामना करीब ७ या ८ साल पहेले हुआ था जो अभी फिरसे हुआ । बादमें आकशवाणी सुरत से ही परिचयमें आये सहायक अभियंता श्री के एस पाटिल साहब से भेट हुई और उनके साहब अभियंता श्री अजय श्रीवास्तवजी से भी तीन साल पहेले हुई पहचान ताझा हुई । कार्यक्रम अधिकारी श्री राकेश जोषीजी और श्रीमती कमलेश पाठक्जी से भी पहचान ताझी हुई और श्रीमती शकुंतला पंडितजी से पहली बार पहचान हुई । अन्तमें कार्यक्रम अधिकारिणी श्रीमती कांचन प्रकाश संगीतजी से (जो मूझे २८ अप्रिल, २००७ के स्वर्ण-स्मृति कार्यक्रमें मेरा टेलिफोनिक इन्टर्व्यू कर चूकी थी और जिसे आप पिछले एक मेरे पोस्टमें सुन चूके है) प्रथम प्रत्यक्ष मुलाकात हुई और कार्यक्रमों के बारेमें काफी़ सारी बातें हुई । वे अपना दूसरा काम भी निपटाती गयी पर उन्होंने पहेले से ही बोल दिया था कि काम का प्रकार ऐसा है कि साथ साथ बात करनेमें उन्हें कोई आपत्ती नहीं है । इस तरह शाम करीब ४.४५ पर मैं वहा~ से बोरिवली मेरी ममेरी (सागरजी गलती हो तो ध्यान खिंचीये) बहन श्रीमती हर्षदा निरंजन मून्शी के घर मिलने गया । पिछली मुम्बई की कई मुलाकातो के दौरान कई बार उनके यहा~ भी ठहरना हुआ है और उन यात्रा के दौरान उनका, उनके पति श्री निरंजन मुन्शीजी उनके बेटे श्री तुषार और पुत्रवधू श्रीमती अनुराधा तथा उनके बच्चों का मूझे काफी़ सहयोग मिला था और इस बार भी मीठा झगडा किया कि उनके यहा~ मैं रहने क्यों नहीं आया । बस इधर ही रात्री का खाना रखो पर इस बार मैंनें कहा कि मेरे चचेरे भाई के यहा~ मेरा खाना बिगडेगा । इस तरह मैं विले पार्ले चला गया और दूसरे दिन मेरे दूसरी ममेरी बहन के यहा~ और बादमें सुरतमॆं बेन्क की नौकरी के दौरान मेरे बहोत ही अच्छे और कद्रदान मेनेजर रहे मूल कर्नाटक के श्री पी सुरेन्द्र उपाध्या साहब से, मेरे दूसरे चचेरे भाई श्री प्रकाशसे और रेडियो श्रीलंका के प्रखर श्रोता श्री प्रभाकर व्यासजी जो ७८ साल के है पर आज भी भगवान की कृपा से अच्छी शहदसे है से मिला जो विले पार्ले ही रहते है पर नझदीकी समयमें बडौ़दा में बसने वाले है उनसे मिला, जो भी मेरे घर एक बार आ गये है । अगली बार रेडियो श्रीलंका के एक और भूतपूर्व उद्दघोषक श्री रिपूसूदन कूमार ऐलावादीजी से बातचीत का दृष्यांकन आप देखेंगे ।
पियुष महेता ।
Wednesday, June 11, 2008
टेलीविजन में रेडियो
पिछले रविवार को दोपहर बाद मैं अपनी पसन्द का कोई कार्यक्रम देखने के लिए टेलीविजन के रिमोट पर ऊँगली चला रही थी। एक के बाद एक चैनल आ रहे थे कि एक चैनल पर वालीबाल का मैच चल रहा था और आवाज़ आ रही थी कमल (शर्मा) जी की।
कमल जी टेलीविजन पर वालीबाल की कमेंट्री देते है… ओह ! नो !! यह तो विविध भारती है। फिर हमने देखा वालीबाल का मैच और सुनी बातें साहित्य की, मीडिया की…
मुद्दा ये कि अब रेडियो सुनने के लिए अलग से रेडियो सेट खरीदने की ज़रूरत नहीं। टेलीविजन के ढेर सारे चैनलों में से आपका स्थानीय केबल आँपरेटर एक ऐसे चैनल को जो वहाँ के लोग कम देखते है, उसको एफ़ एम से जोड़ देगा। नतीजा ये कि टेलीविजन चैनल का वीडियो आप देखिए और आवाज़ सुनिए एफ़ एम विविध भारती की।
हमारे घर में कभी ज़ी स्पोर्टस तो कभी फ़ैशन टीवी पर विविध भारती होता है। अक्सर शनिवार रविवार की रात में दस बजे के बाद जब रूटिन धारावाहिक नहीं होते है तब रिमोट कन्ट्रोल से ही काम लिया जाता है और छाया गीत सुना जाता है।
वैसे ही रात के दस बजे सन्नाटा होता है। ऐसे में कभी-कभी छाया गीत में बड़ी गंभीर बातें बताई जाती है और सुनवाए जाते है बड़े ही शान्त और गंभीर गीत जो सन्नाटे को काटते भले लगते है पर नज़र डालो तो तेज़ दौड़ती हुई गाड़ियाँ। कार रेस चल रही है। तेज़ी से सरपट गाड़ियाँ दौड़ रही है और शान्त गीत बज रहा है जिसका धीमा-धीमा संगीत गंभीर बोलों को समेट रहा है।
हद तो तब हो गई जब एक दिन सुबह-सवेरे टेलीविजन पर हामारी नज़र पड़ गई। कमल जी आध्यात्म की बातें बता रहे थे और रैम्प पर बालाएँ अपने जलवे बिखेर रही थी फिर पार्श्व में गूँज उठा भक्ति गीत।
लगता है इस समस्या का शायद ही कोई समाधान हो। क्या ही अच्छा हो कि टेलीविजन में एक चैनल एफ़ एम का हो जिसके पर्दे पर कुछ फूल, पर्वत मालाएँ, हरी-भरी घाटियाँ नज़र आए और सुनाई दे विविध भारती।
कमल जी टेलीविजन पर वालीबाल की कमेंट्री देते है… ओह ! नो !! यह तो विविध भारती है। फिर हमने देखा वालीबाल का मैच और सुनी बातें साहित्य की, मीडिया की…
मुद्दा ये कि अब रेडियो सुनने के लिए अलग से रेडियो सेट खरीदने की ज़रूरत नहीं। टेलीविजन के ढेर सारे चैनलों में से आपका स्थानीय केबल आँपरेटर एक ऐसे चैनल को जो वहाँ के लोग कम देखते है, उसको एफ़ एम से जोड़ देगा। नतीजा ये कि टेलीविजन चैनल का वीडियो आप देखिए और आवाज़ सुनिए एफ़ एम विविध भारती की।
हमारे घर में कभी ज़ी स्पोर्टस तो कभी फ़ैशन टीवी पर विविध भारती होता है। अक्सर शनिवार रविवार की रात में दस बजे के बाद जब रूटिन धारावाहिक नहीं होते है तब रिमोट कन्ट्रोल से ही काम लिया जाता है और छाया गीत सुना जाता है।
वैसे ही रात के दस बजे सन्नाटा होता है। ऐसे में कभी-कभी छाया गीत में बड़ी गंभीर बातें बताई जाती है और सुनवाए जाते है बड़े ही शान्त और गंभीर गीत जो सन्नाटे को काटते भले लगते है पर नज़र डालो तो तेज़ दौड़ती हुई गाड़ियाँ। कार रेस चल रही है। तेज़ी से सरपट गाड़ियाँ दौड़ रही है और शान्त गीत बज रहा है जिसका धीमा-धीमा संगीत गंभीर बोलों को समेट रहा है।
हद तो तब हो गई जब एक दिन सुबह-सवेरे टेलीविजन पर हामारी नज़र पड़ गई। कमल जी आध्यात्म की बातें बता रहे थे और रैम्प पर बालाएँ अपने जलवे बिखेर रही थी फिर पार्श्व में गूँज उठा भक्ति गीत।
लगता है इस समस्या का शायद ही कोई समाधान हो। क्या ही अच्छा हो कि टेलीविजन में एक चैनल एफ़ एम का हो जिसके पर्दे पर कुछ फूल, पर्वत मालाएँ, हरी-भरी घाटियाँ नज़र आए और सुनाई दे विविध भारती।
Monday, June 9, 2008
रेडियोनामा पर मेरी सौ वीं पोस्ट
आज रेडियोनामा पर मैं अपना सौं वाँ चिट्ठा लिख रही हूँ। मैनें अपना पहला चिट्ठा पिछले वर्ष 19 सितम्बर को लिखा था। तब से आज तक मैं अपने अनुभव बाँटने की कोशिश कर रही हूँ। दूसरों के अनुभव पढती हूँ।
वास्तव में रेडियोनामा पर लिखना ही एक सुखद अनुभव है। रेडियो बचपन से मेरा साथी है। मैं अपने बचपन से विविध भारती सुन रही हूँ। इतने ढेर सारे अनुभव है कि नहीं लगता है कि सब के सब मैं सभी से बाँट पाऊँगी। फिर भी हमेशा कोशिश करती रहती हूँ। आज कोशिश करूँगी विविध भारती के कार्यक्रम प्रस्तुति के बारे में कुछ लिखने की।
जब मैं बचपन में सुना करती थी तब प्रस्तुति बेहद सादगी से होती थी। सिर्फ़ इतना कहा जाता था -
ये विविध भारती है आकाशवाणी का पंचरंगी कार्यक्रम या मनोरंजन सेवा या विज्ञापन प्रसारण अब प्रस्तुत है … कार्यक्रम
फिर कार्यक्रम शुरू हो जाता। फ़रमाइशी फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रम में तो गिने-चुने वाक्य कहे जाते जैसे -
प्रस्तुत है दोगाना या युगलगीत या गीत जिसे आवाज़े दी है लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी ने गीत के बोल लिखे है राजेन्द्र कृष्ण ने और संगीत दिया है मदन मोहन ने और फ़िल्म का नाम है …
वाक्यों में कुछ ही परिवर्तन होता जैसे -
फ़िल्म का नाम है … या यह गीत … फ़िल्म से लिया है या … फ़िल्म का गीत सुनिए
गीतकार है … या गीत लिखा है … या … का लिखा गीत सुनिए या बोल है … के
संगीतकार है … या … का संगीत या स्वरबद्ध किया गीत सुनिए या सुरों में पिरोया है या सुरों से सजाया है … ने
आवाज़ है … की या आवाज़ दी है … ने या … की आवाज़ों में गीत सुनिए
फ़रमाइश करते है या अनुरोध करते है या प्रस्तुत है गीत आप सबके अनुरोध पर और सूची पढ दी जाती।
अन्य कार्यक्रमों में भी सीमित शब्दों में जानकारी दी जाती।
जब कार्यक्रम का समय आधा हो जाता तब पहले तो सिर्फ़ इतना ही कहा जाता था - ये कार्यक्रम आप विविध भारती से सुन रहे है। इसीलिए पहले उदघोषकों की सिर्फ़ आवाज़ ही सुनी जाती थी क्योंकि भाषा तो जानी-पहचानी ही रहती थी।
पर अब तो प्रस्तुति में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। पता ही नहीं चलता कि किस कार्यक्रम में उदघोषक क्या-क्या कहेंगें। दुनिया जहान की बातें मौसम की बातें खेल जगत की बातें।
पहले जो श्रोता थे अब दोस्त हो गए। नमस्कार हैलो हो गया। ब्रेक में बाकायदा एक धुन सुनी जाती है। उदघोषक अपना नाम बताते है। शहर में क्या हो रहा है यह भी बताते है यानि कब क्या बताएगें क्या नहीं बताएगें कुछ पता नहीं सब उनके मूड से वे ही तय करते है।
हम तो कहेंगें कि पचास साल की होते-होते विविध भारती हम सब की पक्की सहेली बन गई है। ऐसी सहेली जो पूरी तरह से परिपक्व हो चुकी है और हम से कुछ भी बड़े अधिकार से कहती है।
और अब परिपक्वता की हद को पार करती (पचास के पार जाती) विविध भारती सठियाने (साठ की होने) जा रही है। देखना ये है कि एक दशक के बाद कैसी लगती है सठियाई (साठ की) विविध भारती…
वास्तव में रेडियोनामा पर लिखना ही एक सुखद अनुभव है। रेडियो बचपन से मेरा साथी है। मैं अपने बचपन से विविध भारती सुन रही हूँ। इतने ढेर सारे अनुभव है कि नहीं लगता है कि सब के सब मैं सभी से बाँट पाऊँगी। फिर भी हमेशा कोशिश करती रहती हूँ। आज कोशिश करूँगी विविध भारती के कार्यक्रम प्रस्तुति के बारे में कुछ लिखने की।
जब मैं बचपन में सुना करती थी तब प्रस्तुति बेहद सादगी से होती थी। सिर्फ़ इतना कहा जाता था -
ये विविध भारती है आकाशवाणी का पंचरंगी कार्यक्रम या मनोरंजन सेवा या विज्ञापन प्रसारण अब प्रस्तुत है … कार्यक्रम
फिर कार्यक्रम शुरू हो जाता। फ़रमाइशी फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रम में तो गिने-चुने वाक्य कहे जाते जैसे -
प्रस्तुत है दोगाना या युगलगीत या गीत जिसे आवाज़े दी है लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी ने गीत के बोल लिखे है राजेन्द्र कृष्ण ने और संगीत दिया है मदन मोहन ने और फ़िल्म का नाम है …
वाक्यों में कुछ ही परिवर्तन होता जैसे -
फ़िल्म का नाम है … या यह गीत … फ़िल्म से लिया है या … फ़िल्म का गीत सुनिए
गीतकार है … या गीत लिखा है … या … का लिखा गीत सुनिए या बोल है … के
संगीतकार है … या … का संगीत या स्वरबद्ध किया गीत सुनिए या सुरों में पिरोया है या सुरों से सजाया है … ने
आवाज़ है … की या आवाज़ दी है … ने या … की आवाज़ों में गीत सुनिए
फ़रमाइश करते है या अनुरोध करते है या प्रस्तुत है गीत आप सबके अनुरोध पर और सूची पढ दी जाती।
अन्य कार्यक्रमों में भी सीमित शब्दों में जानकारी दी जाती।
जब कार्यक्रम का समय आधा हो जाता तब पहले तो सिर्फ़ इतना ही कहा जाता था - ये कार्यक्रम आप विविध भारती से सुन रहे है। इसीलिए पहले उदघोषकों की सिर्फ़ आवाज़ ही सुनी जाती थी क्योंकि भाषा तो जानी-पहचानी ही रहती थी।
पर अब तो प्रस्तुति में क्रान्तिकारी परिवर्तन आया है। पता ही नहीं चलता कि किस कार्यक्रम में उदघोषक क्या-क्या कहेंगें। दुनिया जहान की बातें मौसम की बातें खेल जगत की बातें।
पहले जो श्रोता थे अब दोस्त हो गए। नमस्कार हैलो हो गया। ब्रेक में बाकायदा एक धुन सुनी जाती है। उदघोषक अपना नाम बताते है। शहर में क्या हो रहा है यह भी बताते है यानि कब क्या बताएगें क्या नहीं बताएगें कुछ पता नहीं सब उनके मूड से वे ही तय करते है।
हम तो कहेंगें कि पचास साल की होते-होते विविध भारती हम सब की पक्की सहेली बन गई है। ऐसी सहेली जो पूरी तरह से परिपक्व हो चुकी है और हम से कुछ भी बड़े अधिकार से कहती है।
और अब परिपक्वता की हद को पार करती (पचास के पार जाती) विविध भारती सठियाने (साठ की होने) जा रही है। देखना ये है कि एक दशक के बाद कैसी लगती है सठियाई (साठ की) विविध भारती…
Friday, June 6, 2008
उजाले उनकी यादों के
उजाले उनकी यादों के - यह कार्यक्रम आजकल हर रविवार को रात में साढे नौ से दस बजे तक प्रसारित होता है जबकि पहले मंगलवार गुरूवार को इसी समय प्रसारित होता था। इस कार्यक्रम में जैसे कि नाम से ही पता चलता है बीते समय की फ़िल्मी हस्तियों से बातचीत की जाती है।
इस कार्यक्रम की परिकल्पना (काँन्सेप्ट) बहुत अच्छा है। आमतौर पर ऐसे कार्यक्रमों में जिनसे बातचीत की जाती है उन्हीं के बारे में जानकारी मिलती है पर यहाँ ऐसा नहीं है। यहाँ उस कलाकार के पूरे कैरियर के दौरान जिन-जिन लोगों के साथ उनका साथ रहा उन सभी के बारे में बात होती है। इतना ही नहीं फ़िल्मी जीवन से हट कर दूसरे क्षेत्र में भी अगर उस कलाकार का योगदान है तो उस पर भी विस्तार से बातचीत होती है।
यह कार्यक्रम शायद कमलेश (पाठक) जी प्रस्तुत करतीं है। इस कार्यक्रम के स्वरूप के लिए विविध भारती को बधाई। मेहमान कलाकार से बातचीत करते है कमल (शर्मा) जी। इस कार्यक्रम की लोकप्रियता में कमल (शर्मा) जी का बहुत बड़ा योगदान है। वह ख़ुद बहुत ही कम बोलते है पर मेहमान से सब कुछ उगलवा लेते है। ऐसी बातें भी जो आमतौर पर लोकप्रिय कलाकार शायद ही कहना पसन्द करें जैसे -
आजकल चल रही श्रृंखला में लोकप्रिय कलाकार शशिकला ने बताया कि जब मदर टेरेसा के आश्रम में कलकत्ता में वो समाज सेवा कर रहीं थी तब उन्हें मदर से मिलने की बहुत इच्छा थी और जब मदर आईं तो कैसे छोटे बच्चों की तरह वो दरवाज़े के बाहर से मदर को देखने लगी थीं।
जब मैनें इस स्तर पर बातचीत सुनी तो मुझे लगा यह तो कमल जी का ही कमाल है और क्या तरीका रहा होगा प्रस्तुतकर्ता (शायद कमलेश पाठक) का और क्या छवि है विविध भारती की कि एक कलाकार अपना दिल खोल कर रख देता है।
सिर्फ़ एक ही श्रृंखला जो अभी पूरी भी नहीं हुई जिसको सुन कर व्ही शान्ताराम के बारे में बहुत जानकारी मिली जिसे शशिकला ने अन्ना साहेब कहा। मुझे याद आ गई फ़िल्म तीन बत्ती चार रास्ता जिसमें छह बहुओं वाले लालाजी की मराठी बहू बनी थी शशिकला।
हृषि दा यानि हृषिकेश मुखर्जी के बारे में भी बातें हुई। बताया गया उनका काम करने का अंदाज़ और मुझे याद आ गई अनुपमा की शोख़ और चंचल पर सकारात्मक भूमिका वाली शशिकला जो अपनी सहेली शर्मिला टैगोर से फोन पर देर तक बात करती है और जवाब नहीं मिलने पर कहती है - ज़रूर सिर हिला रही होगी।
लता मंगेशकर और मीनाकुमारी के बारे में बातें हुई तो मुझे याद आ गई फ़िल्म फूल और पत्थर जिसमें वैम्प बनी शशिकला गाती है -
शीशे से पी या पैमाने से पी
या मेरी आँखों के मयख़ाने से पी
और सबसे ज्यादा याद आ आया वो अंतिम सीन जहाँ वो अपने ख़ास वैम्पनुमा कपड़े पहन कर धर्मेन्द्र से मिलने बस्ती में जाती है और सारी बस्ती उसे देखने जमा हो जाती है।
यह है कमाल इस कार्यक्रम का जो इतना याद दिला देता है एक श्रोता को। आशा है सिलसिला जारी रहेगा…
इस कार्यक्रम की परिकल्पना (काँन्सेप्ट) बहुत अच्छा है। आमतौर पर ऐसे कार्यक्रमों में जिनसे बातचीत की जाती है उन्हीं के बारे में जानकारी मिलती है पर यहाँ ऐसा नहीं है। यहाँ उस कलाकार के पूरे कैरियर के दौरान जिन-जिन लोगों के साथ उनका साथ रहा उन सभी के बारे में बात होती है। इतना ही नहीं फ़िल्मी जीवन से हट कर दूसरे क्षेत्र में भी अगर उस कलाकार का योगदान है तो उस पर भी विस्तार से बातचीत होती है।
यह कार्यक्रम शायद कमलेश (पाठक) जी प्रस्तुत करतीं है। इस कार्यक्रम के स्वरूप के लिए विविध भारती को बधाई। मेहमान कलाकार से बातचीत करते है कमल (शर्मा) जी। इस कार्यक्रम की लोकप्रियता में कमल (शर्मा) जी का बहुत बड़ा योगदान है। वह ख़ुद बहुत ही कम बोलते है पर मेहमान से सब कुछ उगलवा लेते है। ऐसी बातें भी जो आमतौर पर लोकप्रिय कलाकार शायद ही कहना पसन्द करें जैसे -
आजकल चल रही श्रृंखला में लोकप्रिय कलाकार शशिकला ने बताया कि जब मदर टेरेसा के आश्रम में कलकत्ता में वो समाज सेवा कर रहीं थी तब उन्हें मदर से मिलने की बहुत इच्छा थी और जब मदर आईं तो कैसे छोटे बच्चों की तरह वो दरवाज़े के बाहर से मदर को देखने लगी थीं।
जब मैनें इस स्तर पर बातचीत सुनी तो मुझे लगा यह तो कमल जी का ही कमाल है और क्या तरीका रहा होगा प्रस्तुतकर्ता (शायद कमलेश पाठक) का और क्या छवि है विविध भारती की कि एक कलाकार अपना दिल खोल कर रख देता है।
सिर्फ़ एक ही श्रृंखला जो अभी पूरी भी नहीं हुई जिसको सुन कर व्ही शान्ताराम के बारे में बहुत जानकारी मिली जिसे शशिकला ने अन्ना साहेब कहा। मुझे याद आ गई फ़िल्म तीन बत्ती चार रास्ता जिसमें छह बहुओं वाले लालाजी की मराठी बहू बनी थी शशिकला।
हृषि दा यानि हृषिकेश मुखर्जी के बारे में भी बातें हुई। बताया गया उनका काम करने का अंदाज़ और मुझे याद आ गई अनुपमा की शोख़ और चंचल पर सकारात्मक भूमिका वाली शशिकला जो अपनी सहेली शर्मिला टैगोर से फोन पर देर तक बात करती है और जवाब नहीं मिलने पर कहती है - ज़रूर सिर हिला रही होगी।
लता मंगेशकर और मीनाकुमारी के बारे में बातें हुई तो मुझे याद आ गई फ़िल्म फूल और पत्थर जिसमें वैम्प बनी शशिकला गाती है -
शीशे से पी या पैमाने से पी
या मेरी आँखों के मयख़ाने से पी
और सबसे ज्यादा याद आ आया वो अंतिम सीन जहाँ वो अपने ख़ास वैम्पनुमा कपड़े पहन कर धर्मेन्द्र से मिलने बस्ती में जाती है और सारी बस्ती उसे देखने जमा हो जाती है।
यह है कमाल इस कार्यक्रम का जो इतना याद दिला देता है एक श्रोता को। आशा है सिलसिला जारी रहेगा…
Wednesday, June 4, 2008
चर्चा का विषय है…
आकाशवाणी के समाचार प्रस्तुत करने के तरीके में जब बदलाव आया तब एक स्वागत योग्य निर्णय यह भी रहा कि समाचार प्रभाग द्वारा समसामयिक विषयों पर चर्चा कार्यक्रम का आयोजन हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में चर्चा का विषय है और करेंट अफ़ेयर्स शीर्षक से किया जाने लगा।
इन दोनों ही भाषाओं के कार्यक्रम को आकाशवाणी के सभी केन्द्र रिले करते थे। एफ़ एम गोल्ड जैसे केन्द्र पर भी और अतिरिक्त मीटरों पर भी इसे सुना जा सकता था। रात में लगभग आठ बजे के आस-पास प्रसारित होने वाले इन कार्यक्रमों की सूचना सात बजे के समाचार बुलेटिन में अनिवार्य रूप से दी जाती थी।
पहले यह कार्यक्रम साप्ताहिक आयोजित होता था फिर पाक्षिक होने लगा। कुछ समय पहले तक इस तरह की चर्चाएं नियमित तो आयोजित नहीं होती थी पर विशेष अवसरों पर अवश्य आयोजन होता था। पर अब तो लग रहा है जैसे यह समाप्त ही हो गया है।
अभी-अभी आन्ध्रप्रदेश में उपचुनाव संपन्न हुए इससे पहले कर्नाटक में चुनाव हुए पर आकाशवाणी के समाचार प्रभाग ने कोई चर्चा का कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जबकि पहले ऐसे अवसरों पर चर्चाएं अवश्य प्रसारित होती थी।
इसके अलावा आम बजट, रेल बजट यहाँ तक कि पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों पर भी चर्चाएं हुई। सभी चर्चाओं में विषय के अच्छे जानकार भाग लेते थे जिनमें विश्वविद्यालय के कुलपति और विभिन्न संस्थाओं के निदेशक भी सम्मिलित होते थे। कायदे से चर्चाओं का संचालन हिन्दी और अंग्रेज़ी के प्रमुख समाचार पत्रों के पत्रकार, संपादक किया करते थे।
अगर ऐसी चर्चाएं समय-समय पर आयोजित होती रहे तो अच्छा रहेगा क्योंकि इससे अच्छी जानकारी मिल जाती है।
इन दोनों ही भाषाओं के कार्यक्रम को आकाशवाणी के सभी केन्द्र रिले करते थे। एफ़ एम गोल्ड जैसे केन्द्र पर भी और अतिरिक्त मीटरों पर भी इसे सुना जा सकता था। रात में लगभग आठ बजे के आस-पास प्रसारित होने वाले इन कार्यक्रमों की सूचना सात बजे के समाचार बुलेटिन में अनिवार्य रूप से दी जाती थी।
पहले यह कार्यक्रम साप्ताहिक आयोजित होता था फिर पाक्षिक होने लगा। कुछ समय पहले तक इस तरह की चर्चाएं नियमित तो आयोजित नहीं होती थी पर विशेष अवसरों पर अवश्य आयोजन होता था। पर अब तो लग रहा है जैसे यह समाप्त ही हो गया है।
अभी-अभी आन्ध्रप्रदेश में उपचुनाव संपन्न हुए इससे पहले कर्नाटक में चुनाव हुए पर आकाशवाणी के समाचार प्रभाग ने कोई चर्चा का कार्यक्रम आयोजित नहीं किया जबकि पहले ऐसे अवसरों पर चर्चाएं अवश्य प्रसारित होती थी।
इसके अलावा आम बजट, रेल बजट यहाँ तक कि पेट्रोल-डीज़ल की कीमतों पर भी चर्चाएं हुई। सभी चर्चाओं में विषय के अच्छे जानकार भाग लेते थे जिनमें विश्वविद्यालय के कुलपति और विभिन्न संस्थाओं के निदेशक भी सम्मिलित होते थे। कायदे से चर्चाओं का संचालन हिन्दी और अंग्रेज़ी के प्रमुख समाचार पत्रों के पत्रकार, संपादक किया करते थे।
अगर ऐसी चर्चाएं समय-समय पर आयोजित होती रहे तो अच्छा रहेगा क्योंकि इससे अच्छी जानकारी मिल जाती है।
Monday, June 2, 2008
बंद कमरे में गवाही
इस बार स्वर्ण जयन्ती के मासिक विशेष कार्यक्रम का आकर्षण है सिनेयात्रा की गवाही देती विविध भारती। यह सच है फ़िल्में विशेषकर फ़िल्मी गीतों का यह सबसे लोकप्रिय चैनल है।
सवेरे से रात तक विभिन्न कार्यक्रमों में पुरानी से नई फ़िल्मों के गाने सुनकर गीत-संगीत के विकास को सहज ही समझा जा सकता है। कुछ समय पहले तक यह बात पूरी तरह सच थी पर अब नहीं लगती।
दिन-ब-दिन गानों की संख्या तो बढती जा रही है पर समय अधिक से अधिक चौबीस घण्टे ही हो सकता है। इसकी गवाही अब धीरे-धीरे मिल रही है।
आजकल रोज़ गाने सुनकर लगता है कि हिन्दी फ़िल्मों में शुरूवाती दौर से ही लता, रफ़ी, आशा, किशोर गा रहे है। कभी-कभार दूसरे गायक भी गा लेते थे और सबसे बड़ी बात कि गानों की शुरूवात पचास के दशक से हुई और पचास के दशक के पहले केवल कुन्दन लाल (के एल) सहगल ही गायक थे। यह बात कहने में बहुत ग़लत है पर खेद है कि आजकल विविध भारती से यही प्रमाणित हो रहा है।
जब से भूले-बिसरे गीत कार्यक्रम एक घण्टे का हुआ है। तभी से यही स्थिति है। हैदराबाद में अब भी हम पहले की ही तरह सात बजे से ही केन्द्रीय सेवा से जुड़ते है। शायद और भी ऐसे केन्द्र है जो सात बजे से ही जुड़ते है ऐसे में भूले-बिसरे गीत का पहला भाग केवल सीमित क्षेत्र के लोग ही सुन पाते है।
इस कार्यक्रम की चर्चा करते हुए पिछले सप्ताह पत्रावली में बताया गया कि पंकज मलिक के जन्मदिवस पर पहले आधे घण्टे के कार्यक्रम में सभी गाने उन्हीं के सुनवाए गए। भई हम तो कहेंगें जंगल में मोर नाचा किसने देखा।
जबकि नई पीढी के उत्पादों क्लोज़ अप टूथ पेस्ट और चाँकलेट के विज्ञापनों में पंकज मलिक की शैली में गाना बजता है -
क्या आप क्लोज़ अप करते है
इसी तरह चाँकलेट के विज्ञापन में पुराना गीत -
छुप-छुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है बजता है। मुद्दा ये कि जब बेझिझक विज्ञापन कंपनियाँ इन गीतों को बजाती है तो विविध भारती क्यों इनसे दूर भागती है।
अगर ऐसा ही रहा तो कुछ समय बात नई पीढी समझेगी कि विज्ञापन में बजने वाले गीत की आवाज़ ही मौलिक है और पंकज मलिक, सुधा मल्होत्रा, उमा देवी, सुरैया, श्याम आदि से नई पीढी परिचित ही नहीं होगी।
सवेरे से रात तक विभिन्न कार्यक्रमों में पुरानी से नई फ़िल्मों के गाने सुनकर गीत-संगीत के विकास को सहज ही समझा जा सकता है। कुछ समय पहले तक यह बात पूरी तरह सच थी पर अब नहीं लगती।
दिन-ब-दिन गानों की संख्या तो बढती जा रही है पर समय अधिक से अधिक चौबीस घण्टे ही हो सकता है। इसकी गवाही अब धीरे-धीरे मिल रही है।
आजकल रोज़ गाने सुनकर लगता है कि हिन्दी फ़िल्मों में शुरूवाती दौर से ही लता, रफ़ी, आशा, किशोर गा रहे है। कभी-कभार दूसरे गायक भी गा लेते थे और सबसे बड़ी बात कि गानों की शुरूवात पचास के दशक से हुई और पचास के दशक के पहले केवल कुन्दन लाल (के एल) सहगल ही गायक थे। यह बात कहने में बहुत ग़लत है पर खेद है कि आजकल विविध भारती से यही प्रमाणित हो रहा है।
जब से भूले-बिसरे गीत कार्यक्रम एक घण्टे का हुआ है। तभी से यही स्थिति है। हैदराबाद में अब भी हम पहले की ही तरह सात बजे से ही केन्द्रीय सेवा से जुड़ते है। शायद और भी ऐसे केन्द्र है जो सात बजे से ही जुड़ते है ऐसे में भूले-बिसरे गीत का पहला भाग केवल सीमित क्षेत्र के लोग ही सुन पाते है।
इस कार्यक्रम की चर्चा करते हुए पिछले सप्ताह पत्रावली में बताया गया कि पंकज मलिक के जन्मदिवस पर पहले आधे घण्टे के कार्यक्रम में सभी गाने उन्हीं के सुनवाए गए। भई हम तो कहेंगें जंगल में मोर नाचा किसने देखा।
जबकि नई पीढी के उत्पादों क्लोज़ अप टूथ पेस्ट और चाँकलेट के विज्ञापनों में पंकज मलिक की शैली में गाना बजता है -
क्या आप क्लोज़ अप करते है
इसी तरह चाँकलेट के विज्ञापन में पुराना गीत -
छुप-छुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है बजता है। मुद्दा ये कि जब बेझिझक विज्ञापन कंपनियाँ इन गीतों को बजाती है तो विविध भारती क्यों इनसे दूर भागती है।
अगर ऐसा ही रहा तो कुछ समय बात नई पीढी समझेगी कि विज्ञापन में बजने वाले गीत की आवाज़ ही मौलिक है और पंकज मलिक, सुधा मल्होत्रा, उमा देवी, सुरैया, श्याम आदि से नई पीढी परिचित ही नहीं होगी।
रेडियो की यादें (भाग-2)
रेडियो की यादें (भाग-2) (विविध भारती और टीवी उदघोषकों के बारे में)
सुरेश चिपलूनकर की कलम से...
1982 के एशियाड के समय भारत में रंगीन टीवी का उदय हुआ, हालांकि लगभग 1990 तक कलर टीवी भी एक "लग्जरी आयटम" हुआ करता था (अवमूल्यन की पराकाष्ठा देखिये कि अब कलर टीवी चुनाव घोषणा पत्रों में मुफ़्त में बाँटे जाने लगे हैं)। "सुदर्शन चेहरे वाले" कई उदघोषक रेडियो से टीवी की ओर मुड़ गये, कुछ टीवी नाटकों / धारावाहिकों में काम करने लगे थे। उन दिनों चूंकि टीवी नया-नया आया था, तो उसका काफ़ी "क्रेज" था और उस दौर में रेडियो से मेरा नाता थोड़ा कम हो गया था, फ़िर भी उदघोषकों के अल्फ़ाज़, अदायगी और उच्चारण की ओर मेरा ध्यान बराबर रहता था। अन्तर सिर्फ़ इतना आया था कि टीवी के कारण मुखड़े का दर्शन भी होने लगा था इसलिये शम्मी नारंग, सरला माहेश्वरी, जेवी रमण, सरिता सेठी आदि हमारे लिये उन दिनों आकर्षण का केन्द्र थे। सरला माहेश्वरी को न्यूज पढ़ते देखने के लिये कई बार आधे-आधे घंटे यूँ ही बकवास सा "चित्रहार" देखते बैठे रहते थे। वैसे मैंने तो मुम्बई में बचपन में स्मिता पाटील और स्मिता तलवलकर को भी टीवी पर समाचार पढ़ते देखा था और अचंभित हुआ था, लेकिन "हरीश भिमानी" की बात ही कुछ और थी, महाभारत के "समय" तो वे काफ़ी बाद में बने, उससे पहले कई-कई बार उन्हें सुनना बेहद सुकून देता था। टीवी के आने से उदघोषकों का चेहरा-मोहरा दर्शनीय होना अपने-आप में एक शर्त थी, उस वक्त भी तबस्सुम जी अपने पूरे शबाब और ज़लाल के साथ पर्दे पर नमूदार होती थीं और बाकी सबकी छुट्टी कर देती थीं। रेडियो के लिये उन दिनों मंदी के दिन थे ऐसा मैं मानता हूँ। फ़िर से कालचक्र घूमा, टीवी की दुनिया में ज़ीटीवी नाम के पहले निजी चैनल का प्रवेश हुआ और मानो धीरे-धीरे उदघोषकों की शुद्धता नष्ट होने लगी। लगभग उन्हीं दिनों आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरु हुआ था, अंग्रेजी लहजे के उच्चारण और अंग्रेजी शब्दों की भरमार (बल्कि हमला) लिये हुए नये-नवेले उदघोषकों का आगाज़ हुआ, और जिस तेजी से फ़ूहड़ता और घटियापन का प्रसार हुआ उससे संगीतप्रेमी और रेडियोप्रेमी पुनः रेडियो की ओर लौटने लगे। उदारीकरण का असर (अच्छा और बुरा दोनो) रेडियो पर भी पड़ना लाजिमी था, कई प्रायवेट रेडियो चैनल आये, कई योजनायें और भिन्न-भिन्न तरीके के कार्यक्रम लेकर आये, लेकिन एक मुख्य बात से ये तमाम रेडियो चैनल दूर रहे, वह थी "भारतीयता की सुगन्ध"। और इसी मोड़ पर आकर श्रोताओं के बीच "विविध भारती" ने अपनी पकड़, जो कुछ समय के लिये ढीली पड़ गई थी, पुनः मजबूत कर ली।
विविध भारती, जो कि अपने नाम के अनुरूप ही विविधता लिये हुए है, आज की तारीख में अधिकतर लोगों का पसन्दीदा चैनल है। लोगबाग कुछ समय के लिये दूसरे "कांदा-भिंडी" टाइप के निजी रेडियो चैनल सुनते हैं, लेकिन वे सुकून और शांति के लिये वापस विविध भारती पर लौटकर आते हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कि हॉट-डॉग खाने वाले एकाध-दो दिन वह खा सकते हैं, लेकिन पेट भरने और मन की शांति के लिये उन्हें दाल-रोटीनुमा, घरेलू, अपनी सी लगने वाली, विविध भारती पर वापस आना ही पड़ेगा। मेरे अनुसार गत पचास वर्षों में विविध भारती ने अभूतपूर्व और उल्लेखनीय तरक्की की है, जाहिर है कि इसे सरकारी मदद मिलती रही है, और इसे चैनल चलाने के लिये "कमाने" के अजूबे तरीके नहीं आजमाना पड़े, लेकिन फ़िर भी सरकारी होने के बावजूद इसकी कार्यसंस्कृति में उत्कृष्टता का पुट बरकरार ही रहा, और आज भी है।
विविध भारती के मुम्बई केन्द्र से प्रसारित होने वाले लगभग सभी कार्यक्रम उत्तम हैं और उससे ज्यादा उत्तम हैं यहाँ के उदघोषकों की टीम। मुझे कौतूहल है कि इतने सारे प्रतिभाशाली और एक से बढ़कर एक उदघोषक एक ही छत के नीचे हैं। कमल शर्मा, अमरकान्त दुबे, यूनुस खान, अशोक सोनावणे, राजेन्द्र त्रिपाठी, महेन्द्र मोदी… इसी प्रकार महिलाओं में रेणु बंसल, निम्मी मिश्रा, ममता सिंह, आदि। लगभग सभी का हिन्दी उच्चारण एकदम स्पष्ट, आवाज खनकदार, प्रस्तुति शानदार, फ़िल्मों सम्बन्धी ज्ञान भी उच्च स्तर का, यही तो खूबियाँ होना चाहिये उदघोषक में!!! आवाज, उच्चारण और प्रस्तुति की दृष्टि से मेरी व्यक्तिगत पसन्द का क्रम इस प्रकार है – (1) कमल शर्मा, (2) अमरकान्त दुबे और (3) यूनुस खान तथा महिलाओं में – (1) रेणु बंसल, (2) निम्मी मिश्रा (3) ममता सिंह। इस लिस्ट में मैंने लोकेन्द्र शर्मा जी को शामिल नहीं किया है, क्योंकि वे शायद रिटायर हो चुके हैं, वरना उनका स्थान पहला होता। महिला उदघोषकों में सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं रेणु बंसल, फ़ोन-इन कार्यक्रम में जब वे "ऐस्स्स्स्सा…" शब्द बोलती हैं तब बड़ा अच्छा लगता है, इसी प्रकार श्रोताओं द्वारा फ़ोन पर "मैं अपने मित्रों का नाम ले लूँ" पूछते ही निम्मी मिश्रा प्यार से "लीजिये नाआआआआ…" कहती हैं तो दिल उछल जाता है। ममता सिंह जी, अनजाने ही सही, अपना विशिष्ट "उत्तरप्रदेशी लहजा" छुपा नहीं पातीं। मुझे इस बात का गर्व है कि कई उदघोषकों का सम्बन्ध मध्यप्रदेश से रहा है, और अपने "कानसेन" अनुभव से मेरा यह मत बना है कि एक अच्छा उदघोषक बनने के लिये एक तो संस्कृत और उर्दू का उच्चारण जितना स्पष्ट हो सके, करने का अभ्यास करना चाहिये (हिन्दी का अपने-आप हो जायेगा) और हर हिन्दी उदघोषक को कम से कम पाँच-सात साल मध्यप्रदेश में पोस्टिंग देना चाहिये। मेरे एक और अभिन्न मित्र हैं इन्दौर के "संजय पटेल", बेहतरीन आवाज, उच्चारण, प्रस्तुति, और मंच संचालन के लिये लगने वाला "इनोवेशन" उनमें जबरदस्त है। मेरा अब तक का सबसे खराब अनुभव "कमलेश पाठक" नाम की महिला उदघोषिका को सुनने का रहा है, लगता ही नहीं कि वे विविध भारती जैसे प्रतिष्ठित "घराने" में पदस्थ हैं, इसी प्रकार बीच में कुछ दिनों पहले "जॉयदीप मुखर्जी" नाम के एक अनाउंसर आये थे जिन्होंने शायद विविध भारती को निजी चैनल समझ लिया था, ऐसा कुछ तरीका था उनका कार्यक्रम पेश करने का। बहरहाल, आलोचना के लिये एक पोस्ट अलग से बाद में लिखूंगा…
व्यवसायगत मजबूरियों के कारण आजकल अन्य रेडियो चैनल या टीवी देखना कम हो गया है, लेकिन जिस "नेल्को" रेडियो का मैने जिक्र किया था, वह कार्यस्थल पर एक ऊँचे स्थान पर रखा हुआ है, जहाँ मेरा भी हाथ नहीं पहुँचता। उस रेडियो में विविध भारती सेट करके रख दिया है, सुबह बोर्ड से बटन चालू करता हूँ और रात को घर जाते समय ही बन्द करता हूँ। ब्लॉग जगत में नहीं आया होता तो यूनुस भाई से भी परिचय नहीं होता, उनकी आवाज का फ़ैन तो हूँ ही, अब उनका "मुखड़ा" भी देख लिया और उनसे चैटिंग भी कर ली, और क्या चाहिये मुझ जैसे एक आम-गुमनाम लेकिन कट्टर रेडियो श्रोता को? किस्मत ने चाहा तो शायद कभी "कालजयी हीरो" अर्थात अमीन सायानी साहब से भी मुलाकात हो जाये…
पाठकों को इस लेख में कई प्रसिद्ध नाम छूटे हुए महसूस होंगे जैसे पं विनोद शर्मा, ब्रजभूषण साहनी, कब्बन मिर्जा, महाजन साहब जैसे कई-कई अच्छे उदघोषक हैं, लेकिन मैंने सिर्फ़ उनका ही उल्लेख किया है, जिनको मैंने ज्यादा सुना है। राजनीति और सामाजिक बुराइयों पर लेख लिखते-लिखते मैंने सोचा कि कुछ "हट-के" लिखा जाये ("टेस्ट चेंज" करने के लिये), आशा है कि पाठकों को पसन्द आया होगा…
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