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Monday, February 4, 2008

अथः प्रेम पुराण आख्यानम !

कल जुबली झंकार में सबसे पहले सुने हवामहल की झलकियों के अंश। सभी झलकियां हमारी पसन्द की थी। बड़ी बात ये है कि एक भी झलकी हम भूले नहीं थे। सबसे मज़ेदार थी करौंदे की चटनी।

फिर सुना प्यार हुआ इकरार हुआ। जैसे कि विज्ञापन में बताया गया था - हेवी डोज़, मुझे तो यह लार्ज डोज़ लगा। लम्बा लेकिन गहराई नहीं। क्षमा कीजिए इस कार्यक्रम के बारे में पोस्ट भी पढी, टिप्पणियां भी पढी पर… मुझे कार्यक्रम अच्छा तो लगा पर परफैक्ट नहीं लगा।

हमारे लिए प्यार गुलज़ार के शब्दों में आँखों की महकती ख़ुशबू है जिसका अनुभव हमें इस कार्यक्रम में नहीं हुआ। यूनुस जी ने अनिता जी का परिचय दिया कि वो मनोविज्ञान पढती-पढाती है। जब बात चली जब वी मेट की तो यहां मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ज़रूरी था।

जैसे कि कमलेश (पाठक) जी ने बताया कि जब उन्होनें हरीश जी को देखा तो लगा कि यही है… इस स्थिति की मनोवैज्ञानिक व्याख्या अगर अनिता जी से ली जाती कि क्यों और कैसे किसी विशेष व्यक्ति को देखकर मन के तार झनझनाते है।

जब पहली बार देखते है तब ही क्या विवाह का निर्णय ले लेते है, मुझे नहीं लगता ऐसा, मेरी समझ में पहले मुलाक़ात होती है फिर दोस्ती और ये दोस्ती कब प्यार में बदलती है पता ही नहीं चलता तब होता है विवाह का निर्णय।

सभी इस प्रक्रिया के दौर से गुज़रते है जिसकी कोई चर्चा नहीं हुई। ऐसा तो नहीं होता कि आपने देखा और आपको लगा कि यही हो सकता है मेरा जीवन साथी और तुरंत हो गया गंधर्व विवाह।

प्रक्रिया मन ही मन चलती है जिसे बताना आसान नहीं होता क्योंकि इतनी इमानदारी से बात नहीं की जा सकती।

ऐसा ही एक और मुद्दा है बाह्य सौन्दर्य का। जब हम पहली बार देखते है तो क्या देखते है बाहरी व्यक्तित्व ही। उसके गुण व्यवहार आदि तो बाद में पता चलते है यदि हां किसी घटना के दौरान अगर आपने किसी को देखा हो जैसे कोई किसी से बात कर रहा हो, सहायता कर रहा हो तब बात और है।

लेकिन यहां तो बताया गया कि विभाग में वो बाहर से भीगी हुई आई और पूछा कक्षा चल रही है इन्होंने कहा नहीं जबकि कक्षा चल रही थी। जो हुआ वो बाहरी सौन्दर्य का ही असर था क्योंकि उस समय और तो कुछ पता नहीं था।

बाहरी सौन्दर्य की स्वीकारोक्ति भी हुई फिर जब लगा कि माध्यम रेडियो है तो लीपा-पोती हो गई।

सच्चे प्यार की बात तो मुझे नागवार गुज़री। एक से सच्चा प्यार हुआ, फिर कुछ हुआ तो टूट गया फिर दूसरे से सच्चा प्यार हो सकता है, प्यार न हुआ आलू की बोरी हो गई जिधर टिका दो टिक गई।

सच्चे प्यार में ममता जी सिर्फ़ जोड़ियां होती है, लैला मजनू, किसी तीसरे नाम की गुंजाइश ही नहीं होती। जब दूसरे से भी सच्चा प्यार हो सकता है तो कर लेते अरेन्जड मैरेज, पत्नी से भी प्यार हो ही जाता।

हमारे लिए तो प्यार वो है जो फ़िल्म बाँबी में देखा था। कच्ची उमर, चले जा रहे है दोनों बाइक पर, नहीं जानते कहां जाना है, ये भी ध्यान नहीं है कि कुछ दूर जाने के बाद जब बाइक में पेट्रोल ख़त्म होगा तो आगे कैसे जाएगें।

जब ये सोचा जाने लगता है कि ढाई सौ रूपए का स्टाइफन तो है गुज़ारा हो जाएगा, कर लेते है शादी तो ये भी अरेन्जड मैरेज ही होती है फ़र्क इतना है कि अरेन्जड मैरेज घर के बड़े तय करते है यहां आप ही तय कर रहे है।

2 comments:

डॉ. अजीत कुमार said...

अन्नपूर्णा जी,
कहते हैं न- पसंद अपनी-अपनी, ख़याल अपना-अपना.
पर इस कार्यक्रम में जितनी बेबाकी से अपनी राय रखी गयी वही मुझे पसंद आयी.
अलग अलग पीढियों के सोचने का नजरिया कैसा था और कैसा है, विविध भारती के इस प्रयास के लिए मैं उसे धन्यवाद देता हूँ.
धन्यवाद.

mamta said...

ओह-हो हम तो सुन ही नही पाये क्यूंकि हम कार्निवाल देखने मे लगे थे।

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