सबसे पहले मैं अपने सभी ब्लोगर मित्रों को बधाई देना चाहती हूँ कि सबने मिलकर रेडियोनामा पर तीन शतक पूरे कर तीन सौ चिट्ठों में रेडियो के अलग-अलग रंग प्रस्तुत किए।
आज के चिट्ठे में हम चर्चा करेगें कार्यक्रम पिटारा की। शुक्रवार का पिटारा जिसका शीर्षक है पिटारे में पिटारा पर हम तो कहेगें पिटारे में खिचड़ी। विविध भारती का यह कार्यक्रम वैसे शीर्षक की तरह भानुमति का पिटारा ही है पर शुक्रवार को दूसरी कहावत भी पूरी हो जाती है - कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा।
समझ में नहीं आता कि भानुमति को इस तरह का कुनबा जोड़ने की ज़रूरत ही क्या है ? शुक्रवार का पिटारा वाकई समझ से परे है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें प्रसारित होने वाले कार्यक्रम बेतुके है। हमारा कहने का मतलब है इन अच्छे कार्यक्रमों की इस तरह से खिचड़ी प्रस्तुति क्यों की जाती है ?
अब कल ही का कार्यक्रम ले लीजिए, संगीतकार जोड़ी साजिद-वाजिद के वाजिद से ममता (सिंह) जी की बातचीत। बहुत ही सरस रही बातचीत साथ ही गानों में भी मज़ा आया चाहे वो पार्टनर के गाने हो या सोनी के नख़रे पर यह कार्यक्रम शुक्रवार को पिटारे में पिटारा में क्यों ? क्या वाजिद साहब बुधवार को आज के मेहमान बन कर नहीं आ सकते ? मुझे नहीं लगता कि वाजिद साहब को कोई एतेराज़ होगा।
इसी तरह से ममता जी ने पहले गीतकार प्रशान्त जी से भी बातचीत की थी और चर्चा हुई थी चमेली और जब वी मेट फ़िल्मों के गानों की भी। अगर नई फ़िल्मों की वजह से ही यह कार्यक्रम शुक्रवार को प्रसारित हुए तब भी बड़ी अजीब बात लगती है कि नए कलाकार आज के मेहमान क्यों नहीं हो सकते ?
बात सिर्फ़ यहीं तक नहीं है यानि सिर्फ़ इसी तरह के कार्यक्रम ही इसमें नहीं होते बल्कि दूसरी तरह के कार्यक्रम भी इसमें होते है जैसे पिछले शुक्रवार को कार्यक्रम था - चूल्हा-चौका। लगभग दस-ग्यारह साल पहले पिटारा कार्यक्रम में कुछ अलग विषय के कार्यक्रम भी थे जिनमें से एक था सोलह सिंगार जो शायद रेणु (बंसल) जी प्रस्तुत करती थी और एक कार्यक्रम था चूल्हा-चौका। नामों से समझा जा सकता है कि किस तरह के कार्यक्रम थे।
शायद इसी पुराने कार्यक्रम की रिकार्डिंग पिछले सप्ताह प्रसारित हुई जिसे प्रस्तुत कर रही थी आशा साहनी और अतिथि थे शान्ता नन्दा, आरती जी जो गायिका है जिनका पूरा नाम और एक और अतिथि का नाम मैं भूल रही हूँ। इसमें विभिन्न प्रकार के नाश्ते बनाना बताया गया इस कार्यक्रम का भाग सोमवार की सखि-सहेली में भी प्रस्तुत किया जा सकता है।
ऐसा भी नहीं है कि हर शुक्रवार अच्छा नहीं लगता। अच्छा लगा जब कांचन (प्रकाश संगीत) जी की संगीत नाटिका - दुल्हिन की शादी में दूल्हा बाराती सुनने को मिला। बाइस्कोप की बातें इस दिन हमेशा से ही अच्छी लगी। इन अच्छे कार्यक्रमों के साथ अगर फ़िल्मों गीतों की अलग-अलग तरह से प्रस्तुति की जाएगी तो ज्यादा अच्छा लगेगा जिसमें कुछ पुरानी प्रस्तुतियाँ है जो अब बन्द हो गई है जैसे एक ही कलाकार, एक और अनेक, साज़ और आवाज़ और भी कई तरह की प्रस्तुतियाँ हो सकती है।
तो बस आवश्यकता है शुक्रवार के पिटारा को दुबारा व्यवस्थित करने की फिर पिटारा हर रोज़ अच्छा लगेगा।
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Saturday, July 19, 2008
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1 comment:
अन्नपूर्णा जी, अच्छा लगता है जब आप इस तरह से कार्यक्रम विशेष का विश्लेषण करती हैं.हमें कुछ सोचने का तो मौका मिलता है. मुझे लगता है पिटारे में पिटारा जो कार्यक्रम है वो सचमुच नए पिटारे में पुराना और कुछ नया पिटारा लेकर आता है. जैसा आपने लिखा भी है. जब से सरगम के सितारे बंद हुआ है तो लगता है कि उसे इसी में शामिल कर लिया गया है.
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