छाया गीत - विविध भारती से प्रसारित होने वाला फ़िल्मी गीतों का एक अनूठा कार्यक्रम। वैसे फ़िल्मी गीत तो विविध भारती पर बजते ही रहते है, जिनमें अधिकतर गीत श्रोता अपनी पसन्द से ही सुनते है पर छाया गीत ही एक ऐसा कार्यक्रम है जिसमें उदघोषक अपनी पसन्द के गीत सुनवाते है और इन गीतों को मेरे अलावा शायद और भी बहुत से ऐसे श्रोता होंगे जो अन्य कार्यक्रमों में बजने वाले गीतों से ज्यादा पसन्द करते है।
उदघोषक सिर्फ़ अपने पसन्द के गीत ही नहीं सुनवाते बल्कि अपने मन की बात श्रोताओं तक पहुँचाते है। उनके भाव उनके विचार सुन्दर साहित्यिक शब्दावली में सज कर गीतों के मोतियों के साथ जब श्रोता तक पहुँचते है तब कौन ऐसा श्रोता होगा जो इसे नापसन्द करें।
मैनें पसन्द-नापसन्द का मुद्दा यहाँ इसीलिए उठाया कि आज भी हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग है जो अपनी दुनिया में डूबे रहते है और जिनके लिए रेडियो टेलिविजन समाचारों की दुनिया तक ही सीमित है। इस वर्ग में पढे-लिखे लोग है व्यापारी है और भी अन्य वर्ग के लोग है।
मुझे याद आ रहा है जब हम उस्मानिया यूनवर्सिटी में एम ए में हिन्दी साहित्य पढते थे तब साहित्य की चर्चा में कक्षा में कभी-कभार फ़िल्मों की चर्चा भी छिड़ जाती थी आखिर प्रेमचन्द जैसे साहित्यकार का नाम भी तो फ़िल्मों से जुड़ा है न…
एक बार एक प्रोफ़ेसर ने चर्चा के दौरान कहा कि कभी--कभी फ़िल्मी गीतों में भी अच्छा साहित्य होता है जैसे यह गीत - जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा। प्रोफ़ेसर साहब ने कहा कि वो तो फ़िल्मों से रेडियो से दूर ही रहते है पर रात में बच्चे जब छायागीत सुनते है तो वो भी उनके साथ इन गीतों का आनन्द लेते है। आगे उन्होनें कहा कि ईश्वर की इतनी सुन्दर कल्पना साहित्य के अलावा फ़िल्मों में भी हो सकती है इसका पता उन्हें इस गीत से ही चला या कहे कि छाया गीत से ही चला।
छाया गीत का स्वरूप है ही इतना आकर्षक कि सभी वर्ग के श्रोताओं को लुभाता है, तभी तो यह कार्यक्रम सुनना अच्छा लगता है नहीं तो यह गीत किसी भी कार्यक्रम में सुना जा सकता है पर प्रोफ़ेसर साहब मन चाहे गीत सुनना तो पसन्द नहीं करेंगे ना…
ऐसी ही चर्चा एक बार हमारी मैडम यानि महिला प्रोफ़ेसर ने भी की थी। उन्होनें कहा था दिन भर अपने काम से थक कर जब रात में दस बजे आराम करने लगते है तब यह गीत बहुत सुकून देते है। उन्होनें तो छाया गीत के पूरे कार्यक्रम को साहित्यिक कह दिया था। न केवल इसमें सुनवाए जाने वाले गीत बल्कि गीतों की प्रस्तुति के भाव और भाषा सभी स्तरीय होता है। मुद्दा यह कि रेडियो टेलीविजन से दूरी बनाए रखने वाले भी छायागीत से जुड़ने में संकोच नहीं करते।
बरसों से सुन रहे है छाया गीत रात में दस से साढे दस बजे तक विविध भारती से। मैनें तो बचपन से सुना। कई नाम गूँजने लगते है - बृजभूषण साहनी, राम सिंह पवार, विजय चौधरी, एम एल गौड़, चन्द्र भारद्वाज, कान्ता गुप्ता, अनुराधा शर्मा, मोना ठाकुर और भी नाम है। एक नाम ऐसा भी है जिनके कार्यक्रम तो बहुत कम हुए पर बहुत ही स्तरीय हुए - डा अचला नागर। कभी-कभार अन्य केन्द्रों के उदघोषकों के भी छायागीत सुनवाए जाते। इसी क्रम में हैदराबाद से अशफ़ां जबीं के कार्यक्रम भी सुने।
उदघोषकों के नाम तो बदलते गए पर कार्यक्रम की प्रस्तुति का स्वरूप नहीं बदला। कभी यादों का सिलसिला तो कभी मौसम का लुत्फ़ तो कभी ज़िन्दगी के अलग-अलग रंग।
पिछली बार रेणु (बंसल) जी ने कम चर्चित कलाकारों पर फ़िल्माए गए गीत सुनवाए जैसे हमराही - कलाकार जमुना, प्रोफ़ेसर - कल्पना पर इस श्रृंखला में मीनाकुमारी का नाम खटकने लगा। ख़ैर… जब हम प्रोफ़ेसर का गीत सुन रहे थे तो हमें याद आए बहुत पहले सुने हुए छाया गीत जिसमें एक बार ऐसे युगल गीत सुनवाए गए थे जिनमें युगल स्वर गायिकाओं के थे और शुरूवात प्रोफ़ेसर के इस गीत से हुई थी - हमरे गाँव कोई आएगा। इसी तरह एक बार केवल ग़ज़लें सुनवाई गई और एक बार शास्त्रीय संगीत का पुट लिए गीत।
बहरहाल किसी विषय पर उदघोषक की भावनाएँ हो या फ़िल्मी गीतों की कोई श्रेणी हो, गीत और प्रस्तुति में अच्छा ही होता है छाया गीत।
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Thursday, July 31, 2008
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3 comments:
annapurna ji chhayageet hai hi aisa programme jo hame meethe meethe geeto ke saath meethe sapno ki duniya mein bhejta hai.ek baar fon par koi shrota bata raha tha ki woh chhayyageet raat ko chhat par sote hue taaro ke saath sunta hai .kitna khubsurat tarika hai chhayageet sunne ka yeh .aapne to kitne hi purane announcers ke chhayageet sune hai kabhi vistaar se likhiyega unke baare mein . maine to inme se kuchh ki awaj 3 oct ko suni thi.post achhi lagi
manjot bhullar
bilkul sahi likha hai aapne .chhayageet hi ek aisa karkrm hai jo parane yadoon ke jharokho se nikalta hai. aur kya kahoon jitna likhoon utana kam hai.
बहुत कुछ पुराना याद आ गया... कभी ऐसा समय भी था जब छायागीत सुने बगैर नीन्द नही आती थी.
टिप्पणी दे न दे लेकिन यहाँ पुरानी यादों को आनन्द लेने आते ज़रूर हैं.
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।