जिंदगी में जब पीछे मुड़कर देखता हूं तो पाता हूं कि शायद कोई ऐसा पल नहीं था जब रेडियो मौजूद ना रहा हो ।
मां के पेट में रहा होऊंगा तो भी घर में रेडियो की स्वरलहरी गूंजती होगी । पिता रेडियो के शौकीन हैं । खासकर एक अरसे से वे रेडियो समाचारों को बिला-नाग़ा सुनते आए हैं । अंग्रेज़ी और हिंदी के बुलेटिन दोनों । और प्रादेशिक समाचार भी । जब मैं छोटा था तो पापा बी एस एन एल की सरकारी नौकरी में थे । शिफ्ट वाली । मुझे याद है दोपहर दो बजे वाली शिफ्ट के लिए निकलने से पहले समाचार सुनते हुए चाय की चुस्कियां लेते । और मां से बातें करते । देश और दुनिया की गतिविधियों को जानने का जुनून पापा में तब भी था और आज भी है । तो उन्हीं दिनों हमने देवकी नंदन पांडे, रामानुज प्रसाद सिंह, इंदू वाही, बोरून हालदार जैसे समाचार वाचकों की आवाजें पहचानीं । नहीं पहचानते तो कोई क्रांति नहीं होती । लेकिन शायद घर के इस माहौल ने हमारे भीतर रेडियो के संस्कार भरे । हम सभी भाई बहनों को ये अहसास दिलाया कि दुनिया में निर्लिप्त होकर नहीं जिया जा सकता । हर मुद्दे पर अपने ठोस विचार हों । तटस्थता ना हो ।
रेडियो से थोड़ा हटकर जिक्र हो रहा है लेकिन ये भी कहना चाहूंगा कि ये वही दिन थे जब इंदौर से प्रकाशित होने वाला नई-दुनिया घर पर आता था । और हम सभी में होड़ लगती थी कि पहले कौन पढ़ेगा । कभी घर के न्यायाधीश यानी हमारे माता-पिता मेरी बहन के पक्ष में फैसला सुनाते, कभी छोटे भाई के पक्ष में तो कभी बहन के । लेकिन पेपर कौन पहले पढ़ेगा इस बात को लेकर हम झगड़ते बहुत थे । और इस झगड़े का अपना मज़ा था । कई शब्द और जुमले समझ नहीं आते । जैसे टे.टे. में कर्नाटक की जीत । तो पिता बताते टे.टे. का मतलब है टेबल टेनिस । जिमी कार्टर ने क्या कहा और यासिर अराफात ने क्या । ये नाम जीवन में शायद तभी पहली बार सुनते और लगता कि कितने जीभ-थकाऊ नाम हैं । यही नाम रेडियो से भी सुनने मिलते समाचारों में । इसी तरह व्यापारिक खबरों की भाषा बड़ी मजेदार लगती ।
मिर्ची चढ़ी और कपड़े का बाज़ार मंदा रहा । नईदुनिया ने हमारे भीतर पढ़ने के संस्कार बनाए ।
बहरहाल रेडियो की बात चल रही थी । मुझे याद है मेरी उम्र महज़ पांच या छह साल की रही होगी । भोपाल में हमारे पड़ोसी थे अहद प्रकाश । जो बच्चों के लिए लिखा करते थे । पत्र पत्रिकाओं में छपते । शायद किसी दिन चाय की चुस्कियों के बीच उन्होंने पापा को सलाह दी होगी रेडियो में बच्चों के कार्यक्रम में भेजने की । बस अगले ही रविवार पापा मुझे लेकर चले गये आकाशवाणी । शायद कोई कविता सुनाई थी मैंने तब बच्चों के कार्यक्रम में । और तब मकबूल हसन और पुष्पा तिवारी बच्चों का कार्यक्रम करते थे । आजकल आकाशवाणी पर बच्चों का कार्यक्रम लाईव नहीं होता । और इसके कई कारण हैं जिनके बारे में फिर कभी बताया जायेगा । पर तब बिल्कुल लाईव प्रोग्राम होता था । यानी सबेरे-सबेरे श्यामला हिल्स पर आकाशवाणी के परिसर में पहुंचना । दूसरे बच्चों के साथ धमाचौकड़ी करना । फिर मकबूल हसन की जबर्दस्त कड़ी आवाज़ सुनकर रिहर्सल के लिए जमा होना । सबकी बारी तय हो जाती । कौन बच्चा किस नंबर पर बोलेगा । फिर जब तक दूसरे बच्चे अपने प्रस्तुति दें, मैं मन ही मन अपनी याद की कविता दोहराता रहता । जबर्दस्त दबाव होता परफॉरमेन्स को लेकर । अगर भूल गया तो कितनी बेइज्जती हो जायेगी । दोस्तों के बीच धाक कैसे जमेगी । दूसरे बच्चे क्या सोचेंगे । इस चक्कर में कई बार भूल जाता कि दूसरे बच्चों ने क्या सुनाया । जहां सब हंसते वहां हम भी ।
जब सब ताली बजाते तो हम भी । बच्चों के प्रोग्राम में सबसे बड़ी दिक्कत प्रस्तुतकर्ताओं को ये होती थी कि कभी कोई खांस देता । कभी बीच प्रोग्राम में किसी सनकी-सुल्तान का मूड टहलने को करने लगता । कभी कोई रोने लगता । एक तो लाईव प्रोग्राम । ऊपर से ये वानर सेना । मेंढकों को तौलने से भी कठिन होता रहा होगा ये सब
इसका अहसास बाद में मुझे तब हुआ जब कॉलेज के दिनों में मैं आकाशवाणी छिंदवाड़ा में यूथ कॉम्पीयर बना ।
और एक दिन वो महिला कॉम्पीयर नहीं आई, जिसे बच्चों का प्रोग्राम रिकॉर्ड करना था । मैं ज्यादातर वक्त आकाशवाणी में ही बिताता था । बस मुझे पकड़ लिया गया और बच्चों के बीच उस दिन मेरी जो फजीहत हुई । रिकॉर्डेड होने के बावजूद बच्चों ने मुझे बहुत सताया । जैसे ही कोई बच्चा कुछ सुनाता, दूसरा कहता, भैया देखो ना ये पिंकी मेरी शर्ट खींच रही है । फिर किसी तरह सबको शांत किया जाता और दोबारा रिकॉर्डिंग शुरू की जाती तो किसी बच्चे को रेलगाड़ी चलाने की धुन सवार हो जाती । बीच में ही वो 'कूक छुक छुक' करने लगता । यानी रिकॉर्डिंग का सत्यानाश । इसी से आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि वो सारे कार्यक्रम या फिल्में जिनमें बच्चों की शिरकत होती है, कितने चुनौतीपूर्ण होते होंगे । वो मेरी जिंदगी का यादगार दिन इसलिए भी था कि जिंदगी फुल-सर्कल पर आ गयी थी । कभी एक बच्चे की हैसियत से इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया था, और उस दिन दूसरे शहर में उसी कार्यक्रम को कॉम्पीयर करके मशक्कत कर रहा था । देखिए ना बातों बातों में यादों का कारवां बचपन से लेकर कॉलेज के दिनों की तरफ चला गया । बीच की बातें छूट ही गयीं ।
इन बातों का जिक्र काफी लंबा हो जायेगा । इसलिये बचपन और कॉलेज के दिनों के बीच की यादें फिर किसी दिन आपके साथ बांटी जायेंगी । और वो भी जल्दी ही ।
जाने से पहले रेडियोनामा के बारे में कुछ जरूरी बातें आपको बतानी हैं ।
जब रेडियोनामा की तैयारियां चल रही थीं,तो इंदौर के भाई संजय पटेल ने स्वयं ही इसके लोगो और हैडर की डिज़ाइनिंग का काम अपने हाथ ले लिया । उन्होंने कई लोगो तैयार किये और उनमें से इसे हैडर के रूप में चुना हैदराबाद के भाई सागर चंद नाहर ने । बाद में रेडियोनामा के टेम्पलेट-डिज़ाइन का काम गिरीराज जोशी ने किया है । रेडियोनामा को संभालने में सागर चंद नाहर बड़ी मेहनत कर रहे हैं । रेडियोनामा से जुड़े हम सभी लोग चाहते हैं कि रेडियो से जुडी बातों और यादों का कारवां और आगे बढ़ें । अभी हो सकता है कि शुरूआत में नॉस्टेलजिया का एलीमेन्ट ज्यादा रहे । लेकिन विमर्श भी किसी ना किसी मोड़ पर शुरू होगा और जमकर होगा ।
अगर आपके मन में रेडियोनामा से जुड़ने की तमन्ना है तो आपका हार्दिक स्वागत है ।
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8 comments:
यूनूस भाई आपकी फ़ोटो बहुत अच्छी आई है..ये अभी खिचवाई है..या बचपन मे ही खिचवा ली थी..आज खाली यहा चिपकाई है..बहुत अच्छा लगा आपको पढ कर,अब लिखते भी रोजाना ही रहे..:)
यूनूस भाई
बहुत थोड़े में निबटा दिया, हम तो अभी बच्चों के प्रोग्राम का आनन्द भी पूरा नहीं ले पाये थे और आपने लेख पूरा भी कर दिया।
पढ़ते समय बच्चों के कार्यक्रम के बारे में जानकर बहुत हंसी आई।
फोटो बड़ा सुन्दर है, आपही का है ना? पूत के पाँव पालने में ही दिख रहे हैं।
यह कड़ी जारी रखें, धन्यवाद। :)
बचपन में आप बहुत सुंदर थे।
अब आप की फोटो देखने से लोकप्रिय बालगीत की पैरोडी याद आती है -
ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार
आइटम दिखे तो सीटी मार
बढ़िया!!
ऐसे ही अपने बचपन की एक दो यादें हमारे पास भी है जब हम रिकॉर्डिंग के लिए जाते थे !
बांटेंगे जरुर उन्हें आप सबसे
युनूस भाई,
नई साज सज्जा से रेडियोनामा का सिँगार और ज्यादा निखर गया -
आपकी पोस्ट भी बेहतरीन रही !
बचपन की मासूम गलियोँ का सफर सुहावना रहा -
सभी शख्स , जिन्होँने, अपना ,
योगदान दिया है ,
उन्हेँ बधाई व शुभकामना मेरी ओर से ~~
स्नेह सहित
-- लावण्या
नोस्टॉलजिया...हाँ अब यही तो बचा है हम सब के पास..
बहुत मज़ेदार विवरण दिया...रविवार के दिन की बाल मंडली सुनने की हमें भी इजाजत मिलती थी हर सप्ताह...
वाह, बचपन में तो बड़े ही प्यारे बच्चे दिखते थे. :)
बढ़िया रहा वृतांत!
आकाशवाणी इन्दौर का बाल जगत, बाल सभा और बच्चों के लिये कार्यक्रम भी बहुत लाजवाब था. पिताजी श्री नरहरि पटेल तो उसके स्थायी भाव से हो गए थे. श्रीमती रणजीत सतीश और छक्कन चाचा यानी श्री कृष्णकांत दुबे किस क़दर मेहनत करके कार्यक्रम को सजाते थे आज भी याद आ जाता है.इतने सहज प्रसारणकर्ता थे दोनो कि सुनकर लगता था कि घर-आंगन में ही बैठ कर कार्यक्रम रचा जा रहा है. उस समय यानी सत्तर के दशक में बच्चे भी ज़बरदस्त तैयारी से आते थे. ज़िन्दगी बड़ी तसल्ली भरी थी युनूसभाई उन दिनों. बच्चे का नाम भी रणजीत दीदी पूछ लेती तो अभिभावक मोहल्ले भर में बोलते फ़िरते कि आज हमारा बच्चा बाल सभा में अपना नाम बोल आया है. वो ज़माना आकाशवाणी की प्रतिष्ठा का स्वर्णिम युग था. अब न वैसी रणजीत जी रहीं और न वैसे छक्कन चाचा. बच्चे भी कंप्यूटर और एस.एम.एस पर ज़्यादा बिज़ी हैं.बचपन और रॆडियो को आपने एक साथ जोड़ कर मुझे सैंतालिस से दस बारह बरस का झिझकता हुआ किशोर बना दिया. काश ! मासूमियत का वह दौर वापस आ जाए.
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