एक उत्कृष्ट रचना, अनमोल धरोहर । हम आभारी हैं कि उन्होंने रेडियोनामा के मंच से इसे आप तक पहुंचाने का सौभाग्य हमें दिया । लावण्या जी का स्नेह रेडियोनामा पर बना रहे । यही कामना है ।
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युग की सँध्या
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युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही ...
युग की सँध्या कृषक वधू सी ....
धूलि धूसरित, अस्त ~ व्यस्त वस्त्रोँ की,
शोभा मन मोहे, माथे पर रक्ताभ चँद्रमा की सुहाग बिँदिया सोहे,
उचक उचक, ऊँची कोटी का नया सिँगार उतार रही
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
रँभा रहा है बछडा, बाहर के आँगन मेँ,
गूँज रही अनुगूँज, दुख की, युग की सँध्या के मन मेँ,
जँगल से आती, सुमँगला धेनू, सुर पुकार रही ..
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
जाने कब आयेगा मालिक, मनोभूमि का हलवाहा ?
कब आयेगा युग प्रभात ? जिसको सँध्या ने चाहा ?
सूनी छाया, पथ पर सँध्या, लोचन तारक बाल रही ...
उलझी हुई समस्याओँ की बिखरी लटेँ सँवार रही
युग की सँध्या कृषक वधू सी किस का पँथ निहार रही ?
[ Geet Rachna :: Late Pandit Narendra Sharma :
Compiled By : Lavanya ]
4 comments:
वाह ! क्या बात है।
Shukriya Annapurna ji --
sa sneh,
Lavanya
बहुत सुन्दर कविता
What is the year of broadcasting of that Song : YUG KI SANDHYA sung by Lataji?
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।