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Friday, September 28, 2007

संगीत सरिता में बचपन से किया सद्यः स्नान

हम जिस स्कूल में पढते थे वहां संगीत अनिवार्य विषय था। सप्ताह में एक दिन संगीत की कक्षा लगती थी। यह कक्षा संगीत कक्ष में ही लगती थी।

संगीत कक्ष एक बड़ा सा कमरा था जिसमें दरी बिछी होती थी। हम सब छात्र दरी पर बैठते, सामने कुर्सी पर हमारी अध्यापिका श्रीमती कमला पोद्दार बैठती और साथ लगी मेज़ पर होता हारमोनियम। दीवार से लगी शीशे की अलमारियों में सजे होते तबला, ढोलक, घुंघरू, सितार, वीणा। लेकिन हमारे पाठ्यक्रम में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में केवल गायन शामिल था वादन नहीं इसलिए इन साज़ों का प्रयोग सांस्कृतिक कार्यक्रमों में किया जाता था।

हमारी अध्यापिका श्रीमती कमला पोद्दार बहुत अच्छी कलाकार थी। आकाशवाणी के हैदराबाद केन्द्र से उनके कार्यक्रम नियमित प्रसारित होते थे। कक्षा में हमें विभिन्न राग सिखाए जाते। उनका सिखाने का तरीका भी बहुत अच्छा था।

पहले वो राग का नाम बतातीं, फिर बतातीं कि यह राग किस थाट से उत्पन्न हुआ है। उसके बाद बताया जाता आरोह - अवरोह, वादी - संवादी, शुद्ध स्वर, धईवत स्वर और गायन का समय। फिर इन्ही बातों को वो दुबारा बतातीं और हम अपनी कापियों में नोट करते जो ज़रूरी था क्योंकि संगीत की तिमाही, छमाही और वार्षिक परीक्षा भी होती थी।

राग के बारे में लिखने के बाद हारमोनियम पर आरोह अवरोह अध्यापिका गा कर सुनातीं। फिर राग पर आधारित हमें एक गीत सिखाया जाता। इस तरह स्कूली जीवन में विभिन्न रागों पर गीत , भजन सीखें। लेकिन आज अफ़सोस है एक बात का कि हमने उन कापियों को संभाल कर नहीं रखा।

उन्हीं दिनों परिचय हुआ संगीत सरिता कार्यक्रम से। रेडियो तो बचपन से ही रोज़ ही घर में बजते देखा। लेकिन जब स्कूल में संगीत सीखते थे तब यह कार्यक्रम अधिक अच्छा लगता था।

उन दिनों इस कार्यक्रम में भी प्रतिदिन एक राग के बारे में वही सब बताया जाता । फिर उस राग पर आधारित एक फ़िल्मी गीत बजता और फिर साज़ पर यही राग बजाया जाता। हम सभी ये कार्यक्रम रोज़ सुबह साढे सात बजे सुनते।

कभी - कभी जो राग रेडियो में सुनते वही स्कूल में सिखाया जाता तब हम सब गीत सीखते समय उस फ़िल्मी गीत की बात कहने लगते तब अध्यापिका कहती - नहीं, तुम्हारे वो फ़िल्मी गाने बिल्कुल नहीं। स्कूल तो छूटा पर सुबह साढे सात बजे संगीत सरिता सुनने का क्रम आज तक नहीं टूटा।

इस कार्यक्रम में कई परिवर्तन हुए। पहले रोज़ केवल रागों के बारे में बताया जाता था। फिर हर रविवार को विशेष कार्यक्रम होने लगा जिसमें संगीत के क्षेत्र के किसी महान व्यक्ति से बातचीत की जाती। फिर आया श्रंखलाओं का दौर।

जब मैनें श्रंखला सुनी पार्शव गायन के रंगीन ताने बाने तो मुझे याद आया - नहीं, तुम्हारे वो फ़िल्मी गाने बिल्कुल नहीं।

सभी श्रंखलाएं अच्छी लगी - रसि केशु, तबला और उसका बाज़, मेरी संगीत यात्रा, सरोद का सुर संसार । बेगम अख़तर पर कार्यक्रम, परवीन सुलताना, सूफ़ी गायक बुल्ले शाह, एक और गायिका जिसका नाम मैं भूल रही हूं जिसका प्रसारण 96 या 97 के आस पास हुआ था, इन सब से बहुत कुछ जाना। अच्छा लगा गुलज़ार, आर डी और आशा को एक साथ सुनना।

अब भी अच्छा चल रहा है। ज़रीन शर्मा की श्रंखला समाप्त हुई और अब चल रही है मदन मोहन की।

वाकई बधाई के पात्र है - रूपाली रूपक (कुलकर्णी) , छाया गांगुली, कांचन प्रकाश संगीत, कमला कुंदर, अशोक सोनावरे।

3 comments:

Manish Kumar said...

संगीत सरिता कार्यक्रम मुझे इसलिए याद रहता था कि ठीक इसी के आस पास हमारी सुबह शुरु होती थी।:p
संगीत सरिता के पहले का प्रारूप तो मुझे याद है पर बाद मे् जब विशेष कार्यक्रम या श्रृंखलाएँ आनी शुरु हुईं मेरा इसका साथ छूट चुका था। अब आपने बताया है तो रविवार के दिन सुन कर देखूँगा कि कितनी बदली है संगीत सरिता !

mamta said...

पहले तो हमेशा सुनते थे पर बाद मे तो बिल्कुल ही छूट गया।
आपने संगीत की क्लास की अच्छी याद दिलाई ऐसे अनुभवों से हम भी दो-चार हुए है। । वैसे पहले तो शायद हर स्कूल मे आठवी तक संगीत अनिवार्य होता था ।

Yunus Khan said...

अन्‍नपूर्णा जी मैं भी बताना चाहता हूं कि मैंने संगीत सरिता से क्‍या सीखा । मेरी पसंद के कार्यक्रम क्‍या रहे । लेकिन संभवत: तीन अक्‍तूबर के बाद ही बता सकूंगा । अभी इतना ही कहूंगा कि संगीत सरिता मेरे जीवन का एक यादगार कार्यक्रम रहा है । एक जमाने में मैं रेडियो से ही इसे रिकॉर्ड करके कैसेट पर रख लेता था ।

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