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Monday, January 7, 2008

क्या बिना विज्ञापन आप कार्यक्रम पसन्द करेंगें ?

अगर आज मैं आपसे ये सवाल पूछूं - क्या बिना विज्ञापन आप कार्यक्रम पसन्द करेंगें ? तो आपमें से अधिकांश का जवाब होगा - नहीं

आज कार्यक्रम में बीच-बीच में विज्ञापन आते है तो लगता है थोड़ा सा आराम मिल गया। अगर कुछ साल पहले यही सवाल आपसे पूछा गया होता तो जवाब होता - हां

कुछ समय पहले विज्ञापन आते तो ऐसा लगता कार्यक्रम का मज़ा किरकिरा हो गया यानि जैसे अंगूर खाते समय बीच-बीच में बीज आ जाते है उसी तरह से लगते थे ये विज्ञापन।

विज्ञापनों से श्रोताओं को परिचित कराया रेडियो सिलोन ने। यह बात मैं अपने पिछले एक चिट्ठे में भी लिख चुकी हूं। यह विज्ञापनों का शुरूवाती दौर था इसीलिए श्रोताओं को अच्छा लगता था। विज्ञापन भी बहुत मज़ेदार हुआ करते थे।

रेडियो सिलोन तो फ़िल्मों और फ़िल्मों गीतों पर ही आधारित था, मगर सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम थे बिनाका गीत माला और उसके बाद आप ही के गीत। दोनों ही कार्यक्रमों में उन फ़िल्मों के गीत बजते थे जो रिलीज़ हुई है या होने ही वाली है इसीलिए लगभग वही गीत बार-बार सुनने को मिलते थे।

बिनाका गीत माला तो सप्ताह में एक बार होती लेकिन आप ही के गीत में रोज़ लगभग वही गीत सुनने होते। बिनाका गीत माला में सिर्फ़ बिनाका टूथ पेस्ट और टूथ ब्रश का ही विज्ञापन बजता और वो भी एक घण्टे में दो-चार बार ही, लेकिन आप ही के गीत में हर गीत के बाद विज्ञापन प्रसारित होते।

रोज़ वही गीत वही विज्ञापन फिर भी अच्छा लगता। अन्य कार्यक्रमों की तुलना में सवेरे 8 से 9 इसी एक घण्टे के कार्यक्रम आप ही के गीत में अधिक विज्ञापन होते। 5 मिनट में एक गीत बजता, गीत के गायक और फ़िल्म का नाम बताया जाता और फ़रमाइश करने वालों की लंबी सूची पढी जाती फिर गीत के बाद 20-30 सेकेण्डस के 4-5 विज्ञापन।

इस एक घण्टे में रोज़ वही गीत तो एक ही बार बजता पर वही विज्ञापन बार-बार बजते थे। लगभग 6 महीनों में गीतों में बदलाव आता क्योंकि फ़िल्मों की रिलीज़ के आधार पर एक-एक कर गीत बदलते जाते पर विज्ञापनों में बदलाव बहुत ही कम आता।

इन विज्ञापनों की ही बदौलत कई उत्पाद घर-घर में नज़र आने लगे, चाहे खांसी की दवा ग्लाइकोडिन हो, मराठा दरबार अगरबत्ती हो, एस कुमार्स के कपड़े हो, सोनी आडियो कैसेट हो और साथ में ढेर सारे फ़िल्मी विज्ञापन।

कभी-कभी यूं भी होता कि एक फ़िल्म का विज्ञापन आता और उसके बाद उद्घोषक कहते अब आप इसी फ़िल्म का गीत सुनिए।

धीरे-धीरे माहौल बदलने लगा। पहले दूरदर्शन फिर निजि टेलिविजन चैनलों ने पैर पसारने शुरू किए। इन पर भी विज्ञापनों का जादू है या यूं कहे कि विज्ञापनों से होने वाली आमदनी से ये दिन दूनी रात चौगुनी उन्नति कर रहे है और इन्हीं विज्ञापनों के सहारे उत्पाद दुनिया के कोने-कोने में अपनी जगह बना रहे हैं और ये उत्पाद बनाने वाली कंपनिया ढेरों मुनाफा बटोर रही हैं।

ऐसे वातावरण में विज्ञापन संस्कृति की शुरूवात करने वाला रेडियो सिलोन आज विज्ञापनों से सूना क्यों है ?

जैसा कि मैनें अपने पिछले एक चिट्ठे में बताया कि कुछ सालों से मैं सिलोन तकनीकी कारणों से फिर आदत छूट जाने से नहीं सुन पा रही थी और अब पीयूष जी की सहायता से सुन पा रही हूं और कल मैनें बरसों बाद पहली बार आप ही के गीत सुने।

त्रिवेणी सुनने के बाद मैनें सिलोन ट्यून किया तो के एल सहगल के गीत के बाद उद्घोषणा हुई और आप ही के गीत की संकेत धुन बजी। फिर शुरू हुए नए फ़िल्मी गीत - झूम बराबर झूम, सांवरिया एक के बाद एक उद्घोषणा और गीत। सब कुछ बरसों पहले जैसा लगा सिर्फ़ ग़ायब थे तो विज्ञापन।

आप ही के गीत के बाद सुना फ़िल्म संगीत जिसमें वही चिरपरिचित अंदाज़ में लोकप्रिय गीत सुनवाए गए। बिना विज्ञापनों के कार्यक्रम सुनना बहुत अच्छा लगा पर मन में सवाल उठा कि जब सिलोन ने अपनी संस्कृति नहीं बदली तो विज्ञापनों ने मुंह क्यों मोड़ लिया ?

इतनी बड़ी-बड़ी कंपनिया क्या कुछ विज्ञापन रेडियो सिलोन को नहीं दे सकती। सबसे ज्यादा अखरने वाली बात लगी कि फ़िल्मों की सफलता में और खासकर फ़िल्मी गीतों को लोकप्रिय बनाने में जिस रेडियो सिलोन का महत्वपूर्ण योगदान रहा आज वहीं फ़िल्म इंडस्ट्री अपनी एक भी फ़िल्म का विज्ञापन नहीं दे रही।

आखिर सबने क्यों इस तरह से नाता तोड़ लिया है ? क्या आप बता सकेंगे…

5 comments:

डॉ. अजीत कुमार said...

अन्नपूर्णा जी,
मैं आपसे ये इत्तफाक नहीं रखता कि विज्ञापन हमें अच्छे लगते हैं. हाँ वे कार्यक्रमों के बीच में आते हैं तो उन्हें सुनना ही पड़ता है. इसमे कोई दो राय नहीं है कि विज्ञापनों ने हमारे जीवन में जबरदस्त दखल दी है और उनके बदौलत बहुत सारी चीजें हमारे रोजमर्रा की जिन्दगी में शामिल हुई हैं पर विज्ञापन सुनना अच्छा लगता है ये तो मैं नहीं मान सकता. कुछ दिन पहले हेलो फरमाइश में close-up का विज्ञापन आता था. मुझे तो हमेशा ही ये उबाऊ लगता है.
पोस्ट के लिए धन्यवाद.

PIYUSH MEHTA-SURAT said...

आदरणिय श्री अन्नपूर्णाजी,

आपने सिर्फ़ रविवार के दिन रेडियो श्रीलंका सुना, पर आज रेडियो सिलोन को विज्ञापन और प्रायोजित कार्यक्रम तो क्या नये गाने भी अन्य भारतिय रेडियो चेनल्स के मुकाबले नहीं के बराबर खरीद पाते है । आज आप ही के गीत सिर्फ़ रविवार को ही होता है । अन्य दिनो को जो कार्यक्रम होते है वे ज्यादा तर पूराने या बीच वाले गानो पर आधरित ही होते है । पर आप ७.३० से ८ बजे तक हररोज सुनिये उसमें पूराने गीत ही होते है । दि. २६-१२-२००७ के रेडियो श्री लंका के रात्री प्रसारण अंतर्गत सजीव फोन-इन कार्यक्रममें मैने उद्दघोषिका श्रीमती ज्योति परमारजी ( यह परमार सरनेईम उनकी शादी के पहेले की है और उन्होंने सिंहाली इन्सानसे शादी रचाई है ।) से बात करते समय रेडियो श्रीलंका की पूरानी पर नयी श्रोता के रूपमें आप का परिचय ’हैद्राबाद की अन्नपूर्णा गैही ’ के रूपमें दिया था । उसकी ध्वनिमूद्री मेरे पास है । पर एफ. एम. की ध्वनि गुणवत्ता नहीं है । और शायद सभीको रस दायी भी नहीं लगे इस लिये इधर नहीं रखा । रेडियो श्री लंका के उद्दधोषक श्री गोपाल शर्मा साहब की जन्म तिथी के अवसर पर मेरी पोस्ट पर सिर्फ़ श्री कमल शर्माजी और श्री अजित वडनेरकर साहब की ही टिपणीयाँ आयी, जिनकी रात्री की अन्तिम उद्दघोषणा ’ शुभ: रात्री’ सुनने के लिये हम लोग रात्री ११ बजे तक रेडियो सिलोन सुनते थे । आपने कोनसे साल से रेडियो सिलोन सुनना शुरू किया था वह भी बताईए जरूर । विज्ञापन की आमदानी का कारण वे लोग भारतीय रूपये की जगह अमेरिकन डोलर्स के रूपमें भूगतान मांगते थे । और इधर रिझर्व बेन्कने विदेशी मूद्रा पर नियंत्रण कडे किये थे । करीब सिर्फ़ १५ या बीस साल से ही भूगतान भारतीय रूपये के रूपमें स्वीकार करना शुरू किया (उद्द्घोषणा विजय शेखर) तब मैंनें ही उनको लिखा था कि घोडे भाग जाने के बाद आप तबेले या घोडार के दरवाजे बंध कर रहे है । उस समय विज्ञापन अच्छे लगने कए कारण उस समय के अमीन सायानीजी ब्रिज भूषणजी. नक्वी रझवीजी, बाल गोविंद श्रीवास्तवजी, कमल बारोटजी, शील कुमारजी, मुरली मनोहर स्वरूपजी श्रीमती मधूर (ब्रिज ) भूषणजी वगैराह एवन क्लास के कर्मशीलो की सक्रियता तथा रेडियो श्रीलंका का उन विज्ञापन और प्रायोजित कार्यक्रमों के प्रसारण को घ्यानमें रखकर अपने निजी कार्यक्रमों को आयोजित और प्रसारित करना यह सही वजह है वहाँ के प्रासारणकी लोक प्रियताकी । जबकी विविध भारती के सभी स्थानिय विज्ञापन प्रासारण सेवा के केन्दों को आकाशवाणी के महानिर्देषालय और सेन्ट्रल सेल्स युनिट (केन्द्रीय बिक्री एकांश ) सरकारी विज्ञापनो और सरकारी प्रायोजित कार्रक्रमओं की बूकिंग स्थानिय सी.बी.एस. केन्द्रो के लिये कर करके विविध भारती के लिये खल नायक बन गये है । और विविध भारती को अपने प्रसारणका कोनसा हिस्सा कहाँ कहाँ कट जाता है वह पता ही नहीं चलता है । स्वर्ण स्मृति जैसे विषेष प्रसारण को भी उन्होँने नहीं छो़डा है ।

Anonymous said...

अजीत जी टिप्पणी के लिए धन्यवाद !

पीयूष जी इस बार मैं आप से नाराज़ हूं जिसके कारण है -

पहला कारण - गोपाल शर्मा जी को मैनें और कमल शर्मा जी ने जन्मदिन की बधाई दी थी, अजीत वडनेरकर जी ने नहीं।

दूसरा कारण - आपने ज्योति परमार जी से मेरी चर्चा की और मुझे पता तक नहीं।

अब नाराज़गी दूर करने का तरीका है कि आप वो रिकार्डिंग यहां प्रस्तुत कीजिए। आपकी अगली पोस्ट की प्रतीक्षा है…

अन्नपूर्णा

Parvez Sagar said...

pls log on to...
www.rangkarmi.blogspot.com

mamta said...

अन्नपूर्णा जी हमे तो पहले भी और आज भी विज्ञापन कभी बहुत ज्यादा खराब नही लगे हाँ ये जरुर है कि हम विज्ञापन से प्रभावित होकर चीजें नही खरीदते है।

और रेडियो सीलोन सुने तो अरसा हो गया है।

पीयूष जी से हम भी कहना चाहेगें कि वो रेकॉर्डिंग को यहां पर सुनवायें।

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