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Thursday, July 31, 2008
छाया गीत
उदघोषक सिर्फ़ अपने पसन्द के गीत ही नहीं सुनवाते बल्कि अपने मन की बात श्रोताओं तक पहुँचाते है। उनके भाव उनके विचार सुन्दर साहित्यिक शब्दावली में सज कर गीतों के मोतियों के साथ जब श्रोता तक पहुँचते है तब कौन ऐसा श्रोता होगा जो इसे नापसन्द करें।
मैनें पसन्द-नापसन्द का मुद्दा यहाँ इसीलिए उठाया कि आज भी हमारे समाज में कुछ ऐसे लोग है जो अपनी दुनिया में डूबे रहते है और जिनके लिए रेडियो टेलिविजन समाचारों की दुनिया तक ही सीमित है। इस वर्ग में पढे-लिखे लोग है व्यापारी है और भी अन्य वर्ग के लोग है।
मुझे याद आ रहा है जब हम उस्मानिया यूनवर्सिटी में एम ए में हिन्दी साहित्य पढते थे तब साहित्य की चर्चा में कक्षा में कभी-कभार फ़िल्मों की चर्चा भी छिड़ जाती थी आखिर प्रेमचन्द जैसे साहित्यकार का नाम भी तो फ़िल्मों से जुड़ा है न…
एक बार एक प्रोफ़ेसर ने चर्चा के दौरान कहा कि कभी--कभी फ़िल्मी गीतों में भी अच्छा साहित्य होता है जैसे यह गीत - जिसकी रचना इतनी सुन्दर वो कितना सुन्दर होगा। प्रोफ़ेसर साहब ने कहा कि वो तो फ़िल्मों से रेडियो से दूर ही रहते है पर रात में बच्चे जब छायागीत सुनते है तो वो भी उनके साथ इन गीतों का आनन्द लेते है। आगे उन्होनें कहा कि ईश्वर की इतनी सुन्दर कल्पना साहित्य के अलावा फ़िल्मों में भी हो सकती है इसका पता उन्हें इस गीत से ही चला या कहे कि छाया गीत से ही चला।
छाया गीत का स्वरूप है ही इतना आकर्षक कि सभी वर्ग के श्रोताओं को लुभाता है, तभी तो यह कार्यक्रम सुनना अच्छा लगता है नहीं तो यह गीत किसी भी कार्यक्रम में सुना जा सकता है पर प्रोफ़ेसर साहब मन चाहे गीत सुनना तो पसन्द नहीं करेंगे ना…
ऐसी ही चर्चा एक बार हमारी मैडम यानि महिला प्रोफ़ेसर ने भी की थी। उन्होनें कहा था दिन भर अपने काम से थक कर जब रात में दस बजे आराम करने लगते है तब यह गीत बहुत सुकून देते है। उन्होनें तो छाया गीत के पूरे कार्यक्रम को साहित्यिक कह दिया था। न केवल इसमें सुनवाए जाने वाले गीत बल्कि गीतों की प्रस्तुति के भाव और भाषा सभी स्तरीय होता है। मुद्दा यह कि रेडियो टेलीविजन से दूरी बनाए रखने वाले भी छायागीत से जुड़ने में संकोच नहीं करते।
बरसों से सुन रहे है छाया गीत रात में दस से साढे दस बजे तक विविध भारती से। मैनें तो बचपन से सुना। कई नाम गूँजने लगते है - बृजभूषण साहनी, राम सिंह पवार, विजय चौधरी, एम एल गौड़, चन्द्र भारद्वाज, कान्ता गुप्ता, अनुराधा शर्मा, मोना ठाकुर और भी नाम है। एक नाम ऐसा भी है जिनके कार्यक्रम तो बहुत कम हुए पर बहुत ही स्तरीय हुए - डा अचला नागर। कभी-कभार अन्य केन्द्रों के उदघोषकों के भी छायागीत सुनवाए जाते। इसी क्रम में हैदराबाद से अशफ़ां जबीं के कार्यक्रम भी सुने।
उदघोषकों के नाम तो बदलते गए पर कार्यक्रम की प्रस्तुति का स्वरूप नहीं बदला। कभी यादों का सिलसिला तो कभी मौसम का लुत्फ़ तो कभी ज़िन्दगी के अलग-अलग रंग।
पिछली बार रेणु (बंसल) जी ने कम चर्चित कलाकारों पर फ़िल्माए गए गीत सुनवाए जैसे हमराही - कलाकार जमुना, प्रोफ़ेसर - कल्पना पर इस श्रृंखला में मीनाकुमारी का नाम खटकने लगा। ख़ैर… जब हम प्रोफ़ेसर का गीत सुन रहे थे तो हमें याद आए बहुत पहले सुने हुए छाया गीत जिसमें एक बार ऐसे युगल गीत सुनवाए गए थे जिनमें युगल स्वर गायिकाओं के थे और शुरूवात प्रोफ़ेसर के इस गीत से हुई थी - हमरे गाँव कोई आएगा। इसी तरह एक बार केवल ग़ज़लें सुनवाई गई और एक बार शास्त्रीय संगीत का पुट लिए गीत।
बहरहाल किसी विषय पर उदघोषक की भावनाएँ हो या फ़िल्मी गीतों की कोई श्रेणी हो, गीत और प्रस्तुति में अच्छा ही होता है छाया गीत।
Wednesday, July 30, 2008
बीतता जुलाई महीना, फिल्मों की बरसात और सावन के बादलो......
भारत में सवाक फिल्मों की शुरूआत हुई १९३१ में जब आर्देशिर इरानी ने १४ मार्च १९३१ को अपनी पहली बोलती फ़िल्म प्रदर्शित की " आलमआरा".
.......
लगभग 20 मिनट के इस पूरे कार्यक्रम को प्रस्तुतकर्ता ने बड़े ही रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया. पुराने गीतों से लेकर आज तक की फिल्मों के गाने भी सुनवाए गए. अभी चूँकि सावन का महीना चल रहा है सो कार्यक्रम का आगाज़ ही किया गया था सावन के एक अत्यन्त पुराने पर मोहक गीत से.
सावन के इस गीत को फ़िल्म " रतन" से लिया गया है. गायक कलाकार है जोहराबाई अम्बालेवाली और करण दीवान. शब्दकार हैं डी एन मधोक तथा संगीत से संवारा है नौशाद साहब ने. यूं तो इस गाने कों मैं किसी म्यूजिक प्लेयर पर रखना चाह रहा था पर उपलब्ध नहीं होने के कारण मैं इसे इसके विडियो कों आपके लिए लेकर आया हूँ. तो आनंद उठाएं सावन के इस सुरीले गीत का.
Tuesday, July 29, 2008
यादों का थमता सिलसिला और नई शुरूवात का ऐलान
यादों के अलावा कई कार्यक्रम ऐसे भी रहे जिन्हें सुनने के बाद मैं अपने आपको रोक नहीं पाई और उस कार्यक्रम के बारे में लिख दिया जिसे आप कार्यक्रमों का विवेचन कहे या विश्लेषण। इसमें संगीत सरिता जैसे नियमित कार्यक्रम भी शामिल रहे और जुबली झंकार जैसे कार्यक्रमों की भी चर्चा हुई।
यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा लेकिन एक-एक कार्यक्रम के बारे में अलग-अलग चिट्ठे नहीं क्योंकि होता यह है कि जब हम एक कार्यक्रम के बारे में लिखते है तब उसी दिन या आस-पास होने वाले कुछ कार्यक्रमों के बारे में नहीं लिख पाते। अगर कुछ समय बाद चिट्ठा लिखा जाए तो वो मज़ा नहीं रह जाता क्योंकि कार्यक्रम होने के बाद कुछ लिखना साँप जाने के बाद लकीर पीटने जैसा लगता है। इसीलिए मैनें सोचा कि क्यों न सभी कार्यक्रमों को मिलाकर लिखा जाए ?
वैसे भी यादों का सिलसिला अब थमने को है। लगभग साल भर हो रहा है यादों को बाँटते पर अब भी कुछ चिट्ठे यादों के झरोखे से निकलेंगे और कुछ कार्यक्रम ऐसे भी है जिनके बारे में अलग से लिखना ही मुझे अच्छा लगेगा। तो आगे क्यों न इस रवानगी को एक नया मोड़ दिया जाए ?
एक ऐसा मोड़ जिसमें सभी कार्यक्रमों की बात हो जाए। यही सोच कर मैनें एक ऐसा सिलसिला शुरू करने की सोची है जिसमें सप्ताह भर प्रसारित कार्यक्रमों की चर्चा एक ही चिट्ठे में हो जाए। जी हाँ - साप्ताहिकी शीर्षक से इसकी शुरूवात करना सोच रही हूँ और वो भी शुक्रवार को…
Thursday, July 24, 2008
आराधना के रूप
आमतौर पर भक्ति गीतों के प्रसारण का समय सुबह ही होता है पर विविध भारती पर पहले शाम के समय सांध्य गीत कार्यक्रम में पन्द्रह मिनट के लिए फ़िल्मों से लिए गए भक्ति गीत प्रसारित होते थे। बहुत साल हुआ यह कार्यक्रम बन्द हो गया और जिसके बाद से ही हैदराबाद में ऐसा कार्यक्रम सुनने को नहीं मिला। हाँ… कभी-कभार इधर-उधर कुछ कार्यक्रमों में फ़िल्मी भक्ति गीत सुनवाए जाते है। लेकिन नियमित शाम में भक्ति गीत सुनना और फ़िल्मी भक्ति गीत सुनना दोनों ही हैदराबाद में बरसों से बन्द है।
तो यह था आराधना का एक रूप जहाँ फ़िल्मों से लिए गए भक्ति गीत प्रसारित होते थे। दूसरे रूप में वो भक्ति गीत आते है जिन्हें किसी कवि ने रचा है। यह कवि कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, रसख़ान, रहीम भी है और कुछ ऐसे कवि भी जो भक्त कवियों के रूप में लोकप्रिय तो नहीं पर इनकी रचनाएँ अच्छी होती है। यही भक्ति गीत हम नियमित सवेरे छह से साढे छह बजे तक सुनते है। कार्यक्रम है - वन्दनवार।
वन्दनवार के बाद हैदराबाद में क्षेत्रीय कार्यक्रम में साढे छह बजे से सात बजे तक अर्चना कार्यक्रम में ऐसे ही तेलुगु भक्ति गीत सुनने को मिलते है जिनमें भक्त कवि अन्नमाचार्य की रचनाएँ बहुत लोकप्रिय है विशेषकर गायिका शोभा राजु की आवाज़ में जिसमें शास्त्रीय पुट है जैसे -
ब्रह्मम ओकटे
भला तनदनाना भला तनदनाना
यहाँ ओकटे का अर्थ है एक। ब्रह्मम यानि ईश्वर। ईश्वर एक है और भला तनदनाना रिदम है। और एक गीत है -
इदिगो अल्लदिगो श्री हरिदासमु
अर्थ है देखो वो देखो श्री हरिदास और आगे ईश्वर का बख़ान है। यह भक्त कवि हरिदास की रचना है।
अर्चना कार्यक्रम में इस तरह के भक्ति गीतों के अलावा आराधना का एक और रूप या तीसरा रूप सुनने को मिलता है। जैसे आज सुबह सुना श्री साईं चरित जिसमें साईं बाबा की महिमा गाई गई इसी तरह हनुमान चालिसा दुर्गा स्तुति आदि सुनवाए जाते है। अनुराधा पौड़वाल की तेलुगु में गाई शिव स्तुति भी सुनवाई जाती है। इसके अलावा बाईबिल के गीत भी प्रसारित होते है। कहने का मतलब ये कि किसी कवि द्वारा लिखित भक्ति रचनाओं के बजाए सीधे धार्मिक ग्रन्थों से ली गई भक्ति रचनाएँ भी सुनवाई जाती है।
यह तो बात हुई विविध भारती की अब एक नज़र आकाशवाणी हैदराबाद के क्षेत्रीय कार्यक्रम पर। हैदराबाद बी चैनल पर सुबह साढे छह बजे से आधे घण्टे के लिए कार्यक्रम होता है - ईश्वर अल्ला तेरो नाम जिसमें एक भजन, एक नाद या सूफ़ी क़व्वाली, एक शबद और बाइबिल के गीत शामिल होते है। एस तरह यह भक्ति संगीत का कार्यक्रम विविधता लिए होता है।
भारत में प्रसारण के 81 वर्ष पूरे और रेडियोनामा का एक जरूरी ऐलान
तेईस जुलाई का दिन भारत में रेडियो प्रसारण के इतिहास का मील का पत्थर रहा है ।
तेईस जुलाई 1927 को भारत के पहले रेडियो स्टेशन का उदघाटन हुआ था । जी हां मुंबई रेडियो स्टेशन का आग़ाज इसी दिन लॉर्ड इरविन ने किया था । उन दिनों रेडियो इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी की मिल्कियत हुआ करता था ।
कल आकाशवाणी के मुंबई केंद्र ने अपनी स्थापना के 81 वर्ष पूरे किये ।
इसका मतलब ये है कि भारत में संगठित प्रसारण के 81 वर्ष पूरे हो गये हैं । रेडियो के सभी जुनूनियों के लिए ये दिन वाक़ई गर्व और हर्ष भरा है ।
रेडियोनामा पर आज मैं एक महत्त्वपूर्ण ऐलान करने आया हूं ।
भारत में प्रसारण के इतिहास पर हिंदी में इंटरनेट पर सटीक जानकारी का अभाव है । कल यूं ही बातों बातों में मैंने अपने वरिष्ठ साथी कमल शर्मा को इस बात के लिए राज़ी कर लिया है कि वो रेडियोनामा पर अपना साप्ताहिक स्तंभ आरंभ करेंगे । ये स्तंभ भारत में प्रसारण के इतिहास पर केंद्रित होगा । कैसे भारत में रेडियो का युग शुरू हुआ, आकाशवाणी की संकेत-धुन किसने बनाई । कौन कौन से महत्त्वपूर्ण केंद्र खुले । तमाम बातें इस स्तंभ के जरिए आप तक पहुंचेंगी । जैसा कि आपको बताया लिखवार होंगे कमल शर्मा और छापाकार होगा आपका ये
दोस्त ।
सोचा तो ये गया है कि कमल शर्मा का ये स्तंभ हर रविवार को आपके सामने पहुंचे ।
कमल जी की तैयारियां जारी हैं । प्रसारण के इतिहास को लेकर लगातार लिखना और शोध करना मशक्कत का काम है । रेडियोनामा को लगातार सार्थक और उपयोगी बनाने की दिशा में ये एक महत्त्वपूर्ण क़दम होगा ।
इस पोस्ट में दिया गया कैरिकेचर हमारे मित्र निर्मिष ठाकर ने बनाया है ।
Wednesday, July 23, 2008
नहीं रहीं मशहूर कृति 'आलमपनाह' की लेखिका रफिया मंजूरूल अमीन
रफिया मंजूरूल अमीन 1930-2008
कल रेडियोनामा पर अन्नपूर्णा जी ने नाट्यतरंग का जिक्र किया और अनायास हमें याद आ गयीं रफिया मंजूरूल अमीन । अंदाज़न साल 1997-98 की बात रही होगी । विविध-भारती पर नाट्यतरंग के अंतर्गत कुछ नये सीरियलों का आगमन हुआ । इनमें से ज्यादातर साहित्यिक-कृतियों पर आधारित थे । तब आलमपनाह का प्रसारण भी हुआ था । बहुत मुमकिन है कि हैदराबाद की किसी ऐजेन्सी ने इसका निर्माण किया हो । इस रेडियो-धारावाहिक की शुरूआत एक व्यक्ति के गाने से होती थी । उनके गाने में शायद बोल नहीं थे । बस एक ही लफ्ज़ था--'हैदराबाद' । जिसे वो अलग-अलग अंदाज़ में गाते थे । 'आलमपनाह' को जिस दकनी हिंदी में पेश किया गया था, वो बेमिसाल था । उन दिनों मैं रेडियोसखी ममता सिंह के साथ फोन-इन कार्यक्रम 'आपके अनुरोध पर' करता था । जिसका उद्देश्य था विविध-भारती से प्रसारित 'स्पोकन वर्ड्स' यानी बोले हुए शब्दों के कार्यक्रमों के अंश श्रोताओं की फरमाईश पर दोबारा प्रसारित करना । यकीन मानिए आलमपनाह की लोकप्रियता का वो आलम था कि लगभग हर सप्ताह हमें आलमपनाह के किसी एपीसोड से एक पूरी घटना निकालकर प्रसारित करनी पड़ती थी । और लोगों का जी उसे सुनते हुए कभी नहीं भरता था ।
'आलमपनाह' के बारे में एक बात आपको और बतानी है । रेडियो पर इस कृति का रूपांतरण जितना लोकप्रिय हुआ उतना ही लोकप्रिय हुआ था इसका टी.वी. रूपांतरण । आपको टी.वी.सीरियल 'फरमान' याद है । दूरदर्शन के ज़माने में राजा बुंदेला अभिनीत इस सीरियल की लोकप्रियता वाक़ई देखने लायक़ थी । आज भी लोग इस धारावाहिक को याद करते हैं । दिलचस्प बात ये है कि ये उन सीरियलों में से था जिसमें आज के सीरियलों की तरह 'मेलोड्रामा' का फूहड़ छौंक नहीं था । इनमें एक ठोस कथा थी और वो आगे भी बढ़ती थी ।
रफिया आपा के बारे में कल खोजबीन कर रहा था कि इस ब्लॉग पर एक ख़बर ऐसी मिली जिससे जी धक रह गया, तीस जून 2008 को रफिया मंजूरूल अमीन का हैदराबाद में देहांत हो गया । वो अठहत्तर साल की थीं । रफिया मंजूरूल अमीन का पहला उपन्यास था 'सारे जहां का दर्द' । जो कश्मीर की पृष्ठभूमि पर लिखा गया था और इसे लखनऊ के नसीम अनहोन्वी के प्रकाशन ने छापा था । उनका दूसरा उपन्यास था--'ये रास्ते' और इसके बाद आया 'आलमपनाह' । रफिया आपा ने दो सौ से ज्यादा अफ़साने( कहानियां) लिखे हैं । चूंकि वो विज्ञान की छात्रा थीं इसलिए उन्होंने एक विज्ञान-पुस्तक लिखी--'साइंसी ज़ाविये' । जो नागपुर में उर्दू स्कूलों के पाठ्यक्रम में शामिल हुई । रफिया आपा सन 1930 में पैदा हुई थीं और उन्होंने तीस जून को अपनी आखिरी सांस ली ।
मुझे याद है कि मुंबई से अपने शहर जबलपुर की यात्रा के दौरान खंडवा स्टेशन के बुक स्टॉल पर 'आलमपनाह' का हिंदी संस्करण दिख गया था । अपने संग्रह से इस पुस्तक को खोजकर निकाला तो पाया कि इस पर मेरे हस्ताक्षर के साथ 19 अप्रैल 1998 की तारीख़ पड़ी है । और स्थान भी खंडवा लिखा है । इसे हिंद पॉकेट बुक्स ने छापा है । अगर ये संस्करण बचा है या अगला संस्करण आया है तो आपको उपलब्ध हो सकता है । ISBN कोड है 81-216-0312-9 ।
रफिया आपा ने सिर्फ लिखा ही नहीं बल्कि चित्र और शिल्पकला में भी वो माहिर थीं ।
रेडियोनामा परिवार रफिया आपा को भावभीनी श्रद्धांजली अर्पित करता है ।
Tuesday, July 22, 2008
नाट्य तरंग
रेडियो के जिन कार्यक्रमों को तैयार करने में बहुत ज्यादा मेहनत लगती है वे है - रूपक और नाटक। विविध भारती पर पहले रूपक विशेष रूप से विशेष अवसरों पर बहुत प्रसारित होते थे। आकाशवाणी का तो रूपकों और नाटकों का राष्ट्रीय प्रसारण होता रहा। अब तो रूपक यहाँ तक की स्थानीय केन्द्रों से भी कम ही हो गए है पर नाटकों का प्रसारण अब भी है।
रूपक से अधिक दिलचस्पी आम आदमी की नाटकों में होती है शायद इसीलिए नाटकों का चलन कम नहीं हो पाता है। स्थानीय केन्द्रों से स्थानीय लेखकों के नाटकों का प्रसारण होता है तो वहीं विविध भारती पर ख्याती प्राप्त लेखकों के नाटक सुनने को मिलते है।
विविध भारती पर नाटक तो बहुत समय से प्रसारित हो रहे है पर जहाँ तक मेरी जानकारी है यह नाटक प्रहसनों और झलकियों के रूप में हवामहल, अपना घर जैसे कार्यक्रमों तक ही सीमित रहे और नाटक के रूप में तथा कहानियों के नाट्य रूपान्तर के रूप में भी हवामहल में प्रसारित होते रहे। इस तरह नाट्य तरंग कार्यक्रम हवामहल, जयमाला, संगीत सरिता की तरह पुराना कार्यक्रम शायद नहीं है।
नाट्य तरंग शनिवार और रविवार को दोपहर साढे तीन बजे से चार बजे तक प्रसारित होता है। इसमें हिन्दी के नाटकों के साथ-साथ हिन्दी के उपन्यासों का भी नाट्य रूपान्तर किया जाता है साथ ही नए पुराने सभी लेखकों को शामिल किया जाता है जैसे शिवानी के उपन्यास कृष्णकलि का रेडियो नाट्य रूपान्तर बहुत अच्छा रहा।
हिन्दी के अलावा अन्य भारतीय भाषाओं के नाटकों के हिन्दी अनुवाद और कहानियों उपन्यासों के हिन्दी रेडियो नाट्य रूपान्तर भी प्रसारित होते है। बंगला भाषा से विषेषकर रविन्द्रनाथ टैगोर और शरतचन्द्र तो पहले से ही शामिल रहे। बाद में उड़िया, मराठी, असामी जैसी भाषाओं का साहित्य भी शामिल हुआ अब तो दक्षिण भारतीय भाषाओं का साहित्य भी निरन्तर शामिल हो रहा है। पिछले दिनों मूल तमिल नाटक का हिन्दी अनुवाद आपकी बेटी शीर्षक से प्रसारित किया गया जिसके निर्देशक थे चिरंजीत।
यह एक अच्छा कार्यक्रम है जिसके द्वारा अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्य का भी हमें आनन्द मिलता है। कुछ साल पहले यह कार्यक्रम हैदराबाद में सुनने को नहीं मिल रहा था शायद इसका प्रसारण सीमित क्षेत्र तक ही था। आशा है आगे भी यह कार्यक्रम जारी रहेगा और देश के अधिकांश भागों में सुनने को मिलेगा।
Saturday, July 19, 2008
अपने बागबाँ को तलाशता एक फलदार वृक्ष....
रेडियो के इसी विस्तृत मंच को अनेक लोगों तक पहुंचाने के लिए, कुछ उनकी सुनने कुछ अपनी कहने के लिए हमारे दो संगीत प्रेमी और रेडियो से जुड़े चिट्ठाकारों, यूनुस खान और सागर चन्द नाहर ने शुरुआत की थी उस चिट्ठे की जिसका नाम आज चिट्ठाकारों के बीच जाना पहचाना है - "रेडियोनामा"। कहने की जरूरत नहीं कि इस एक चिट्ठे ने रेडियोप्रेमी चिट्ठाकारों के बीच कितनी गहरी पैठ बनाई है.
आज रेडियोनामा के सदस्यों में एक और जहाँ रेडियो ब्राडकास्टिंग से जुड़े आवाजों के धनी उदघोषक जैसे यूनुस जी, संजय पटेल जी, इरफान जी हैं तो दूसरी और पीयूष जी जैसे वरिष्ठ श्रोता जो न जाने रेडियो से जुड़े कितने महान हस्तियों से अब तक मिल चुके हैं। इन सबसे इतर लावण्या जी को हम कैसे भूल सकते हैं जिनकी तो मानो बहन ही है हमारी आपकी विविध भारती. आख़िर विविध भारती के जनक स्व. पं. नरेन्द्र शर्मा उनके भी तो जनक हैं. हिन्दी चिट्ठाकार जगत के जाने कितने जाने पहचाने नाम आज रेडियोनामा के सहयोगी सदस्यों के रूप में इससे जुड़े हैं. सबने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है इस रेडियोनामा को सींचने में, इसे पुष्पित पल्लवित करने में. तभी तो दो जनों द्वारा रोपा गया यह पौधा आज इतना बड़ा हो चुका कि आप इसके 301वें फल को भी चख चुके।
जी हाँ दोस्तों अब तक हमारे सदस्यों द्वारा 301 पोस्ट रेडियोनामा पर डाले जा चुके हैं अर्थात त्रिशतकीय साझेदारी हो चुकी है और यह अभी भी अनवरत जारी रहेगी बशर्ते.........
मैं लगभग दो महीने से ब्लॉग जगत से लगभग अलग थलग रहा। कारण बहुत से हैं, एक मुख्य कारण यह भी था कि मेरा कंप्यूटर ख़राब पड़ा है और अब तक सर्विस सेंटर से आया नहीं है. पर इन अलगाव के दिनों में भी मैं कुछ ब्लॉग पढ़ता रहा और कुछ पर अपनी टिप्पणियाँ भी भेजता रहा. चूंकि मैं भी रेडियोनामा से जुड़ा हूँ तो उसकी खोज ख़बर लेना भी जरूरी था. यहीं मैंने एक बात नोटिस की जो आप सभी लोगों तक पहुँचाना चाह रहा हूँ. रेडियोनामा के सदस्य इसे कृपया अन्यथा नहीं लेंगे।
रेडियोनामा के हमारे चिट्ठाकार साथी आज के हिन्दी चिट्ठाकार जगत के जाने माने नाम हैं। ब्लॉग लेखन के जिन जिन क्षेत्रों से वो जुड़े हुए हैं उसमें काफी अच्छा और नियमित लिख रहे हैं और भरपूर वाहवाही भी वो पा रहे हैं. भगवान करे अपने काम में वो और ऊँचाई पर पहुँचें. अपने अपने चिट्ठों में कभी कभार उन्होंने रेडियो का भी जिक्र किया, जिसे देखकर हमारी तकनीकी टीम ने उन्हें रेडियोनामा से जुड़ने का न्योता दिया और वो जुड़ भी गए. एक दो अच्छी पोस्ट्स उन्होंने रेडियोनामा पर लगा भी दीं. बहुत सारी टिप्पणियाँ भी पा ली. इसके बाद वो रुखसत हुए ये कह कर कि अब जब शुरुआत हो गयी है तो नियमित आता रहूँगा. वो दिन और आज का दिन है, रेडियोनामा उनके आने के हर राह पर टकटकी लगाए खड़ा है इस आस में कि चलो इतने व्यस्त समय में कभी तो मेरे लिए भी वो समय निकाल ही लेंगे।
इस ब्लॉग जगत में कहा यह जाता है कि टिप्पणियाँ पोस्ट लिखने वाले के लिए टॉनिक का काम करती हैं, यूँ तो कोई यह भी कहते हैं कि कर्म करते जाओ फल की चिंता क्यूँ करते हो। पर क्या ये जरूरी नहीं कि कम से कम हम जिस ब्लॉग से जुड़े हैं उसमें अपना योगदान नहीं कर रहे तो एक आध टिप्पणी ही सरका दें. कुछ नहीं तो समीर जी की तरह ही सही. कभी तो आपका ध्यान पोस्ट में चल रहे चिंतन की ओर जायेगा और कुछ सार्थक टिप्पणियाँ भी आपकी लेखनी से निकल ही जायेंगी।
रेडियोनामा को आगे बढ़ाने में जितना हाथ अन्नपूर्णा जी का और पीयूष जी का है, मैं नहीं समझता कि और किसी का है। जब भी अन्नपूर्णा जी नें सौवीं, डेढ़ सौवीं या दो सौवीं पोस्ट लिखी तो हमने सिर्फ़ यह कह कर किनारा कर लिया कि आपसे ही रेडियोनामा रौशन है या आप लिखती रहिये. अरे वो तो लिखती ही रहेंगी, संजय पटेल जी की यदि 300 वीं पोस्ट नहीं आयी होती तो हम फिर एक बार उन्हें उसी तरह बधाई दे रहे होते, आख़िर तीन सौ एकवीं पोस्ट उन्हीं की तो है. क्या हम उन के पोस्ट पर टिप्पणी भी नहीं हर सकते, क्या हमें उनकी हौसला आफजायी नहीं करनी चाहिए।
हमारे जितने भी सदस्य हैं सभी के अपने अलग ब्लॉग हैं, पर अन्नपूर्णा जी और पीयूष जी के लिए तो अपना रेडियोनामा ही सब कुछ है. क्या वे इतने के हकदार नहीं हैं कि आप दो लफ्ज वहाँ नहीं कह सकें?
पिटारे में खिचड़ी
आज के चिट्ठे में हम चर्चा करेगें कार्यक्रम पिटारा की। शुक्रवार का पिटारा जिसका शीर्षक है पिटारे में पिटारा पर हम तो कहेगें पिटारे में खिचड़ी। विविध भारती का यह कार्यक्रम वैसे शीर्षक की तरह भानुमति का पिटारा ही है पर शुक्रवार को दूसरी कहावत भी पूरी हो जाती है - कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा भानुमति ने कुनबा जोड़ा।
समझ में नहीं आता कि भानुमति को इस तरह का कुनबा जोड़ने की ज़रूरत ही क्या है ? शुक्रवार का पिटारा वाकई समझ से परे है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इसमें प्रसारित होने वाले कार्यक्रम बेतुके है। हमारा कहने का मतलब है इन अच्छे कार्यक्रमों की इस तरह से खिचड़ी प्रस्तुति क्यों की जाती है ?
अब कल ही का कार्यक्रम ले लीजिए, संगीतकार जोड़ी साजिद-वाजिद के वाजिद से ममता (सिंह) जी की बातचीत। बहुत ही सरस रही बातचीत साथ ही गानों में भी मज़ा आया चाहे वो पार्टनर के गाने हो या सोनी के नख़रे पर यह कार्यक्रम शुक्रवार को पिटारे में पिटारा में क्यों ? क्या वाजिद साहब बुधवार को आज के मेहमान बन कर नहीं आ सकते ? मुझे नहीं लगता कि वाजिद साहब को कोई एतेराज़ होगा।
इसी तरह से ममता जी ने पहले गीतकार प्रशान्त जी से भी बातचीत की थी और चर्चा हुई थी चमेली और जब वी मेट फ़िल्मों के गानों की भी। अगर नई फ़िल्मों की वजह से ही यह कार्यक्रम शुक्रवार को प्रसारित हुए तब भी बड़ी अजीब बात लगती है कि नए कलाकार आज के मेहमान क्यों नहीं हो सकते ?
बात सिर्फ़ यहीं तक नहीं है यानि सिर्फ़ इसी तरह के कार्यक्रम ही इसमें नहीं होते बल्कि दूसरी तरह के कार्यक्रम भी इसमें होते है जैसे पिछले शुक्रवार को कार्यक्रम था - चूल्हा-चौका। लगभग दस-ग्यारह साल पहले पिटारा कार्यक्रम में कुछ अलग विषय के कार्यक्रम भी थे जिनमें से एक था सोलह सिंगार जो शायद रेणु (बंसल) जी प्रस्तुत करती थी और एक कार्यक्रम था चूल्हा-चौका। नामों से समझा जा सकता है कि किस तरह के कार्यक्रम थे।
शायद इसी पुराने कार्यक्रम की रिकार्डिंग पिछले सप्ताह प्रसारित हुई जिसे प्रस्तुत कर रही थी आशा साहनी और अतिथि थे शान्ता नन्दा, आरती जी जो गायिका है जिनका पूरा नाम और एक और अतिथि का नाम मैं भूल रही हूँ। इसमें विभिन्न प्रकार के नाश्ते बनाना बताया गया इस कार्यक्रम का भाग सोमवार की सखि-सहेली में भी प्रस्तुत किया जा सकता है।
ऐसा भी नहीं है कि हर शुक्रवार अच्छा नहीं लगता। अच्छा लगा जब कांचन (प्रकाश संगीत) जी की संगीत नाटिका - दुल्हिन की शादी में दूल्हा बाराती सुनने को मिला। बाइस्कोप की बातें इस दिन हमेशा से ही अच्छी लगी। इन अच्छे कार्यक्रमों के साथ अगर फ़िल्मों गीतों की अलग-अलग तरह से प्रस्तुति की जाएगी तो ज्यादा अच्छा लगेगा जिसमें कुछ पुरानी प्रस्तुतियाँ है जो अब बन्द हो गई है जैसे एक ही कलाकार, एक और अनेक, साज़ और आवाज़ और भी कई तरह की प्रस्तुतियाँ हो सकती है।
तो बस आवश्यकता है शुक्रवार के पिटारा को दुबारा व्यवस्थित करने की फिर पिटारा हर रोज़ अच्छा लगेगा।
संगीत सरिता पर गूँज रहा है पटियाला घराने का सबरंग
श्रेष्ठ माध्यम है. बरसों से कई शास्त्रीय संगीतप्रेमी सुबह साढ़े सात बजे
अपने रेडियो सैट से सट जाते हैं.इस कार्यक्रम की सबसे बड़ी ताक़त
यह है कि कभी भी यह किसी तरह मोनोटनी नहीं परोसता.कभी
ख़याल गायकी के रंग हैं तो कभी ठुमरी के.कभी मौसमी रागों की
बात है तो कभी किसी वाद्य के बारे में विस्तार से जानकारी.साथ ही फ़िल्म
संगीत में यदि प्रस्तुत किये गये राग पर आधारित कोई गीत उपलब्ध
है उसे कार्यक्रम के अंत में लगभग सभी प्रस्तुतियों में सुनाया जाता है.
इससे वे श्रोता भी संगीत सरिता और शास्त्रीय संगीत की ओर आकृष्ट
होते हैं जो पूरी तरह् से भारतीय संगीत के शास्त्र से वाकिफ़ नहीं.
आइये अब इस पोस्ट के मकसद की ओर......
आज से दो तीन दिन पूर्व पटियाला घराने के मूर्धन्य गायक उस्ताद बड़े
ग़ुलाम अली खाँ साहब की गायकी पर एकाग्र कार्यक्रम गायकी में सबरंग
का प्रसारण प्रारंभ हुआ है. इसकी प्रस्तोता हैं सुश्री छाया गांगुली.1995 में
पहली बार प्रसारित हुए इस कार्यक्रम में ख़ाँ साहब की गायकी पर प्रकाश
डाला है उस्ताद जी की गायकी के अग्रणी प्रस्तोता पं.अजय चक्रवर्ती ने.
अजयजी से बातचीत की है वरिष्ठ प्रसारणकर्ता मरहूम क़ब्बन मिर्ज़ा साहब ने.
शुरूआत में ख़याल गायकी के बारे में बताया गया और राग भूपाली में
निबध्द रचनाएँ सुनाईं गईं जो ख़ाँ साहब ने किसी प्रायवेट महफ़िल में
गाईं थीं.अभी बहुत सी कड़िया प्रसारित होना शेष हैं ज़रूर सुनें गायकी में सबरंग.
ये भी बता दें कि सबरंग उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का तख़ल्लुस यानी
उपनाम था और सबरंग नाम से ही उस्ताद जी ने कई सुमधुर बंदिशे रचीं.
Thursday, July 17, 2008
भेंट वार्ता
स्थानीय दोनों केन्द्र आकाशवाणी और दूरदर्शन से अब भी ऐसे कार्यक्रमों को अधिकतर भेंटवार्ता ही कहा जाता है पर कहीं-कहीं कुछ अलग नाम भी है जैसे एक मुलाक़ात, इनसे मिलिए, हमारे मेहमान, आज के मेहमान, कुछ पल … के साथ आदि।
विविध भारती पर ऐसे दो कार्यक्रम प्रसारित होते है। एक कार्यक्रम छोटा सा है, पन्द्रह मिनट का - इनसे मिलिए जिसे मैं बहुत सालों से सुनती आ रही हूँ और दूसरा ऐसा ही कार्यक्रम है जो एक घण्टे का है - आज के मेहमान जो कुछ ही सालों से शुरू हुआ है।
इनसे मिलिए शीर्षक बहुत सालों से चलन में है इसीलिए अच्छा ही लगता है वैसे ध्यान दें तो शीर्षक अटपटा सा लगता है ऐसे जैसे कह रहे हो ये जो बैठे है इनसे मिलिए या इनसे मिल ही लीजिए बैठे है जो यहाँ ख़ैर… आज के मेहमान शीर्षक से लगता है रोज़ कुछ न कुछ कार्यक्रम किया जाना है आज के कार्यक्रम में मेहमान को बुला लेना है लो बस आ गए मेहमान, आज यह है कल कोई और मेहमान होगा, बस… मेहमान के लिए प्यार, दुलार, स्नेह कुछ नहीं बस ड्यूटी ही ड्यूटी है ख़ैर…
वैसे कार्यक्रम दोनों अच्छे है। बहुत ही रोचक और विविधता लिए है। जिस भी क्षेत्र का व्यक्ति हो उस क्षेत्र के बारे में उनके काम के बारे में उनके जीवन के बारे में अधिकांश जानकारी मिल जाती है। इनसे मिलिए पन्द्रह मिनट का होता है पर समय की कमी नहीं खलती क्योंकि पूरी बातचीत पन्द्रह मिनट में सिमट जाती है। आज के मेहमान कार्यक्रम पिटारा के अंतर्गत होने से एक घण्टे का होता है जिससे बातचीत में थोड़ा विस्तार आ जाता है और बीच-बीच में मेहमान की पसन्द के गाने भी बजते है।
एक बात ज़रूर खलती है दोनों कार्यक्रम बुधवार को ही प्रसारित होते है। तीन से चार आज के मेहमान में एक व्यक्ति से मिलने के साढे तीन घण्टे के बाद ही जयमाला के बाद प्रसारित होता है इनसे मिलिए कार्यक्रम जिससे कार्यक्रमों की विविधता कहें या मूड कहे बदलता नहीं है। इनसे मिलिए तो बरसो से बुधवार को ही सुनते है आज के मेहमान रोज़ प्रसारित होने वाले पिटारा में किसी और दिन कर दीजिए, सिर्फ़ कार्यक्रमों की अदला-बदली ही तो करनी है।
इनसे मिलिए में फ़ौजियों से लेकर लेखक, कलाकार लगभग सभी क्षेत्रों के विशिष्ट व्यक्तियों से मुलाक़ात हो जाती है उसी तरह आज के मेहमान में भी विभिन्न क्षेत्रों से मेहमान आते है जैसे गीतकार और संवाद लेखक अशोक मिश्रा से निम्मी मिश्रा की बातचीत। धारावाहिकों के शुरूवाती दौर के संवाद लेखक जब केवल देश में दूरदर्शन ही था और वो भी श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक का धारावाहिक - भारत एक खोज के संवाद लेखक से मिलना अच्छा लगा जो अब भी कलात्मक फ़िल्मों से जुड़े है जैसे फ़िल्म नसीम जिसमें कैफ़ी आज़मी ने भी अभिनय किया था। बड़ी ही अच्छी थी फ़िल्म भी, धारावाहिक भी और अच्छी रही बातचीत इस लेखक से जो गीतकार भी है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय एनएसडी की यादों को बाँटना सुखद रहा।
एक अलग ही क्षेत्र लेकर आए कमल (शर्मा) जी महिला कबड्डी खिलाड़ी भारती उज्जवल के साथ और बातचीत में समेट लिया सभी पहलुओं को जिसमें स्कूल के दिनों से लेकर राष्ट्रीय पहचान हासिल करने तक सब कुछ था।
एक अलग ही पहलु को छुआ युनूस जी ने भारतीय तकनीकि संस्थान प्रमुख से बातचीत में जिसमें देश-विदेश के तकनीकी पहलु अपनी उपलब्धियों और ख़ामियों के साथ सिमट आए। आईआईटी के पुराने चित्र भी प्रस्तुत हुए और साफ़ हुआ नए पुराने का अंतर और विकास यात्रा, यही तो फ़ायदा होता है एक ऐसे प्रमुख से बात करने का जो अपने विद्यार्थी काल की भी बात करता है।
कल की कमल (शर्मा) जी की बातचीत बहुत ही रोचक थी। राजस्थानी संस्कृति की बहुत सी बातें जानी जैसे तब तक बेटा कुँवर जी ही रहेगा जब तक परिवार में पिताजी विराजमान हो। महारानी के पैर का क़िस्सा तो बहुत ही रोचक रहा। अख़बार में महारानी की फ़ोटो छपी जिसमें महारानी के पैर दिखने लगे फिर क्या था सारे के सारे अख़बार विमान से निकलवा कर खरीद लिए गए। यह गरिमा रही महिलाओं की और आज पैर तो छोड़िए बहुत कुछ दिखता और दिखाया जाता है।
कुछ मायनो में यह बातचीत मेरे लिए बहुत ही विशेष रही। धन्यवाद कमल जी का कि उन्होनें बातचीत को इस मोड़ तक समेटा कि उसमें यह गीत शामिल हो गया -
जिया हो जिया हो जिया कुछ बोल दो
अरे ओ दिल का परदा खोल दो
जब प्यार किसी से होता है
इस गीत से जुड़ी बातचीत मेरे लिए बहुत ख़ास रही।
Wednesday, July 16, 2008
रेडियो सिलोन के भूतपूर्व उद्धघोष श्री रिपुसूदन कूमार ऐलावादीजीसे साक्षात्कार
तो देखि़ये दो हिस्सोमें
भाग 1
भाग 2
पियुष महेता
सुरत
Tuesday, July 15, 2008
सेहतनामा
डाक्टर से मुलाक़ात के अलावा सेहतनामा में और कोई कार्यक्रम नहीं सुना गया। डाक्टर से मुलाक़ात कार्यक्रम दस से पन्द्रह मिनट का है जिसमें एलोपेथी, आयुर्वेदिक, यूनानी सभी विधाओं के डाक्टरों को बुलाया जाता है।
इस कार्यक्रम का एक ढाँचा है। मौसम के अनुसार विषय चुने जाते है। इस समय विषय रहेगा बरसात के मौसम में होने वाली आम बीमारियाँ या बच्चों की आम बीमारियाँ इस मौसम में या मलेरिया, वायरल बुख़ार आदि के बारे में। बातचीत का भी ढाँचा होता है जैसे बीमारी के लक्षण, इलाज जिसमें दवाई और घरेलू इलाज दोनों पर बात की जाती है फिर परहेज़ यानि क्या खाए और क्या न खाए फिर ख़ास बात यह कि यह बीमारी ही न हो इससे बचने के उपाय।
इस तरह हर छोटी-बड़ी बीमारी के बारे में जानकारी मिल जाती और बीमारी से बचने के उपाय और परहेज़ तथा घरेलू उपायों से हर बार डाक्टर के पास दौड़े बिना हम ख़ुद ही सेहत का ध्यान रख सकते है। जब मौसम की बीमारियों के बारे में बातचीत न हो तब अन्य बीमारियों के बारे में भी बातचीत की जाती इस तरह बहुत सी जानकारी इस छोटे पर नियमित प्रसारित कार्यक्रम में मिल जाती।
इसके बाद हमने दूसरा कार्यक्रम सुना विविध भारती पर प्रसारित होने वाला सेहतनामा जो एक घण्टे का कार्यक्रम है और हर सोमवार को तीन से चार बजे तक प्रसारित होता है। यह भी डाक्टर से मुलाक़ात कार्यक्रम है। इसमें किसी डाक्टर से बातचीत की जाती है। चूँकि कार्यक्रम एक घण्टे का है इसीलिए डाक्टर साहब की पसन्द के फ़िल्मी गीत भी बजते है। यह शायद विविध भारती का सेहत संबंधी पहला कार्यक्रम है। अगर इससे पहले भी कोई कार्यक्रम था तो इसकी जानकारी शायद पीयूष जी दे सके।
इस कार्यक्रम में कभी भी किसी भी रोग को लेकर बातचीत की जाती है जैसे कल रेणु (बंसल) जी ने बातचीत की डा जयंत आप्टे से जो मनोचिकित्सक है। इसका एक पहलू तो समझ में आया कि यह समय है युवा वर्ग के परीक्षा परिणामों और आगे की पढाई के लिए कोर्स चुनने का जिसमें हताशा निराशा स्वाभाविक है। पर कल एक बात पर मैनें ध्यान दिया कि मनोरोगों के बारे में एक ही बात बार-बार दोहराई जा रही थी कि फ़ोबिया हवाई यात्रा से होता है, लिफ़्ट से होता है, बच्चों को स्कूल जाने से होता है आदि लेकिन इसके निदान पर ज्यादा बात नहीं की गई।
कई बातें स्थायी और अस्थायी होती है उस पर भी चर्चा नहीं हुई जैसे बच्चा बचपन में स्कूल नहीं जाना चाहता पर उमर के साथ-साथ यह समस्या समाप्त हो जाती है। कुछ रोग स्थायी होते है जैसे अँधेरे से डरना इसके लिए कुछ घरेलू उपाय भी है जैसे कि हमने अपने जानने वालों में एक को देखा है उन्हें रोशनी में छत पर ले जाया जाता फिर लाइट बन्द कर दी जाती फिर साथ वाले उन्हें बताते कि देखो अभी तो हम यहाँ आए और यहाँ कुछ डरने वाली बात नहीं। ऐसे ही कई उपाय है। एक तनाव से ग्रसित महिला को हमने देखा उसे तनाव से कमज़ोरी भी बहुत हो गई थी। उसे बहुत अच्छा भोजन जिसमें मिठाई भी शामिल हो दिया जाता। नियमित इस भोजन से उसे अच्छी नींद आने लगती जिससे वह तनाव से दूर रहती। क्योंकि हर बार हम डाक्टर के पास तो नहीं दौड़ सकते और अधिक दवाइयाँ भी तो नहीं लेनी चाहिए।
एक कार्यक्रम में रेणु (बंसल) जी ने डा अनिश वी नावरे जी से दंत सुरक्षा पर बात की। एक कार्यक्रम में डा हेमा रानी से बात की गई बच्चों में ह्रदय रोग पर जो जन्मजात नहीं होते। यह बातचीत परिपूर्ण थी। इसमें विषाणु, रूमाटिक फ़ीवर, लक्षण, इलाज जिसमें दवा का नाम, पेनसिलिन के इंजेक्शन और उचित न होने पर दूसरे इंजेक्शन, इलाज का कोर्स सभी शामिल था।
अच्छा लगेगा कि मौसम या समय के अनुसार बातचीत हो और एक ढाँचे में हो।
Friday, July 11, 2008
मनोरंजन के साथ शिक्षा या शिक्षा के साथ मनोरंजन ?
पीयूष जी, क्या आप मुझे बता सकेगें कि सेहतनामा, वन्दन्वार और संगीत सरिता जैसे कार्यक्रम किस दृष्टि से मनोरंजक है ? सिर्फ़ इसमें गाने बजते है इसीलिए। मुझे नहीं लगता है कि सिर्फ़ गाने शामिल होने से ही कार्यक्रम मनोरंजन की श्रेणी में आ जाते है।
दूसरी बात मनोरंजन के साथ शिक्षा या शिक्षा के साथ मनोरंजन ? यूथ एक्सप्रेस, सखि-सहेली, आज के मेहमान जैसे कार्यक्रम आप ध्यान से सुनिए इनमें काम की बातें बताई जाती है, जानकारी दी जाती है जिसके साथ मनोरंजन के लिए गीत होते है। सखि-सहेली में तो गानों की फ़रमाइश के साथ पत्र में काम की बातें, सलाह मशवरा भी होता है साथ में बजते है फ़रमाइशी गीत। अगर मनोरंजन मुख्य है तो इन कार्यक्रमों को त्रिवेणी की तरह बनाया जा सकता है। कोई एक विषय ले लीजिए और उस पर अलग-अलग तरह से जानकारी दीजिए और सुनवाइए गीत जबकि यूथ एक्सप्रेस में तो वार्ताएं भी प्रसारित होती है।
अब तो सखि-सहेली में भी साहित्य को गंभीर रूप से शामिल करना शुरू कर दिया है। दो-चार दिन पहले मैनें पहली बार सुना सखि-सहेली में जयशंकर प्रसाद की कहानी पुरस्कार के बारे में कुछ-कुछ बताया गया और शेष सखियों को पत्र लिख कर बताने के लिए कहा गया, तो शुरू हो गई न एक और नई बात इस कार्यक्रम में।
इसी तरह से शुरूवात होती जाती है और कार्यक्रम का स्वरूप बदलता जाता है। यही तो हो रहा है पिछले कई सालों से कई कार्यक्रमों में और साथ-साथ कई नए कार्यक्रम भी शुरू हो रहे और ऐसे ही परिवर्तनों के साथ कार्यक्रम का स्वरूप ऐसा बदलता है कि जिसमें मनोरंजन कम महत्वपूर्ण और दूसरी बातें अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है। इसीलिए तो मैनें लिखा कि अब विविध भारती पूरी तरह से मनोरंजन सेवा नहीं रही तो अब भी यह क्यों कहा जा रहा है कि विविध भारती संपूर्ण मनोरंजन सेवा है।
शायद मेरा पिछला चिट्ठा ठीक से समझा नहीं गया या हो सकता है कि मेरे लिखने का ढंग ही कुछ ऐसा रहा कि ठीक से समझ में नहीं आया हो। ख़ैर… मुद्दा यह कि कार्यक्रमों का स्वरूप बहुत बदला है और यह बदलाव बहुत अच्छा है फिर अब क्यों इसे केवल मनोरंजन चैनल माना जाए। जब प्रस्तुतकर्ता इतनी मेहनत करते है कि मनोरंजन के अलावा श्रोताओं को बहुत सी जानकारी घर बैठे मिले तो फिर इसे केवल मनोरंजन चैनल क्यों माने ?
स्वर्ण जयन्ती के इस अवसर पर विविध भारती के वर्तमान स्वरूप को देखते हुए इसे सिर्फ़ मनोरंजन की सीमा में नहीं रखा जा सकता। विविध भारती जिस तरह से आगे बढ रही है उस तरह से कोई उचित नाम इस सेवा का होना ही चाहिए, ऐसा मेरा मानना है। अगर अब भी कोई शक हो तो इस पर बहस की जा सकती है…
Thursday, July 10, 2008
फिर भी विविध भारती मनोरंजन सेवा ही है ?
जहाँ तक मैनें सुना है पंचरंगी कार्यक्रम के पाँच रंगों में एक रंग शास्त्रीय संगीत का, एक रंग लोक संगीत का, एक रंग फ़िल्मी संगीत का, एक रंग सुगम संगीत का और एक रंग मनोरंजक कार्यक्रम जैसे हवामहल का था। यह जानकारी कहाँ तक सच है मैं नहीं जानती।
इसके बाद यह केन्द्र व्यावसायिक हो गया जिससे विविध भारती हो गई विज्ञापन प्रसारण सेवा और बन गई मनोरंजन सेवा। कार्यक्रमों का समय बढा, स्थानीय केन्द्रों से भी प्रसारण शुरू हुए साथ ही कार्यक्रमों में भी परिवर्तन आए।
कहना न होगा कि कार्यक्रमों के स्वरूप में हमेशा से ही परिवर्तन होते गए और बदलते-बदलते आज विविध भारती का एक नया ही रूप हमारी नज़र में है।
पहले अक्सर समाज में जब कार्यक्रमों की बात चलती थी तब विविध भारती के बारे में कहा जाता था - विविध भारती से तो बस चौबीस घण्टे प्यार मोहब्बत के गाने ही बजते रहते है।
विविध भारती का दूसरा नाम ही मनोरंजन था इसीलिए इसे मनोरंजन सेवा कहने में कोई आपत्ति नहीं थी। पर आज हम कार्यक्रमों पर नज़र डालते है तो मनोरंजन सेवा कहने में हिचकिचाहट होती है। हालांकि पहले भी कुछ कार्यक्रम ऐसे थे जिन्हें मनोरंजन की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता था जैसे वन्दनवार - भक्ति संगीत मनोरंजन नहीं है। संगीत सरिता जैसे कार्यक्रम मनोरंजन के लिए नहीं सुने जाते। लेकिन ऐसे कार्यक्रमों की संख्या कम थी और फ़िल्मी गीतों के कार्यक्रमों की संख्या अधिक थी इसीलिए मनोरंजन सेवा मान लिया गया।
पर आज तो कार्यक्रमों का एक अलग ही दौर है। सुबह से शुरूवात करते है। वन्दनवार मनोरंजन की श्रेणी में नहीं आता है। संगीत सरिता शिक्षाप्रद कार्यक्रम है। सेहतनामा कार्यक्रम से हमें जानकारी मिलती है और हैलो डाक्टर से तो सलाह मिलती है। आज के मेहमान और इनसे मिलिए जैसे कार्यक्रमों से हमें विशिष्ट व्यक्तियों और उनके काम का परिचय मिलता है।
इसी तरह यूथ एक्सप्रेस और सखि-सहेली युवाओं और महिलाओं के लिए सूचना परक कार्यक्रम है। लोक संगीत हमारी संस्कृति है। यह सभी कार्यक्रम मनोरंजन की श्रेणी में नहीं आते।
मनोरंजन के कार्यक्रम है - भूले-बिसरे गीत, त्रिवेणी, सुहाना सफ़र, हैलो फ़रमाइश, जयमाला, हवामहल, एक ही फ़िल्म से, छाया गीत, आपकी फ़रमाइश। क्या इन्हीं मुट्ठी भर कार्यक्रमों से विविध भारती का परिचय है ? नहीं ! नहीं !! नहीं !!!
फिर आज भी विविध भारती सेवा को सिर्फ़ मनोरंजन सेवा ही क्यों कहा जाता है ? क्या फिर से इसे पंचरंगी कार्यक्रम या किसी और नाम से सुशोभित नहीं किया जा सकता।
Wednesday, July 9, 2008
ये आकाशवाणी है ! अब आप देवकीनंदन पाण्डे से समाचार सुनिये
किसी ज़माने में रेडियो सेट से गूँजता ये स्वर घर-घर का जाना-पहचाना होता था। ये थे देवकीनंदन पाण्डे अपने ज़माने के जाने-माने समाचार वाचक। अपने जीवन काल में ही पाण्डेजी समाचार वाचन की एक संस्था बन गए थे। उनके समाचार पढ़ने का अंदाज़, उच्चारण की शुद्धता, स्वर की गंभीरता और गुरुता और प्रसंग अनुरूप उतार-चढ़ाव श्रोता को एक रोमांच की स्थिति में ले आता था। कानपुर में पैदा हुए देवकीनंदनजी के पिता शिवदत्त पाण्डे अपने क्षेत्र के जाने-माने डॉक्टर थे। बेहद रहम दिल और आधी रात को उठकर किसी भी मरीज़ के लिए मुफ़्त में इलाज करने को तत्पर। मूलरूप से पाण्डे परिवार कुमाऊँ का था। शायद यही वजह है कि पाण्डेजी के स्वर में एक पहाड़ी ख़नक सुनाई देती थी।
देवकीनंदन पाण्डेजी अपने स्कूली दिनों में कभी भी मेघावी छात्र नहीं रहे लेकिन वे कभी भी अपनी कक्षा में फेल नहीं हुए। घूमने-फिरने, नाटक करने और खेलकूद में उनकी गहन दिलचस्पी थी। पाठ्य पुस्तके उन्हें कभी भी रास नहीं आईं किंतु नाटक, उपन्यास, कहानियॉं, जीवन चरित्र और इतिहास की पुस्तकें उन्हें हमेशा से आकर्षित करती थीं। उनकी आरंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। अल्मोड़ा यानी हिमालय पर्वत श्रृंखलाओं के ऊपर बसा नगर । पाण्डेजी के पिता पुस्तकों के अनन्य प्रेमी थे। इस वजह से घर में किताबों का अच्छा ख़ासा संकलन थाजिससे पाण्डेजी को पठन-पाठन में दिलचस्पी होने लगी।
कॉलेज के ज़माने में अंग्रेज़ी अध्यापक विशंभर दत्त भट्ट देवकीनंदन पाण्डे पर अगाध स्नेह रखते थे। उन्होंने पहले-पहल पाण्डेजी की आवाज़ की विशिष्टता को पहचाना और सराहा। उन्होंने अपने इस छात्र को उसकी प्रतिभा का आभास करवाया। भट्टजी पाण्डेजी को रंगमंच के लिये प्रोत्साहित करने लगे। अलमोड़ा में पाण्डेजी ने कई दर्ज़न नाटकों में हिस्सा लिया इससे उनके आत्मविश्वास में मज़बूती आई।
४० के दशक में अल्मोड़ा जैसी छोटी जगह में केवल दो रेडियो थे। एक स्कूल के अध्यापक जोशीजी के घर और दूसरा एक व्यापारी शाहजी के घर। युवा देवकीनंदन पाण्डे को दूसरे महायुद्ध के समाचारों को सुनकर बहुत रोमांच होता। वे प्रतिदिन सारा काम छोड़कर समाचार सुनने जाते। उन दिनों जर्मनी रेडियो के दो प्रसारकों लॉर्ड हो हो और डॉ. फ़ारूक़ी का बड़ा नाम था। दोनों लाजवाब प्रसारणकर्ता थे। उनकी आवाज़ हमेशा पाण्डेजी के दिलो-दिमाग़ में छाई रही। सन् १९४१ में बी.ए. करने के लिए पाण्डेजी इलाहबाद चले आए जहॉं का विश्वविद्यालय पूरे देश में विख्यात था। १९४३ में पाण्डेजी ने लख़नऊ में एक सरकारी नौकरी कर ली और केज्युअल आर्टिस्ट के रूप में एनाउंसर और ड्रामा आर्टिस्ट हेतु उनका चयन रेडियो लखनऊ पर हो गया। इस स्टेशन पर उर्दू प्रसारणकर्ताओं का बोलबाला था। पाण्डेजी हमेशा मानते रहे कि इस विशिष्ट भाषा के अध्ययन और सही उच्चारण की बारीकियों का अभ्यास उन्हें रेडियो लखनऊ से ही मिला।मुझे यह लिखने में कोई झिझक नहीं है कि देवकीनंदन पाण्डे जैसे प्रसारणकर्ताओं की वजह से ही हिंदी को आकाशवाणी जैसे अंग्रेज़ी परिवेश में मान मिलना प्रांरभ हुआ.
देश के आज़ाद होते ही आकाशवाणी पर समाचार बुलेटिनों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। दिल्ली स्टेशन पर अच्छी आवाज़ें ढूंढ़ने की पहल हुई। देवकीनंदन पाण्डे ने डिस्क पर अपनी आवाज़ रेकार्ड करके भेजी। फ़रवरी १९४८ में समाचार वाचकों का चयन किया गया। उम्मीदवारों की संख्या थी तीन हज़ार और बिला शक देवकीनंदन पाण्डे का नाम सबसे ऊपर था। आकाशवाणी लखनऊ पर मिले उर्दू के अनुभव ने उन्हें हमेशा स्पष्ट समाचार वाचन में लाभ दिया। पाण्डेजी मानते थे कि निश्चित रूप से देश की भाषा हिन्दी है लेकिन वाचिक परंपरा में उर्दू के शब्दों के परहेज़ नहीं किया जाना चाहिए। हिन्दी-उर्दू की चाशनी सुनने वालों के कान में निश्चित ही रस घोलती है।
१९४८ में आकाशवाणी में हिन्दी समाचार प्रभाग की स्थापना हुई। इसमें आले हसन (जो कालांतर में बीबीसी उर्दू सेवा के विश्व विख्यात प्रसारणकर्ता माने गए) सुरेश अवस्थी, बृजेन्द्र, सईदा बानो और चॉंद कृष्ण कौल। लाज़मी था कि उस समय के समाचार वाचकों को हिन्दी-उर्दू दोनों आना ज़रूरी था। आले हसन का हिन्दी वाचन अद्भुत था। वे बहुत क़ाबिल अनाउंसर और न्यूज़ रीडर थे। शुरू में मूल समाचार अंग्रेज़ी में लिखे जाते थे जिसका अनुवाद वाचक को करना होता था। अशोक वाजपेयी, विनोद कश्यप और रामानुज प्रताप सिंह को भी अनुवाद करने के लिये मजबूर किया गया लेकिन काफ़ी जद्दोजहद के बाद उन्हें इस परेशानी से मुक्ति मिली और हिन्दी समाचार हिन्दी में ही लिखे जाने लगे। यहॉं ये भी उल्लेखनीय है कि मेल्विन डिमेलो और चक्रपाणी जैसे धुरंधर अंग्रेज़ी प्रसारणकर्ताओं से सामने जिन लोगों ने हिन्दी प्रसारण का लोहा मनवाया उसमे ंदेवकीनंदन पाण्डे की भूमिका को बिसराया नहीं जा सकता।
देवकीनंदन पाण्डे समाचार प्रसारण के समय घटनाक्रम से अपने आपको एकाकार कर लेते थे और यही वजह थी उनके पढ़ने का अंदाज़ करोड़ों श्रोताओं के दिल को छू जाता था। उनकी आवाज़ में एक जादुई स्पर्श था। कभी-कभी तो ऐसा लगता था कि पाण्डेजी के स्वर से रेडियो सेट थर्राने लगा है। आज जब टीवी चैनल्स की बाढ़ है और एफ़एम रेडियो स्टेशंस अपने अपने वाचाल प्रसारणों से जीवन को अतिक्रमित कर रहे हैं ऐसे में देवकीनंदन पाण्डे का स्मरण एक रूहानी एहसास से गुज़रना है। तकनीक के अभाव में सिर्फ़ आवाज़ के बूते पर अपने आपको पूरे देश में एक घरेलू नाम बन जाने का करिश्मा पाण्डेजी ने किया। सरदार पटेल, लियाक़त अली ख़ान, मौलाना आज़ाद, गोविन्द वल्लभ पंत, पं. जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निधन का समाचार पाण्डेजी के स्वर में ही पूरे देश में पहुँचा। संजय गॉंधी के आकस्मिक निधन का समाचार वाचन करने के लिये सेवानिवृत्त हो चुके पाण्डेजी को विशेष रूप से आकाशवाणी के दिल्ली स्टेशन पर आमंत्रित किया गया।
देवकीनंदन पाण्डे को वॉइस ऑफ़ अमेरिका जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रसारण संस्था से अपने यहॉं काम करने का ऑफ़र मिला लेकिन देश प्रेम ने उन्हें ऐसा करने से रोका। पाण्डेजी को अपनी शख़्सियत की लोकप्रियता का अंदाज़ उस दिन लगा जब श्रीमती इन्दिरा गॉंधी ने एक बार आकाशवाणी के स्टॉफ़ आर्टिस्टों को उनकी समस्या सुनने के लिये अपने निवास पर आमंत्रित किया। श्रीमती गॉंधी से जब पाण्डेजी का परिचय करवाया गया तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा कि "अच्छा तो आप हैं हमारे देश की न्यूज़ वॉइस'। पूर्व सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल तो एक बार पाण्डेजी का नाम सुनकर उनसे गले लिपट गए थे।
नए समाचार वाचकों के बारे में पाण्डेजी का कहना था जो कुछ करो श्रद्धा, ईमानदारी और मेहनत से करो। हमेशा चाक-चौबन्द और समसामयिक घटनाक्रम की जानकारी रखो। जितना ़ज़्यादा सुनोगे और पढ़ोगे उतना अच्छा बोल सकोगे। किसी शैली की नकल कभी मत करो। कोई ग़लती बताए तो उसे सर झुकाकर स्वीकार करो और बताने वाले के प्रति अनुगृह का भाव रखो। निर्दोष और सोच समझकर पढ़ने की आदत डालो; आत्मविश्वास आता जाएगा और पहचान बनती जाएगी।
ऊँची क़द काठी के देवकीनंदन पाण्डे आज तो हमारे बीच में नहीं है लेकिन जब भी रेडियो पर समाचार प्रसारणों की बात चलेगी तो उनका नाम इस विधा के शिखर के रूप में जाना जाता रहेगा।
Tuesday, July 8, 2008
छोरे- छोरियों की छुक- छुक
यह गाड़ी हर रविवार को घण्टे भर के लिए चलाई जाती है, दोपहर बाद तीन से चार बजे तक। एक हमने देखी थी कुछ दिन पहले वो… आज़ादी एक्सप्रेस जो रेल विभाग वाले चलाते है। हर राज्य के मुख्य शहरों के स्टेशनों पर दो-चार दिन खड़ा कर देते है।
यहाँ सिकन्द्राबाद में भी तीन दिन के लिए खड़ी थी सो हमने देख ली। गाड़ी क्या थी… बस एक ऐसी दुनिया थी जहाँ हमने देखा तस्वीरों में स्वाधीनता संग्राम। अब इसी गाड़ी कि प्रेरणा से विविध भारती की छुक-छुक चल रही है… ऐसा कुछ तो हम ठीक से नहीं जानते, पर इतना ज़रूर कहेगें कि दोनों गाड़ियों से हमारा ज्ञान बढता है।
युनूस जी तो मस्त ड्राइवर है। नए-पुराने मस्त गाने गाते हुए गड्डी दौड़ाते है। इसके एक डिब्बे में होती है पेन्ट्री यानि खाने-पीने का ताज़ा सामान जिसमें दुनिया की ताजी-ताजी बातें होती है। यूरो फुटबाल टूर्नामेंट हुआ और इसकी पूरी जानकारी थाली में परोस दी गई।
एक डिब्बा इसमें ऐसा है जिसमें दो लोग बैठ कर गुटर्गु ! धत्त तेरे की… गुफ़्तगु करते है जिनमें से एक गाड़ी वाले होते है और दूसरे सज्जन बाहर से आते है। बाहर से आकर गाड़ी में बैठने वालों में युवाओं के पसन्दीदा युवा गायक कुणाल गांजावाला भी है जिनसे ममता (सिंह) जी ने बातचीत की। मीडिया विश्लेषक विनोद जी भी है जिनसे कमल (शर्मा) जी ने बेबाक बातचीत की। मीडिया में बाज़ारवाद से लेकर युवाओं में साहित्य पढने की आदत तक कई बातें शामिल रही।
कमल (शर्मा) जी एक और बातचीत बहुत ही अच्छी और उपयोगी रही, गिरधारीलाल जी से की गई बातचीत जिसमें उनके द्वारा संग्रह किए गए विभिन्न कलाकारों का पहला गीत सुनवाया गया। लता, रफ़ी, नौशाद, कई नई बातें सामने आई जैसे मुकेश का पहली नज़र फ़िल्म के लिए गाया गीत पहला गीत माना जाता था जिस पर कुन्दनलाल सहगल की गायकी की छाप नज़र आती थी पर यहाँ बताया गया कि मुकेश ने सबसे पहले 1941 में निर्दोश फ़िल्म के लिए गीत गाया था।
इस गाड़ी का एक और डिब्बा बड़ा ही अच्छा है - किताबों की दुनिया जिसमें पिछली बार बच्चन जी की मधुशाला थी। इससे पहले डा अमरकांत दुबे ने डा रामचन्द्र शुक्ल पर अच्छी जानकारी दी और उनके द्वारा किए गए हिन्दी साहित्य के वर्गीकरण को बहुत अच्छी तरह समझाया। एक बार इसमें प्रेमचंद के उपन्यास प्रतिज्ञा के बारे में किसी का भेजा आलेख भी पढ कर सुनाया गया।
इसमें युवाओं के लिए विभिन्न पाठ्यक्रमों के बारे में भी जानकारी दी जाती है जिससे करिअर बनाने में सहायता मिलती है।
कुल मिला कर भई हमें तो यह छुक-छुक भली लगती है।
Monday, July 7, 2008
विविध भारती की प्रायोगिक वेबसाईट और एक खास इंटरव्यू केंद्र निदेशक महेंद्र मोदी का
जी हां मोदी जी अब रेडियोनामा का हिस्सा बनने जा रहे हैं ।
इस लिंक पर क्लिक कीजिये इंटरव्यू पढ़ने के लिए ।
Saturday, July 5, 2008
रेडियोनामा: सुहाना सफ़र
रेडियोनामा: सुहाना सफ़रश्री अन्नपूर्णणणाजी,
शंकर जयकिसन की जोडी को तो इस श्रंखला के शुरूआती दौरमें शामिल किया गया था और लम्बे अरसे तक बुधवार के दिन उनके गाने बजते रहे थे । पर उसमें भी बे गुनाह, बादशाह (एक आ नील गगन तले छोड़ ) बागी सिपाही जैसी १९६५ के पूर्व राज कपूर की फिल्मों को छोड़ उन्होंने जो बहोत ही मघूर संगीत दिया था, जो गाने रेडियो सिलोन पर समय समय पर आ भी प्रस्तूत होते है, नहीं प्रस्तूत हुए । तितली उडी गाना भी शंकर जयकिसनकी इस श्रंखलामें कभी बजा था । स्व. सी रामचंद, अनिल विश्वास, चित्रगुप्त सलिल चौघरी, स्व. हेमन्त कूमार, की श्रंखलाएं भी आनंद दायी रही । लगता है की आप जोब के कारण शुरूआती दौर चूक गयी है । बाकी आपने करीब हर रेडियो स्टेसन के करीब हर कार्यक्रम बारेमें बहोत ही अच्छे विवेचन इस ब्लोग पर प्रस्तूत किये है ।
आज स्वर्ण स्मृतिमें स्व. नूर जहाँजी के श्री अमीन सायानी साहब द्वारा किये गये साक्षात्कार की पहली किस्त सुना कि नहीं ?
http://www.rajasthanpatrika.com/magazines_new/bollywood_inner3.php
उपर दी हुई लिन्क पर पाठक श्री अमीन सायानी साहब का इन्टर्व्यू जो श्याम माथूरजीने लिया है, पढ़ सकते है ।
पियुष महेता ।
सुरत-३९५००१ ।
सुहाना सफ़र
हर दिन एक संगीतकार के गीत सुनवाए जाते है पर हर सोमवार को ऐसे संगीतकारों के गीत सुनवाए जाते है जिनके गीत बहुत कम है। यह कहा जाता है कि यह कम प्रचलित संगीतकारों के गीत है।
हम तो क्वानटिटी में नहीं क्वालिटी में विश्वास रखते है इसीलिए हमें सोमवार का कार्यक्रम कुछ ज्यादा ही अच्छा लगता है। कई ऐसे संगीतकार है जिनका नाम संगीतकार के रूप में कम प्रचलित है पर गीत ज़ोरदार है इसीलिए इस दिन कई अच्छे गीत सुनने को मिलते है जैसे -
चांद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा (संगीतकार राजकमल)
पंख होते तो उड़ आती रे (संगीतकार रामलाल)
इस तरह इस दिन ख़ास बात यह भी होती है नए पुराने सभी गीत एक ही घण्टे में सुनने को मिलते है जैसे किशोर कुमार का स्वरबद्ध किया फ़िल्म झुमरू का गीत जिसके साथ इक़बाक ख़ुरैशी और हुस्नलाल भगतराम के संगीत से संजोए गीत तो साथ में नए गीत भी। कुछ बहुत लोकप्रिय गीत सुनने को नहीं मिले या बहुत ही कम सुनवाए गए जैसे संगीतकार शारदा का खुद का गाया फ़िल्म सूरज का गीत -
तितली उड़ी उड़ जा चली
फूल ने कहा आजा मेरे पास
तितली कही मैं चली आकाश
आगे तीन दिन माहौल लगभग एक जैसा रहता है क्योंकि इन संगीतकारों के गीत एक निश्चित अवधि की फ़िल्मों में होने से लगभग समान ही है।
मंगलवार को अनु मलिक के नए गाने सुनने को मिलते है। इसके बाद बुधवार को आनन्द मिलिन्द के गाने जो अनु मलिक से थोड़ा पीछे का समय है जिनके पीछे के समय में है नदीम श्रवण जिनके गीत शुक्रवार को बजते है।
बीच में गुरूवार को लक्ष्मीकान्त प्यारेलाल जिनके गीत पारसमणि से बाँबी तक है और उसके बाद भी।
ऐसे ही गीत है कल्याण जी आनन्द जी के जो शनिवार को सुनवाए जाते है जिसमें क़ुर्बानी का लैला मैं लैला गीत भी बजता है और दिलीप कुमार-सायरा बानो का गोपी फ़िल्म का गीत भी - जैंटिलमैन जैंटिलमैन जैंटिलमैन फिर रविवार को आर डी बर्मन के गीत जो नए गानों का आधार है।
यह क्रम बहुत अच्छा है और इस क्रम में गाने सुनना अच्छा लगता है। क्रम वैसे शुरू से ही अच्छा रहा। पहले पुराने संगीतकारों के गीत बजते थे जैसे सी रामचन्द्र शुक्रवार को ओ पी नय्यर। कुछ नाम छूट गए है जैसे शंकर जयकिशन जिसे शायद आगे शामिल किया जाए।
एक बात यहाँ भी खटकती है। इस कार्यक्रम के दौरान कहा जाता है कि यह स्वर्ण जयन्ती की सुरीली सौगात है। क्या इसका मतलब यह है कि स्वर्ण जयन्ती की समय सीमा की समाप्ति के बाद यह कार्यक्रम बन्द हो जाएगा ? अगर ऐसा है तो ठीक नहीं है और इसे जारी रखने का अनुरोध है।
Friday, July 4, 2008
शीरी शीरी सुर लहरी
जी हाँ ! हम बात कर रहे है कल प्रसारित जुबली झंकार कार्यक्रम की। विविध भारती की स्वर्ण जयन्ती का मासिक पर्व। इस बार इस पर्व में लोक संस्कृति झलक रही थी।
रोज़ की तरह कल भी हम तीन बजे से ही केन्द्रीय सेवा से जुड़ पाए क्योंकि ढाई से तीन बजे तक क्षेत्रीय कार्यक्रम का प्रसारण रहा।
कल की महफ़िल आलिम-फ़ाज़िल लोगों की महफ़िल थी जिसमें शरीक थे शास्त्रीय संगीत के महारथी पंडित शिवकुमार शर्मा, राम देशपांडे साथ में थे लोकगायक डा वाणी (क्षमा कीजिए पूरा नाम नहीं लिख पा रही हूँ), विश्वनाथ रत्ता और साथी तथा वादक कलाकार जिनके साथ महफ़िल में शिरकत कर रहे थे आकाशवाणी के कश्मीर केन्द्र निदेशक बशीर आरिफ़ साहब और कमी खल रही थी महेन्द्र मोदी साहब की।
कश्मीरी लोक गीत सुनवाए गए। महफ़िल में पधारे कलाकारों के साथ-साथ अन्य कलाकारों के भी गीत सुनने को मिले जिनमे ख़ास था हब्बा ख़ातून का ज़िक्र। मुझे याद आ रही है संगीत सरिता की वो कड़ियाँ जो हब्बा ख़ातून और बुल्ले शाँ पर तैयार की गई थी। मन कर रहा है एक बार फिर उन कड़ियों को सुनने का अगर विविध भारती की इनायत हो तो…
वैसे कल का जुबली झंकार कार्यक्रम लोक संगीत और संगीत सरिता का मिलाजुला रूप था। लोक गीतों का मज़ा तो हम ले रहे थे पर जैसा कि होता है कि भाव समझना और शब्द समझना भी कठिन होता है इसीलिए कठिनाई से हम नोट कर पाए -
रोरा वल्ला याने दिल बरो… गुलशन बहाए… या करो
पता नहीं इन बोलों में मैनें कितनी ग़लतियाँ की पर गीत के भाव बतलाए गए कि बाग़ों में बहार है सभी तुम्हारी राह देख रहे है…
अच्छा लगा कि हर गीत के भाव बताए गए। बशीर आरिफ़ी साहब ने भी घरों में होने वाले उत्सवों, शादी के गानों के बारे में बताया।
कल बिल्कुल ही पहली बार एक बात बताई गई कि किन्नर जब लोक गीत गाते है तब उनकी लय अलग होती है और मुझे भी कल ही यह बात ध्यान में आई कि शादी-ब्याह के अवसर पर और यहाँ तक कि बच्चे के जन्म पर भी लोक गीत किन्नर गाते है पर न कभी सहित्य में और न ही कभी संगीत के कार्यक्रमों में इसकी चर्चा की गई। कल इनकी तरफ़ इशारा भी कार्यक्रम में नयापन ले आया।
लोक गीत घरेलु समारोहों में समाँ बाँध लेते है जहाँ कई बार बिना साज़ों के गाया जाता है। कल यही बात उठाई निम्मी (मिश्रा) जी के साथ संचालन कर रहे कमल (शर्मा) जी ने। यह बात भी तभी उठी जब मेहमान गायकों की टोली ने बिना साज़ के गीत प्रस्तुत किया। यहीं पंडित शिवकुमार शर्मा जी ने समझाया लोक गीतों की अलग-अलग लय के बारे में जो शास्त्रीय अंदाज़ में अलग है और किन्नरों का अंदाज़ अलग है और ठेठ लोकगायकी में कुछ पश्चिमी अंदाज़ आ मिला है।
इन लोकगीतों का राम देशपांडे जी ने न सिर्फ़ शस्त्रीय विश्लेषण किया बल्कि बंदिशें भी प्रस्तुत की। सुरों की चर्चा हुई और साथ ही साज़ों की भी चर्चा हुई। उत्तर भारतीय और कश्मीरी सारंगी में फ़र्क बताया गया। सारंगी जैसे साज़ रवाब के साथ-साथ इरानी सन्तूर की भी चर्चा हुई।
इस तरह की चर्चा में फ़िल्मी गाने न हो, यह तो हो ही नहीं सकता। शर्मा जी के संगीतबद्ध किए सिलसिला और चांदनी के गीतों की झलक के साथ ज़ंजीर की मन्नाडे की गाई क़व्वाली की झलक भी सुनी -
यारी है इमान मेरा यार मेरी ज़िन्दगी
और चोर मचाए शोर का किशोर कुमार का गीत भी सुना -
घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं
सावन की घटा जैसी कई फ़िल्मों के गीतों की झलकियाँ सुनवाई गई। यहाँ एक कमी मुझे खली कि इस तरह के गीतों के लिए प्रचलित राग पहाड़ी का बहुत ही सुन्दर गीत जिसे फ़िल्म प्रेमपर्वत के लिए जयदेव के संगीत में लता ने गाया -
ये दिल और उनकी निगाहों के साए
नहीं सुनाई दिया। माना तो यह भी जाता है कि इसी गीत से जयदेव ने फ़िल्मी गीतों के श्रोताओं का राग पहाड़ी से परिचय करवाया। या हो सकता है कि तीन बजे से पहले ये और कुछ पुराने गीत जैसे शगुन फ़िल्म से सुनवाए गए जो हम सुन नहीं पाए।
कुल मिलाकर हमें तो भई यह जुबली की बड़ी ही मीठी झंकार लगी।
Wednesday, July 2, 2008
हारमोनियम पर भारतीय शास्त्रीय संगीत: लेखक मृदुल मोदी
- हारमोनियम ( ऐसे अन्य वाद्यों की भाँति) में बटन या कुंजी (keys) होती हैं जिन्हें दबाने पर एक निश्चित आवृत्ति (frequency) का स्वर उत्पन्न होता है । प्रत्येक सप्तक (octave) में 12 कुंजियां होती हैं - 5 काली तथा 7 सफ़ेद । इस प्रकार एक सप्तक के निश्चित आवृत्ति वाले १२ स्वर एक-के-बाद-एक बजाए जा सकते हैं । इन 12 कुंजियों की आवृत्तियाँ कैसे तय हों ?
- भौतिकी के संनाद - विश्लेषण (Harmonics) से हमें ज्ञात होता है कि 13 वीं कुंजी ( अगले तार सप्तक की प्रथम कुंजी ) की आवृत्ति मध्य सप्तक की प्रथम स्वर की आवृत्ति से दुगुनी होनी चाहिए। इस प्रकार यदि मध्य सप्तक की प्रथम कुंजी की आवृत्ति 100 हर्ट्ज़ (Hz) है तब तेरहवीं कुंजी की आवृत्ति 200 हर्ट्ज़ होनी चाहिए ।
- शेष बची मध्य सप्तक की 11 कुंजियों की आवृत्तियाँ मुकर्रर करने का एक सरल , तार्किक और अत्यन्त उपयोगी तरीका अगल-बगल की कुंजियों के बीच आवृत्तियों का समान अनुपात रखना होता है । इस प्रकार किसी निश्चित आवृत्ति से शुरु होने वाले स्वर तथा उससे दुगुनी आवृत्ति के स्वर के बीच 12 स्वरों की क्रमश: दो स्वरों की आवृत्तियों के बीच 1 : 1.0594631 का अनुपात रखा जाना चाहिए । इस प्रकार प्राप्त 12कुंजियों की आवृत्तियां नीचे की सारिणी 1 में दी गई हैं :
यह गौर करें कि 3 सप्तकों के सभी 12 स्वरों में क्रमवार 1 : 1.0594631 का अनुपात रखा गया है ।
5. अब सहूलियत वाले पक्ष को देखें :
कल्पना कीजिए कि भारती और मृदुल दोनों को एक - एक गीत गाना है । भारती सारिणी 2 के स्वर क्रमांक 8 को अपना षडज ( आवृत्ति १०० ) मान कर गाती है । उसके ऋषभ , गान्धार आदि की आवृत्तियां सारणी 2 में दिखाई गई है तथा वह बिना किसी दिक्कत के हारमोनियम को संगत - वाद्य के रूप में इस्तेमाल कर सकती है ।
मृदुल जब गाते हैं तब उन्हें एक दिक्कत होती है । चूँकि उनकी आवाज गंभीर है इसलिए स्वर क्रमांक 8 को षडज मान कर शुरु करने पर वे तार सप्तक के स्वर नहीं गा सकते । इस कारण वे स्वर क्रमांक 5 ( आवृत्ति 74.915 ) को षडज मान कर गाना चाहते हैं। इस स्थिति में मृदुल के स्वरों की आवृत्तियां नीचे उल्लिखित सारिणी 3 के अनुरूप होंगी ।
इस प्रकार मृदुल द्वारा गाए गए स्वरों को भारती के हारमोनियम पर ज्यों - का-त्यों उठाया जा सकता है । दूसरे शब्दों में मृदुल के स्वर 5 कुंजियां नीचे जाने पर मेल खाते हैं - इस प्रकार भारती का मन्द्र पंचम मृदुल का षडज हो जाता है । हारमोनियम की ( अथवा ऐसे अन्य वाद्यों की) यह खूबी है कि कोई भी गायक किसी भी कुंजी को अपना षडज बना सकता है । स्वर संगति के इस प्रकार को संस्कारित अथवा " 12 tone equi tempered scale" अथवा tempered scale कहते हैं ।
6. इस पृष्टभूमि को जान लेने के बाद हारमोनियम की अनपयुक्तता वाला आयाम समझा जा सकता है । सारिणी 2 के स्वर सं. 8 तथा 12 ( पंचम) की आवृत्तियों में 1: 1.49831 का अनुपात है जो स्वर-संगतिपूर्ण नहीं हैं ( not harmonic) इसी प्रकार स्वर सं. 11 (मध्यम) तथा 15 ( तार षडज ) में असंगतिपूर्ण अनुपात है । स्वर सं 10 ( गान्धार ) की आवृत्ति 125.000 होनी चाहिए ताकि उसकी षडज से संगति बैठे । सच्चाई यह है कि इस ' संस्कारित स्वर संगति ' में स्वरों में आपसी तालमेल का पूरा अभाव है जिसके कारण संगीत ( चाहे वह भारतीय हो अथवा पाश्चात्य अथवा अन्य कोई ) बेसुरापन आ जाता है । इस वजह से टेम्पर्ड स्केल वाले वाद्यों से संवेदनशील संगीतकार चिढ़ते हैं । यहूदी मेनुईन ने कहीं लिखा है ,
" पश्चिम द्वारा टेम्पर्ड स्केल का अविष्कार करना पद़्आ जिसमें हर स्वर अपने मूल
केन्द्र से ऊपर या नीचे एडजस्ट किया गया ताकि कुंजियों का समाधान निकले । मेरी पूरी
संगीत - यात्रा इससे प्रभावित रही है - मैं इसके पछतावे का दिखावा नहीं करूँगा ,
परन्तु यह भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि टेम्पर्ड स्केल हमारी पश्चिम की
श्रवण-शक्ति को भ्रष्ट करता है ।"
7. हारमोनियम के टेम्पर्ड स्केल की संनादी सीमा (harmonic limitation) अपने आप में शुद्धतावादियों द्वारा एक संगत-वाद्य के रूप में इसे अपनाने से बचने के लिए पर्याप्त है । भारतीय शास्त्रीय संगीत की हारमोनियम के प्रति आपत्ति अधिक बुनियादी है । इस आपत्ति की जड़ में यह तथ्य है कि भारतीय शास्त्रीय संगीत के एक सप्तक में 12 नहीं 22 स्वर होते हैं । इन 22 स्वरों को श्रुति कहा जता है। ऋषभ , गान्धार , मध्यम , धैवत और निषाद में प्रत्येक के 4 भेद हैं - इस प्रकार षडज और पंचम को शामिल कर लेने पर कुल 22 श्रुतियां हो जाती हैं । रे , गा , धा , तथा नि के विभिन्न प्रकारों का प्रयोग निपुण संगीतकारों द्वारा गाते / बजाते वक्त होता है । मसलन , राग तोड़ी का कोमल रे भैरवी के कोमल रे से काफ़ी जुदा होता है। श्रोता अति पंडित न भी हो तब भी उसे इनके गलत प्रयोग सुन कर वाकई परेशानी होगी ।
सामान्य हारमोनियम में दो षडजों के बीच 22 स्वरों को समायोजित करने के लिए जगह नहीं होती। इसके अलावा 22 श्रुतियों की आवृत्ति क्या - क्या हों यह संगीतकारों के बीच अपने आप में गर्मागरम बहस का विषय है । यहाँ यह उल्लेख करना चाहिए कि ठाणे निवासी सुविख्यात हारमोनियम वादक डॉ. विद्याधर ओक ने इस पर गहन शोध किया है तथा न सिर्फ १२ श्रुतियों की आवृत्तियां निश्चित करने के लिए तगड़े गणितीय तर्क दिए हैं , अपितु इन सभी को समायोजित कर मेलोडियम नामक एक यन्त्र भी विकसित किया है ।
यहाँ जिन तकनीकी मामलों की चर्चा की गई है उनकी गहन जानकारी के बिना भी महान तथा उनसे कमतर-महान गायकों ने भी भारतीय शास्त्रीय संगीत गाया है। इस विषय के गहन ज्ञान के बावजूद सुधी श्रोताओं के बीच प्रस्तुति करना आसान नहीं होता । ऐसे मामलों को ऐसी वैज्ञानिक रुझान वाली जमात के जिम्मे छोड़ देना श्रेयस्कर होगा जिन्हें चुनौतीपूर्ण पहेलियाँ सुलझाने में आनन्द आता हो ।
- मदुल मोदी .
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नोट : इस विषय में अधिक रुचि रखने वाले व्यक्त डॉ. विद्याधर ओक की " 22 Shrutis and Melodium " नामक संस्कार प्रकाशन , 6/400 अभ्युदय नगर , कालचौकी , मुम्बई - 400033 , फोन - 022 - 24755900 ,मोबाइल - 09869185959 से प्रकाशित यह पुस्तक पढ़ सकते हैं ।
Tuesday, July 1, 2008
संकेत धुनों का संगीत विश्लेषण
इस श्रृंखला में सभी धुनों को शामिल किया जाए जिसमें सबसे पुरानी आकाशवाणी की सिगनेचर ट्यून भी हो जो शुरू से आज तक लगातार बज रही है। इसके अलावा विविध भारती की सबसे पुरानी धुन भी हो जो हवामहल कार्यक्रम की है और वो तमाम संकेत धुनें हो जो नए पुराने लगभग सभी कार्यक्रमों के लिए बजती है जैसे -
वन्दनवार, संगीत सरिता, त्रिवेणी, सखि-सहेली, हैलो सहेली, पिटारा और पिटारा के अंतर्गत प्रसारित होने वाले कार्यक्रम, जयमाला, सलाम इंडिया, लोक संगीत
इन हर एक संकेत धुन में बजने वाले वाद्यों को बताइए और हो सके तो इनके राग भी बताइए। मुद्दा ये कि इन धुनों के संगीत का विश्लेषण कर हम श्रोताओं को समझाइए। मेरी समझ में विविध भारती की तरफ़ से श्रोताओं को स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर दिया जाने वाला यह नायाब तोहफ़ा होगा।
तो भई हम तो प्रतीक्षा कर रहे है कि विविध भारती की ओर से कब मिलेगा हमें तोहफ़ा… तोहफ़ा… तोहफ़ा… तोहफ़ा…