आज मैं अपना पच्चीसवां चिट्ठा लिख रही हूं। पच्चीस अंक से समारोह की सुगन्ध आती है। चलिए मैं भी आप को शादी के समारोह में ले चलती हूं जहां मैं एक महिला के साथ बतिया रही थी। महिला पेशे से अध्यापक है। तभी वहां एक लड़की आई और उसने हमें नमस्कार किया। इस महिला ने बिना नमस्कार का जवाब दिए सीधे एक सवाल दागा
प्रीति, प्रिफाइनल्स कब है ?
मुझे गुस्सा आया कि क्या ऐसे पूछना है। अरे भई वो शादी-ब्याह में आई है। उसे थोड़ा मस्ती करने दो। यहां भी क्या परीक्षा का तनाव।
तभी मुझे याद आया बहुत दिन पहले किसी पत्रिका में पढा गया एक रोचक लेख जिसमें यह बताया गया था कि हम जिस पेशे से जुड़े होते है उसकी झलक हमारे व्यवहार में मिलती है। इसके लिए बहुत से उदाहरण दिए गए थे जिनमें से मुझे एक उदाहरण बहुत पसन्द आया जिसे यहां मैं प्रस्तुत कर रही हूं -
एक बार एक रेडियो एनाउन्सर के नन्हे-मुन्ने का जन्मदिन था। समारोह में बहुत धूम-धाम रही। अगले दिन कार्यालय में एक अधिकारी ने कहा -
हम कल ज़रा व्यस्त हो गए थे और समारोह में आ नहीं सकें। कैसा रहा ?
एनाउन्सर ने कहा - बढिया रहा, सर !
अधिकारी ने पूछा - कौन- कौन आए थे ।
एनाउन्सर ने कहना शुरू किया -
बाराबंकी बदायूं से - खुशबू पिंकी बेबी
पी के ग्राम पोस्ट छत्तरा छत्तीसगढ से - पप्पू वीनू नन्दिनी
अटूट गांव ज़िला खंडवा रायपुर से - नीना इंगले उषा इंगले विनोद इंगले और इंगले परिवार के सभी सदस्य
भाटापारा तेवरका राजनन्द गांव से ज्ञानेश्वरी परमेश्वरी माहेश्वरी
टाटा नगर से - राजू देवेन्द्र अमित दीपक
बड़काकाना से ------------
----------- से -------------
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सबसे नए तीन पन्ने :
Friday, November 30, 2007
Thursday, November 29, 2007
श्री अमीन साहानी आकाशवाणी से जान. २००८ से नियमीत साप्ताहिक कार्यक्रममें
सभी पाठको को एक रस दायक समाचार है, कि हम सब के सबसे चहिते रेडियो प्रसारक श्री अमीन सायानी साहब अपना कार्यक्रम शायद (नाम के लिये ही शायद, कार्यक्रम आना तय ही है), कोलगेट संगीत सितारों की महेफि़ल नाम से जान्यूआरी, २००८ से हप्तेमें एक बार पूरे एक घंटे का प्रस्तूत करने वाले है, पर यह कार्यक्रम मुम्बई, दिल्ही, और कोलकटा से नहीं आयेगा और ज्यादा तर प्राईमरी केन्दो से रात्री १० से ११ और १० विविध भारती केन्द्रो (सुरत सहित)से रात्री ९ से १० बजे तक आयेगा । यह सुचना उन्होनें मुझे फोन करके दी है । उसमें काफी पूराने गायको गीतकारों और संगीतकारों की उन्के द्वारा ली गयी मुलाकातो का संकलन आयेगा ।
पियुष महेता
अमीन_सायानी
पियुष महेता
अमीन_सायानी
आईये रिफत सरोश के संस्मरणों के सहारे चलें रेडियो के पुराने दिनों में
लावण्या जी आज लाईं हैं रिफत सरोश के संस्मरण । लेकिन उनकी पोस्ट को पेश करने से पहले मैं कुछ कहने की गुस्ताखी़ कर रहा हूं । जो लोग रिफत साहब को नहीं जानते ये बातें उनके लिए । रिफत सरोश रेडियो की एक जानी मानी हस्ती रहे हैं । शायरी और उर्दू ड्रामे में उनका उल्लेखनीय योगदान रहा है । रिफत रेडियो के उन लोगों में से एक रहे हैं जिनमें कार्यक्रमों को लेकर रचनात्मकता और दूरदर्शिता थी । उनकी कई पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं । विविध भारती के आरंभिक दिनों में रिफत सरोश ने भी अपना उल्लेखनीय योगदान दिया था । पुराने लोगों से सुन सुनकर जितना जान पाया हूं उसके मुताबिक रिफत साहब उन दिनों आकाशवाणी मुंबई में थे जब विविध भारती को दिल्ली से मुंबई लाया गया था । अब ये नया प्रसंग आ गया ना, जी हां विविध भारती का आरंभ तीन अक्तूबर 57 को दिल्ली में हुआ । फिर थोड़े दिनों बाद विविध भारती को मुंबई लाया गया फिर दिल्ली और फिर अंतत: मुंबई ले आया गया । ख़ैर इस संस्मरण को पढ़कर आप अगले भागों का इंतज़ार ज़रूर करेंगे । रेडियो में काम कर रहे मेरे जैसे बहुत बहुत बाद के लोगों के लिए इसमें बसे हैं पुराने लोगों के किस्से जो आज भी स्टूडियो के गलियारों में गूंजते हैं । ----युनुस
चलिये जनाब 'रिफअत सरोश " साहब ने ...अपने सँस्मरणात्मक लेख मेँ ..क्या क्या यादेँ बाँटीँ हैँ उन्से आज मुखातिब हुआ जाये ...
इप्टा = माने इन्डियन पीपल्स थियेटर के पहले का स्वरुप क्या था ? जी हाँ इसका पूर्वरुप था " कल्चरल स्क्वाड " जो वह " बाँये बाजू " का कलचरल विँग था !यानी नृत्य,सँगीत, और नाटकोँ के जरीये साम्राज्यित पर चोट की जाती थी कुचली हुई जनता को सिर उठाने, अपना हक मनवाने और आज़ादी की जँग मेँ आगे बढने के लिये उसी से तैयार किया जाता था.
ये मैँ नहीँ कह रही हूँ - इसे लिखा है, जनाब 'रिफअत सरोश " साहब ने ...अपने सँस्मरणात्मक लेख मेँ ..
वे आगे लिखते हैँ कि, " एक ज़माने तक, नाच - गानोँ के प्रोग्रामोँ मेँ हिस्सा लेना तो दरकिनार,मेरे नज़दीक ऐसे प्रोग्राम देखना भी एक तरह से ऐब था.लेकिन १९४५ ई. मेँबम्बई पहुँच कर मेरी अखलाकियात ( नैतिकता )की रस्सी कुछ ढीली हो गई थी उर मैँ इस तरह के प्रोग्राम कि जिसमे अश्लील्ता न हो !
उन दिनोँ की बात है, कि बँबई के कावसजी जहाँगीर होल मेँ "कलचरल स्क्वाड " का एक प्रोग्राम हुआ , जिसकी सूचना मुझे, अपने एक दोस्त प्रेमधवन से मिली जो शायर तो हैँ ही, डाँसर भी हैँ.
हाल खचाखच भरा हुआ था. परदे के पीछे से एनाउन्सर की आवाज़ और वाक्योँ मेँ साहित्यिक पुट तथा बातसे असर पैदा करने का सलीका था सुननेवालोँ पर १ मानो प्रोग्राम की बागडोर उस आवाज़ से बँधी थी ! मालूम हुआ कि ऐसे प्रोग्राम का सँचालन कर रहे थे नरेन्द्र जी अपने विशेष रोचक अन्दाज मेँ !
जब "कल्चरल स्क्वाड " पर उस समय की सरकार ने पाबँदी ला दी थी तो उसकी जगह इप्टा ने ले ली !
इप्टा और उसकी सरगर्मियोँ और कामयाबियोँ से थियेटर की दुनिया खूब वाकिफ थी.बँबई मेँ इस के पौधे को अपनी कला से सीँचनेवाले थे नरेन्द्र जी के कई साथी, जिनमेँ प्रमुख हैँ ख्वाजा अहमद अब्बास ( जिन्होँने आ के सुपर स्टार अमिताभ को अपनी फिल्म "सात हिन्दुस्तानी " मेम पहली बार फिल्म मेँ काम करने का मौका दिया था ) ( ये टिप्पणी - लावण्या की है ) बलराज साहनी, प्रेम धवन और उनके बाद शैलेन्द्र, हबीब तनवरी, मनी रबाडी, और शौकत व कैफी आज़मी इत्यादि.
अवामी ज़िन्दगी से नरेन्द्र जी की कुर्बत देखकर मेरे दिल मेँ उनकी इज्जत पहले ही दिन से पैदा हो गयी थी.
फिर कुछ दिन बाद जब मैँ आल इन्डिया रेडियो मेँ मुलाजिम हुआ तो मालूम हुआ कि किसी मतभेद की वजह से हिन्दी के लेखक और कवि आल इन्डिया रेडियो के कार्यक्रमोँ मेँ भाग ही न लेते थे - ले दे कर एक गोपाल सिँह नेपाली थे , जो
कभी कभी कविता पाठ करने आ जाते थे. कोई और प्रसिध्ध साहित्यकार इधर का रुख न करता था हाँ डा. मोतीचन्द्र ( जो प्रिन्स ओफ वेल्स म्युझियम के प्रमुख , कर्ता धर्ता थे ) और रणछोड लाल ज्ञानी जरुर आते थे.
और फिर देश स्वतँत्र हुआ. भाषा सम्बधी आकाशवाणी की नीति मेँ परिवर्तन आया. अब हम रेडियोवाले, हिन्दी लेखकोँ और कवियोँ की खोज करने लगे.
नीलकँठ तिवारी, रतन लाल जोशी, सरस्वती कुमार दीपक, सत्यकाम विध्यालँकार, वीरेन्द्र कुमार जैन, किशोरी रमन टँदन, डा. सशि शेखर नैथानी,सी. एल्. प्रभात, के. सी. शर्मा भिक्खु, भीष्म साहनी, - हिन्दी के अच्छे खासे लोग रेडियो के प्रोग्रामोँ मेम हिस्सा लेने लगे.
उन्हीँ दिनोँ हम लोगोँने पँ. नरेद्र शर्मा को भी आमादा किया कि वे हमारे प्रोग्रामोँ मेँ रुचि लेँ - वे फिल्मोँ के लिये लिखते थे.
एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया, " "कवि और कलाकार" - उसमेँ सँगीत निर्देशक अनिल बिस्वास, अस. डी. बर्मन, नौशाद और सैलेश मुखर्जी ने गीतोँ और गज़लोँ की धुनेँ बनाईँ शकील, साहिर और डा.क्टर सफ्दर "आह" के अलावा नरेन्द्र जी के एक अनूठे गीत की धुन अनिल बिस्वास ने बनाई थी, जिसे लता मँगेशकर ने गाया था - " युग की सँध्या कृषक वधु सी,
किसला पँथ निहार रही "
पहले यह गीत कवि ने स्वयम्` पढा, फिर उसे गायिका ने गाया. उन दिनोँ आम चलते हुए गीतोँ का रिवाज़ हो गया था. और गज़ल के चमकते -दमकते लफ्ज़ोँ को गीतोँ मेँ पिरो कर अनगिनत फिल्मी गीत लिखे जा रहे थे. ऐसे माहौल मेँ नरेन्द्र जी का ये गीत सभी को अच्छा लगा , जिसमेँ , साहित्य के रँग के साथ भारत भूमि की सुगँध भी बसी हुई थी. और फिर हमारे हिन्दी विभाग के कार्यक्रमोँ मेँ नरेन्द्र जी स्वेच्छा से , आने जाने लगे.
एक बार नरेन्द्र जी ने, एक रुपक लिखा - " चाँद मेरा साथी " उन्होण्ने चाँद के बारे मेँ अपनी कई कवितायेँ जो विभिन्न मूड की थीँ, को रुपक की लडी मेँ इस प्रकार पिरोई थी कि मनिष्य की मनोस्थिति सामने आ जाती थी. वह सूत्र रुपक की जान था. मुझे रुपक रचने का यह विचित्र ढँग बहुत पसँद आया और आगे का प्रयोग किया.
मैँ, बम्बई रेडियो पर हिन्दी विभाग मेँ स्टाफ आर्टिस्ट था अब्दुल गनी फारुकी प्रोग्राम असिस्टेँट !
( ( क्रमश: ~~ अगले हिस्से मेँ पढिये किस तरह आकाशवाणी मेँ "विविधभारती " का एक स्वतँत्र इकाई के स्वरुप मेँ जनम हुआ ~~ )
--
Lavni :~~
चलिये जनाब 'रिफअत सरोश " साहब ने ...अपने सँस्मरणात्मक लेख मेँ ..क्या क्या यादेँ बाँटीँ हैँ उन्से आज मुखातिब हुआ जाये ...
इप्टा = माने इन्डियन पीपल्स थियेटर के पहले का स्वरुप क्या था ? जी हाँ इसका पूर्वरुप था " कल्चरल स्क्वाड " जो वह " बाँये बाजू " का कलचरल विँग था !यानी नृत्य,सँगीत, और नाटकोँ के जरीये साम्राज्यित पर चोट की जाती थी कुचली हुई जनता को सिर उठाने, अपना हक मनवाने और आज़ादी की जँग मेँ आगे बढने के लिये उसी से तैयार किया जाता था.
ये मैँ नहीँ कह रही हूँ - इसे लिखा है, जनाब 'रिफअत सरोश " साहब ने ...अपने सँस्मरणात्मक लेख मेँ ..
वे आगे लिखते हैँ कि, " एक ज़माने तक, नाच - गानोँ के प्रोग्रामोँ मेँ हिस्सा लेना तो दरकिनार,मेरे नज़दीक ऐसे प्रोग्राम देखना भी एक तरह से ऐब था.लेकिन १९४५ ई. मेँबम्बई पहुँच कर मेरी अखलाकियात ( नैतिकता )की रस्सी कुछ ढीली हो गई थी उर मैँ इस तरह के प्रोग्राम कि जिसमे अश्लील्ता न हो !
उन दिनोँ की बात है, कि बँबई के कावसजी जहाँगीर होल मेँ "कलचरल स्क्वाड " का एक प्रोग्राम हुआ , जिसकी सूचना मुझे, अपने एक दोस्त प्रेमधवन से मिली जो शायर तो हैँ ही, डाँसर भी हैँ.
हाल खचाखच भरा हुआ था. परदे के पीछे से एनाउन्सर की आवाज़ और वाक्योँ मेँ साहित्यिक पुट तथा बातसे असर पैदा करने का सलीका था सुननेवालोँ पर १ मानो प्रोग्राम की बागडोर उस आवाज़ से बँधी थी ! मालूम हुआ कि ऐसे प्रोग्राम का सँचालन कर रहे थे नरेन्द्र जी अपने विशेष रोचक अन्दाज मेँ !
जब "कल्चरल स्क्वाड " पर उस समय की सरकार ने पाबँदी ला दी थी तो उसकी जगह इप्टा ने ले ली !
इप्टा और उसकी सरगर्मियोँ और कामयाबियोँ से थियेटर की दुनिया खूब वाकिफ थी.बँबई मेँ इस के पौधे को अपनी कला से सीँचनेवाले थे नरेन्द्र जी के कई साथी, जिनमेँ प्रमुख हैँ ख्वाजा अहमद अब्बास ( जिन्होँने आ के सुपर स्टार अमिताभ को अपनी फिल्म "सात हिन्दुस्तानी " मेम पहली बार फिल्म मेँ काम करने का मौका दिया था ) ( ये टिप्पणी - लावण्या की है ) बलराज साहनी, प्रेम धवन और उनके बाद शैलेन्द्र, हबीब तनवरी, मनी रबाडी, और शौकत व कैफी आज़मी इत्यादि.
अवामी ज़िन्दगी से नरेन्द्र जी की कुर्बत देखकर मेरे दिल मेँ उनकी इज्जत पहले ही दिन से पैदा हो गयी थी.
फिर कुछ दिन बाद जब मैँ आल इन्डिया रेडियो मेँ मुलाजिम हुआ तो मालूम हुआ कि किसी मतभेद की वजह से हिन्दी के लेखक और कवि आल इन्डिया रेडियो के कार्यक्रमोँ मेँ भाग ही न लेते थे - ले दे कर एक गोपाल सिँह नेपाली थे , जो
कभी कभी कविता पाठ करने आ जाते थे. कोई और प्रसिध्ध साहित्यकार इधर का रुख न करता था हाँ डा. मोतीचन्द्र ( जो प्रिन्स ओफ वेल्स म्युझियम के प्रमुख , कर्ता धर्ता थे ) और रणछोड लाल ज्ञानी जरुर आते थे.
और फिर देश स्वतँत्र हुआ. भाषा सम्बधी आकाशवाणी की नीति मेँ परिवर्तन आया. अब हम रेडियोवाले, हिन्दी लेखकोँ और कवियोँ की खोज करने लगे.
नीलकँठ तिवारी, रतन लाल जोशी, सरस्वती कुमार दीपक, सत्यकाम विध्यालँकार, वीरेन्द्र कुमार जैन, किशोरी रमन टँदन, डा. सशि शेखर नैथानी,सी. एल्. प्रभात, के. सी. शर्मा भिक्खु, भीष्म साहनी, - हिन्दी के अच्छे खासे लोग रेडियो के प्रोग्रामोँ मेम हिस्सा लेने लगे.
उन्हीँ दिनोँ हम लोगोँने पँ. नरेद्र शर्मा को भी आमादा किया कि वे हमारे प्रोग्रामोँ मेँ रुचि लेँ - वे फिल्मोँ के लिये लिखते थे.
एक विशेष कार्यक्रम का आयोजन किया गया, " "कवि और कलाकार" - उसमेँ सँगीत निर्देशक अनिल बिस्वास, अस. डी. बर्मन, नौशाद और सैलेश मुखर्जी ने गीतोँ और गज़लोँ की धुनेँ बनाईँ शकील, साहिर और डा.क्टर सफ्दर "आह" के अलावा नरेन्द्र जी के एक अनूठे गीत की धुन अनिल बिस्वास ने बनाई थी, जिसे लता मँगेशकर ने गाया था - " युग की सँध्या कृषक वधु सी,
किसला पँथ निहार रही "
पहले यह गीत कवि ने स्वयम्` पढा, फिर उसे गायिका ने गाया. उन दिनोँ आम चलते हुए गीतोँ का रिवाज़ हो गया था. और गज़ल के चमकते -दमकते लफ्ज़ोँ को गीतोँ मेँ पिरो कर अनगिनत फिल्मी गीत लिखे जा रहे थे. ऐसे माहौल मेँ नरेन्द्र जी का ये गीत सभी को अच्छा लगा , जिसमेँ , साहित्य के रँग के साथ भारत भूमि की सुगँध भी बसी हुई थी. और फिर हमारे हिन्दी विभाग के कार्यक्रमोँ मेँ नरेन्द्र जी स्वेच्छा से , आने जाने लगे.
एक बार नरेन्द्र जी ने, एक रुपक लिखा - " चाँद मेरा साथी " उन्होण्ने चाँद के बारे मेँ अपनी कई कवितायेँ जो विभिन्न मूड की थीँ, को रुपक की लडी मेँ इस प्रकार पिरोई थी कि मनिष्य की मनोस्थिति सामने आ जाती थी. वह सूत्र रुपक की जान था. मुझे रुपक रचने का यह विचित्र ढँग बहुत पसँद आया और आगे का प्रयोग किया.
मैँ, बम्बई रेडियो पर हिन्दी विभाग मेँ स्टाफ आर्टिस्ट था अब्दुल गनी फारुकी प्रोग्राम असिस्टेँट !
( ( क्रमश: ~~ अगले हिस्से मेँ पढिये किस तरह आकाशवाणी मेँ "विविधभारती " का एक स्वतँत्र इकाई के स्वरुप मेँ जनम हुआ ~~ )
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Lavni :~~
Wednesday, November 28, 2007
छोटी छोटी बातें
चिट्ठे पर चर्चा चल पड़ी है मंथन कार्यक्रम की तो मैनें भी सोचा कि क्यों न मंथन जैसे अन्य कार्यक्रमों की भी चर्चा कर ली जाए।
मंथन एक साप्ताहिक कार्यक्रम है जिसमें समसामयिक विषयों पर चर्चा होती है जैसे भारत ने खेल जगत की कौन सी प्रतियोगिता जीती या हारी। त्यौहार कैसे मनाए जा रहे है। बच्चों की शिक्षा का क्या हाल है। कुछ सामाजिक समस्याएं जैसे बाल मज़दूरी वग़ैरह वग़ैरह…
मेरी जानकारी में इस तरह का पहला कार्यक्रम है मंथन क्योंकि विविध भारती पर पहले शायद इस तरह के कार्यक्रम नहीं होते थे। परन्तु ऐसे कार्यक्रम क्षेत्रीय केन्द्र हैद्राबाद की विशेषता रही।
अन्य क्षेत्रीय केन्द्रों की तो मुझे जानकारी नहीं है लेकिन आकाशवाणी हैद्राबाद से ऐसे कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हुए। मंथन में तो तकनीकी सुविधा के कारण मुंबई में विविध भारती के स्टुडियो से देश के दूर दराज के कोने में बैठे श्रोता से किसी भी विषय पर फोन पर बात की जा सकती है और अलग-अलग क्षेत्रों के श्रोताओं की राय जान कर किसी विषय पर व्यापक चर्चा की जाती है।
लेकिन मैं जिन कार्यक्रमों की बात कर रही हूं वहां इस तरह की तकनीकी सुविधा नहीं थी। इसीलिए कार्यक्रम का स्वरूप भी अलग था। इन कार्यक्रमों में समसामयिक विषय या किसी समस्या पर श्रोताओं को जानकारी देने के लिए एक श्रृंखला प्रसारित की जाती थी।
इस श्रृंखला में कुछ ऐसे चरित्र होते थे जो समाज के विभिन्न वर्गों के आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते थे। दस मिनट का नाटक होता था जिसमें नाटकीय अंदाज़ में ही श्रोताओं को जानकारी दे दी जाती थी।
अक्सर ये कार्यक्रम साप्ताहिक होते थे लेकिन सत्तर के दशक में हैद्राबाद केन्द्र के उर्दू कार्यक्रमों मे एक ऐसा ही कार्यक्रम रोज़ प्रसारित होता था जिसका शीर्षक था छोटी छोटी बातें। वाकई समसामयिक विषयों पर बहुत सी बातें ऐसी होती है जो छोटी-छोटी ही होती है पर हम उन पर ध्यान नहीं देते जिससे हम समाज में ठीक से रह नहीं पाते और कई समस्याओं से अनजान रह जाते है साथ ही दुनिया की खबर भी नहीं रख पाते।
इसमें मुख्य चार चरित्र थे - चांद मियां जो अनपढ और दुनिया से बेखबर थे। उनकी पत्नी फातिमा बी भी ऐसी ही महिला थी। पत्नी क भाई लाला भाई कम पढा लिखा कम जानकार पर हीरो टाईप था। उनके घर उनके एक पढे लिखे पड़ौसी महबूब भाई रोज़ आते और दुनियादारी की बाते बता जाते थे।
कभी-कभी कभार कुछ और चरित्र भी जुड़ जाते जैसे प्याज़ बेचने वाले भीखू भाई, जानी मियां और बी पाशा का बहुत सारे बच्चों का परिवार, फातिमा बी की बहन मुन्नी जो कभी गांव से आ जाती।
इसे लिखा था अहमद जलीस ने जो उर्दू कार्यक्रम अधिकारी थे और जिन्होनें चांद मियां की भूमिका की थी।
ऐसा ही साप्ताहिक कार्यक्रम तेलुगु भाषा में भी होता था। ऐसा ही एक साप्ताहिक कार्यक्रम हिन्दी में महिला संसार में कार्यक्रम अधिकारी डा दुर्गा लक्ष्मी प्रसन्ना ने शुरू किया था - मौसी से मुलाकात शीर्षक से। जिसमें दो ही चरित्र थे - एक लड़की और उसकी मौसी जिसमें लड़की की भूमिका मैनें की थी और मौसी की भूमिका करने के साथ इसे लिखा भी था हैद्राबाद की जानी मानी कवियित्री, लेखिका डा प्रतिभा गर्ग ने।
मंथन एक साप्ताहिक कार्यक्रम है जिसमें समसामयिक विषयों पर चर्चा होती है जैसे भारत ने खेल जगत की कौन सी प्रतियोगिता जीती या हारी। त्यौहार कैसे मनाए जा रहे है। बच्चों की शिक्षा का क्या हाल है। कुछ सामाजिक समस्याएं जैसे बाल मज़दूरी वग़ैरह वग़ैरह…
मेरी जानकारी में इस तरह का पहला कार्यक्रम है मंथन क्योंकि विविध भारती पर पहले शायद इस तरह के कार्यक्रम नहीं होते थे। परन्तु ऐसे कार्यक्रम क्षेत्रीय केन्द्र हैद्राबाद की विशेषता रही।
अन्य क्षेत्रीय केन्द्रों की तो मुझे जानकारी नहीं है लेकिन आकाशवाणी हैद्राबाद से ऐसे कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हुए। मंथन में तो तकनीकी सुविधा के कारण मुंबई में विविध भारती के स्टुडियो से देश के दूर दराज के कोने में बैठे श्रोता से किसी भी विषय पर फोन पर बात की जा सकती है और अलग-अलग क्षेत्रों के श्रोताओं की राय जान कर किसी विषय पर व्यापक चर्चा की जाती है।
लेकिन मैं जिन कार्यक्रमों की बात कर रही हूं वहां इस तरह की तकनीकी सुविधा नहीं थी। इसीलिए कार्यक्रम का स्वरूप भी अलग था। इन कार्यक्रमों में समसामयिक विषय या किसी समस्या पर श्रोताओं को जानकारी देने के लिए एक श्रृंखला प्रसारित की जाती थी।
इस श्रृंखला में कुछ ऐसे चरित्र होते थे जो समाज के विभिन्न वर्गों के आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते थे। दस मिनट का नाटक होता था जिसमें नाटकीय अंदाज़ में ही श्रोताओं को जानकारी दे दी जाती थी।
अक्सर ये कार्यक्रम साप्ताहिक होते थे लेकिन सत्तर के दशक में हैद्राबाद केन्द्र के उर्दू कार्यक्रमों मे एक ऐसा ही कार्यक्रम रोज़ प्रसारित होता था जिसका शीर्षक था छोटी छोटी बातें। वाकई समसामयिक विषयों पर बहुत सी बातें ऐसी होती है जो छोटी-छोटी ही होती है पर हम उन पर ध्यान नहीं देते जिससे हम समाज में ठीक से रह नहीं पाते और कई समस्याओं से अनजान रह जाते है साथ ही दुनिया की खबर भी नहीं रख पाते।
इसमें मुख्य चार चरित्र थे - चांद मियां जो अनपढ और दुनिया से बेखबर थे। उनकी पत्नी फातिमा बी भी ऐसी ही महिला थी। पत्नी क भाई लाला भाई कम पढा लिखा कम जानकार पर हीरो टाईप था। उनके घर उनके एक पढे लिखे पड़ौसी महबूब भाई रोज़ आते और दुनियादारी की बाते बता जाते थे।
कभी-कभी कभार कुछ और चरित्र भी जुड़ जाते जैसे प्याज़ बेचने वाले भीखू भाई, जानी मियां और बी पाशा का बहुत सारे बच्चों का परिवार, फातिमा बी की बहन मुन्नी जो कभी गांव से आ जाती।
इसे लिखा था अहमद जलीस ने जो उर्दू कार्यक्रम अधिकारी थे और जिन्होनें चांद मियां की भूमिका की थी।
ऐसा ही साप्ताहिक कार्यक्रम तेलुगु भाषा में भी होता था। ऐसा ही एक साप्ताहिक कार्यक्रम हिन्दी में महिला संसार में कार्यक्रम अधिकारी डा दुर्गा लक्ष्मी प्रसन्ना ने शुरू किया था - मौसी से मुलाकात शीर्षक से। जिसमें दो ही चरित्र थे - एक लड़की और उसकी मौसी जिसमें लड़की की भूमिका मैनें की थी और मौसी की भूमिका करने के साथ इसे लिखा भी था हैद्राबाद की जानी मानी कवियित्री, लेखिका डा प्रतिभा गर्ग ने।
Monday, November 26, 2007
मंथन
कल दि. २६ नवेम्बर,२००७ के विविध भारती के कार्यक्रम मंथन (समय रात्री : ७.४५ पुन: प्रसारण बुधवार दि. २७-नवेम्बर, २००७ सुबह ९.१५ पर) का विषय ’फिल्मो का अधिक प्रचार कितना जायझ है ?’ होगा । इसके लिये मैनें भी श्री युनूसजी से बात की है । अगर हमारी बात गुणवत्ता क्रममें कार्यक्रमकी समय मर्यादा के अंदर संपादकको सही लगेगी तो आप उस समय सुन सकेंगे । अगर वह नहीं भी समाविष्ट हुई तो वह मेरे और मेरे कारण ही होगी । आशा है आप कार्यक्रम सुनंगे और उस पूरे कार्यक्रमकी समीक्षा भी करेंगे ।
पियुष महेता ।
पियुष महेता ।
उदय गान
मेरे सांध्य गीत के चिट्ठे पर पीयूष जी ने अपनी टिप्पणी में उदयगान कार्यक्रम की चर्चा की थी। आज मैं भी उदयगान कार्यक्रम पर ही कुछ लिखना चाहती हूं।
ये कार्यक्रम पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। इसका अंश देशगान के रूप में रोज़ सुबह प्रसारित होता है।
पहले वन्दनवार में भजनों के बाद 15 मिनट का देशभक्ति गीतों का कार्यक्रम हुआ करता था - उदयगान। इसमें तीन देशभक्ति गीत सुनवाए जाते थे। हर देशभक्ति गीत का पूरा विवरण बताया जाता था जैसे - गीतकार, संगीतकार और गायक कलाकार के नाम।
आजकल वन्दनवार में अंत में एक देशभक्ति गीत सुनवाया जाता है जिसका विवरण अधिकतर नहीं बताया जाता। कभी-कभार गीतकार या गायक कलाकार के नाम या कभी दोनों नाम बता दिए जाते है। इनके संगीतकार के नाम जैसे वनराज भाटिया - ऐसे नाम तो शायद कुछ श्रोता जान ही नहीं पाते होगें।
कुछ गीत तो ऐसे भी है जिन्हें सुने एक अर्सा बीत गया। ये गीत है -
सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना झांसी की रानी
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - भारती जय विजय करें
सुमित्रानन्दन पन्त - भारतमाता ग्राम वासिनी
सोहनलान द्विवेदी - बढे चलो बढे चलो
जयशंकर प्रसाद - यह भारतवर्ष हमारा है, हमको प्राणों से भी प्यारा है
अरूण यह मधुमय देश हमारा
श्यामलाल गुप्त पार्षद - विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा
बालकवि बैरागी - ये उम्र ये जवानी पाओगे कब दुबारा
मुझे प्यार से पुकारो मै देश हूं तुम्हारा
गिरिजा कुमार माथुर की अनुवादित रचना - हम होंगें कामयाब
और एक गीत जिसके गीतकार का नाम मुझे याद नहीं आ रहा -
देश की माटी कंचन है
अगर रोज़ गीत के साथ विवरण भी बताया जाए तो अच्छा रहेगा और उससे भी ज्यादा अच्छा होगा अगर उदयगान शीर्षक से ही दुबारा १५ मिनट का ही कार्यक्रम कर दिया जाए।
ये कार्यक्रम पूरी तरह से समाप्त नहीं हुआ है। इसका अंश देशगान के रूप में रोज़ सुबह प्रसारित होता है।
पहले वन्दनवार में भजनों के बाद 15 मिनट का देशभक्ति गीतों का कार्यक्रम हुआ करता था - उदयगान। इसमें तीन देशभक्ति गीत सुनवाए जाते थे। हर देशभक्ति गीत का पूरा विवरण बताया जाता था जैसे - गीतकार, संगीतकार और गायक कलाकार के नाम।
आजकल वन्दनवार में अंत में एक देशभक्ति गीत सुनवाया जाता है जिसका विवरण अधिकतर नहीं बताया जाता। कभी-कभार गीतकार या गायक कलाकार के नाम या कभी दोनों नाम बता दिए जाते है। इनके संगीतकार के नाम जैसे वनराज भाटिया - ऐसे नाम तो शायद कुछ श्रोता जान ही नहीं पाते होगें।
कुछ गीत तो ऐसे भी है जिन्हें सुने एक अर्सा बीत गया। ये गीत है -
सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना झांसी की रानी
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला - भारती जय विजय करें
सुमित्रानन्दन पन्त - भारतमाता ग्राम वासिनी
सोहनलान द्विवेदी - बढे चलो बढे चलो
जयशंकर प्रसाद - यह भारतवर्ष हमारा है, हमको प्राणों से भी प्यारा है
अरूण यह मधुमय देश हमारा
श्यामलाल गुप्त पार्षद - विजयी विश्व तिरंगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमारा
बालकवि बैरागी - ये उम्र ये जवानी पाओगे कब दुबारा
मुझे प्यार से पुकारो मै देश हूं तुम्हारा
गिरिजा कुमार माथुर की अनुवादित रचना - हम होंगें कामयाब
और एक गीत जिसके गीतकार का नाम मुझे याद नहीं आ रहा -
देश की माटी कंचन है
अगर रोज़ गीत के साथ विवरण भी बताया जाए तो अच्छा रहेगा और उससे भी ज्यादा अच्छा होगा अगर उदयगान शीर्षक से ही दुबारा १५ मिनट का ही कार्यक्रम कर दिया जाए।
Saturday, November 24, 2007
विविध भारती पर आज शाम चार बजे सुनिए सुधा मल्होत्रा से रेडियोसखी ममता सिंह की बातें
रेडियोनामा पर मैंने चित्र-पहेली पूछी थी और फिर अचानक ग़ायब हो गया । दरअसल इस पहेली का जवाब ज़रा आराम से और थोड़े दिलचस्प तरीक़े से देने की इच्छा है । कल सबेरे तक प्रतीक्षा कीजिए ।
पर फिलहाल एक ज़रूरी बात बताने के लिए मैं यहां आया हूं ।
अकसर श्रोताओं को शिकायत होती है कि रेडियो के महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों की ख़बर ज़रा पहले से दे दी जाए तो अच्छा रहता है । सबकी अपनी अपनी व्यस्तताएं होती हैं । और ऐसे में जो प्रोग्राम छूट जाता है उसे लेकर मन में अफसोस रह जाता है । तो आईये आज के एक अहम कार्यक्रम के बारे में आपको बता दिया जाए ।
आज आप विविध भारती पर गुज़रे दौर की महत्त्वपूर्ण गायिका सुधा मल्होत्रा से रेडियो-सखी ममता सिंह की बातचीत सुन सकते हैं । समय है शाम चार बजे । कार्यक्रम है पिटारा के अंतर्गत सरगम के सितारे ।
सुधा मल्होत्रा से ये बातचीत इस हफ्ते और उसके बाद अगले हफ्ते भी जारी रहेगी । यानी एक एक घंटे के दो कार्यक्रम होंगे । इस कार्यक्रम में सुधा जी ने बड़े प्रेम से अपने कैरियर और अपने समकालीनों की चर्चा की है । तो ज़रूर सुनिएगा सुधा मल्होत्रा का ये कार्यक्रम । फिलहाल सुधा जी के इस गाने के साथ मैं आपसे विदा लेता हूं ।
इस गाने की विवरण नहीं बताऊंगा । शायद आपको याद आ जायें । नहीं आये तो पूछ लीजिएगा ।
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और अन्नपूर्णा जी ये भजन आपके लिए---
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Friday, November 23, 2007
पियुष महेता द्वारा जारी संगीत पहेली क्रमांक १
पियुष महेता द्वारा जारी संगीत पहेली क्रमांक १
आज इरफानजी से क्षमा मांग कर मैं बी थोडा सा उनके नक्शे कदम पर चलने का दिखावा कर रहा हूँ
इधर एक गाने का शुरूआती संगीत प्रस्तूत कर रहा हूँ । जो रवि साहब के संगीतमें हमारी सबकी ग्रेट आशाजीने (यह शब्द श्री ब्रिज भूषणजी ने एक बार सी. रामचन्द्र के एक प्रायोजीत कार्यक्रममें लिया था, उसमें सी. रामचंदजीने नवरंग फिल्म मुजरा गीत आ दिल से दिल मिला ले के बारेमें बात करते हुए प्रयोजे थे ।} गाया है, इतना क्ल्यू शायद सही रहेगा ।
घन्यवाद ।
आज इरफानजी से क्षमा मांग कर मैं बी थोडा सा उनके नक्शे कदम पर चलने का दिखावा कर रहा हूँ
इधर एक गाने का शुरूआती संगीत प्रस्तूत कर रहा हूँ । जो रवि साहब के संगीतमें हमारी सबकी ग्रेट आशाजीने (यह शब्द श्री ब्रिज भूषणजी ने एक बार सी. रामचन्द्र के एक प्रायोजीत कार्यक्रममें लिया था, उसमें सी. रामचंदजीने नवरंग फिल्म मुजरा गीत आ दिल से दिल मिला ले के बारेमें बात करते हुए प्रयोजे थे ।} गाया है, इतना क्ल्यू शायद सही रहेगा ।
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Thursday, November 22, 2007
चित्र पहेली 3
यूनुस भाई के अनुसार तो चित्र पहेली को साप्ताहिक होना था लेकिन भाई नाहर ने यह बंधन स्वीकार नहीं किया है.मैं भी थोडा हठी हो रहा हूं. तो बताइये ये तीन फिल्मी पोस्टर किन फिल्मों के हैं.
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एक
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दो
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तीन
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एक
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दो
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तीन
चित्र पहेली
लीजिये चित्र पहेली का एक और अंक हाजिर है, मैं यहाँ तीन चित्र दे रहा हूँ, उन्हें पहचानिये। मुझे नहीं लगता कि कोई हिन्ट देने की जरूरत होगी।
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: चित्र-पहेली, रेडियोनामा, radio, radionama, radionamaa, photo-quiz,
विविध भारती के चाहने वाले ऐसे भी…
यह तो हम सभी जानते है कि हमारे देश में बहुत सी भाषाओं की फ़िल्में बनती है लेकिन हिन्दी फ़िल्में ही देश के सभी भागों में देखी जाती है।
जो हिन्दी नहीं जानते वे भी हिन्दी फ़िल्में देखना पसन्द करते है इसी से हिन्दी फ़िल्में देश भर में लोकप्रिय है और फ़िल्मों से ज्यादा लोकप्रिय है हिन्दी फ़िल्मी गीत और हिन्दी फ़िल्मों का अच्छा स्त्रोत होने से विविध भारती भी बहुत लोकप्रिय है।
यहां दक्षिण में भी विविध भारती से हिन्दी फ़िल्मी गीत सुनने वाले बहुत है हालांकि भाषा की समस्या के कारण गीत के बोल बताने और गुनगुनाने में दिक्कत होती है जिससे कई बार रोचक स्थितियां बन जाती है। ऐसे ही दो अनुभव मैं आपसे बांटना चाहती हूं।
एक अनुभव मेरे कालेज के दिनों का है। कालेज में गपशप के साथ कभी-कभी अंताक्षरी का दौर भी चलता था। एक बार अंताक्षरी में किसी ने एक गीत सुझाया। गीत के बारे में बताया कि चांद भी नहीं रहता, तारे भी नहीं रहते फिर भी हम रहता।
हम सब चौंक गए कि ये कौन सा गीत है। फिर हमने कहा कि नहीं ! ऐसा कोई गीत नही है। तब उसने कहा कि उसने ये गीत छाया गीत में बहुत बार सुना है। इसका मेल वरशन है और फ़ीमेल वरशन भी है। गीत स्लो है। तब हमने पहचाना ये गीत -
न ये चांद होगा न तारे रहेंगें
मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेगें
दूसरा अनुभव कार्यालय का है। यहां एक बार चर्चा छिड़ी की पुराने गाने ही ज्यादा अच्छे होते है। किसी ने बताया उन्हें हिन्दी के भी पुराने ही गाने अच्छे लगते है इसीलिए उन्हें विविध भारती का भूले दूसरे गीत कार्यक्रम बहुत पसन्द है और वो रोज़ सुनते है।
मैं ज़ोर से हंस पड़ी और वो हैरान रह गए। आगे बोले -
सच में मुझे ये प्रोग्राम अच्छा लगता है। देखो इसका टाइटिल भी कितना अच्छा है। सच में ये गाने सुन कर हम दूसरे गीत भूल जाते है।
अब हैरान होने की बारी मेरी थी, इस नए टाइटिल और इसकी नई और सही परिभाषा सुन कर। फिर मैनें उन्हें बताया शब्द बिसरना और भूलना और भूले-बिसरे शब्द का प्रयोग।
जो हिन्दी नहीं जानते वे भी हिन्दी फ़िल्में देखना पसन्द करते है इसी से हिन्दी फ़िल्में देश भर में लोकप्रिय है और फ़िल्मों से ज्यादा लोकप्रिय है हिन्दी फ़िल्मी गीत और हिन्दी फ़िल्मों का अच्छा स्त्रोत होने से विविध भारती भी बहुत लोकप्रिय है।
यहां दक्षिण में भी विविध भारती से हिन्दी फ़िल्मी गीत सुनने वाले बहुत है हालांकि भाषा की समस्या के कारण गीत के बोल बताने और गुनगुनाने में दिक्कत होती है जिससे कई बार रोचक स्थितियां बन जाती है। ऐसे ही दो अनुभव मैं आपसे बांटना चाहती हूं।
एक अनुभव मेरे कालेज के दिनों का है। कालेज में गपशप के साथ कभी-कभी अंताक्षरी का दौर भी चलता था। एक बार अंताक्षरी में किसी ने एक गीत सुझाया। गीत के बारे में बताया कि चांद भी नहीं रहता, तारे भी नहीं रहते फिर भी हम रहता।
हम सब चौंक गए कि ये कौन सा गीत है। फिर हमने कहा कि नहीं ! ऐसा कोई गीत नही है। तब उसने कहा कि उसने ये गीत छाया गीत में बहुत बार सुना है। इसका मेल वरशन है और फ़ीमेल वरशन भी है। गीत स्लो है। तब हमने पहचाना ये गीत -
न ये चांद होगा न तारे रहेंगें
मगर हम हमेशा तुम्हारे रहेगें
दूसरा अनुभव कार्यालय का है। यहां एक बार चर्चा छिड़ी की पुराने गाने ही ज्यादा अच्छे होते है। किसी ने बताया उन्हें हिन्दी के भी पुराने ही गाने अच्छे लगते है इसीलिए उन्हें विविध भारती का भूले दूसरे गीत कार्यक्रम बहुत पसन्द है और वो रोज़ सुनते है।
मैं ज़ोर से हंस पड़ी और वो हैरान रह गए। आगे बोले -
सच में मुझे ये प्रोग्राम अच्छा लगता है। देखो इसका टाइटिल भी कितना अच्छा है। सच में ये गाने सुन कर हम दूसरे गीत भूल जाते है।
अब हैरान होने की बारी मेरी थी, इस नए टाइटिल और इसकी नई और सही परिभाषा सुन कर। फिर मैनें उन्हें बताया शब्द बिसरना और भूलना और भूले-बिसरे शब्द का प्रयोग।
रेडियोनामा पर आज से शुरू हो रही है शानदार चित्र पहेली । पहचानिए कौन हैं फिल्म संसार की ये हस्तियां
रेडियोनामा पर फिल्म-पहेली शुरू करने की हम सभी अरसे से कोशिशें कर रहे हैं । पर अकसर मामला यहां आकर अटक जाता है कि अगर गाने की फिल्म का नाम पूछो तो भाई लोग इंटरनेट से खोजबीन कर लेते हैं । फिल्मों से जुड़े सवालों का भी यही हश्र होता है ।
अफलातून जी ने पहेली की श्रृंखला शुरू की थी । बड़ा मज़ा आया था । पर फिर वही दिक्कत आ गयी । लेकिन पिछले दिनों मेरे भाई ने एक आयडिया दिया । उसका कहना था कि अगर ब्लॉग पर पहेली हो तो या तो वो चित्र से जुड़ी हो या फिर साउंड यानी ध्वनि से । पर अगर उसमें भी शब्द आ गये तो अन्वेषी लोग इंटरनेट से खोजलेंगे । अभी हाल ही में इरफ़ान ने गानों के ओपनिंग म्यूजिक को लेकर बड़ा अच्छा खेल किया और अपनी पहेली में लोगों को उलझा दिया । इसमें सबसे अच्छी बात थी सूरत वाले भाई पियूष मेहता से पहले से ही माफी नामा के भैया आप इसमें भाग मत लेना क्योंकि आप तो बहुत बड़े ज्ञानी हो । मज़ा आया ये देखकर । और यहीं से 'पहेली' वाला कीड़ा अब हमें मजबूर कर रहा है कि हम हफ्तावार चित्र पहेली शुरू करें । और जरा आपकी ब्रेनस्टॉर्मिंग करवाएं ।
इस पहेली का ताल्लुक शुद्ध रूप से फिल्म संसार से रहेगा । फिल्मी हस्तियों के चित्रों से उनको पहचानने की कसरत होगी । पहेली का ये सिलसिला इस बात पर आगे तय होगा कि इसे आप जैसे सुधि पाठकों का कितना प्यार मिलता है, तो आईये इस बार की पहेली से उलझें । आप ही सुझाईये कि इस पहेली का जवाब कब दिया जाये । कितने दिनों का अंतराल रखा जाये जवाब देने के लिए पहचानिये इन फिल्मी हस्तियों को । कोई भी क्लू देने से सारा मजा खराब हो सकता है । इसलिए कोई सुराग नहीं दिया जायेगा सरकार ।
इस सादगी पर कौन ना मर जाए ऐ खुदा
पहचान लीजिए इन्हें तो आ जाए मज़ा ।।
हम भी कभी जवां थे दिल में थे शोले जवां
आज हमारी सूरत कुछ और है पहचान पाओगे कहां
तस्वीर भले हमारी छोटी हो पर नाम है बड़ा
सुराग़ मांगने की कोशिश की तो दे जायेंगे दग़ा
मज़े की बात ये है कि इन हस्तियों के नाम आपको बताने हैं क्रम से ।
और हम भी यूं ही बेगार नहीं टालेंगे जवाब देते हुए ।
आप देखिएगा कि इन हस्तियों का मुख्तसर यानी संक्षिप्त-सा परिचय दिया जायेगा । मौक़ा मिला तो इनसे जुड़ा एक एक गाना भी सुनवा दिया जायेगा । इस खेल में हमें कितना मज़ा आ रहा है इस चित्र में देखिए ।
अफलातून जी ने पहेली की श्रृंखला शुरू की थी । बड़ा मज़ा आया था । पर फिर वही दिक्कत आ गयी । लेकिन पिछले दिनों मेरे भाई ने एक आयडिया दिया । उसका कहना था कि अगर ब्लॉग पर पहेली हो तो या तो वो चित्र से जुड़ी हो या फिर साउंड यानी ध्वनि से । पर अगर उसमें भी शब्द आ गये तो अन्वेषी लोग इंटरनेट से खोजलेंगे । अभी हाल ही में इरफ़ान ने गानों के ओपनिंग म्यूजिक को लेकर बड़ा अच्छा खेल किया और अपनी पहेली में लोगों को उलझा दिया । इसमें सबसे अच्छी बात थी सूरत वाले भाई पियूष मेहता से पहले से ही माफी नामा के भैया आप इसमें भाग मत लेना क्योंकि आप तो बहुत बड़े ज्ञानी हो । मज़ा आया ये देखकर । और यहीं से 'पहेली' वाला कीड़ा अब हमें मजबूर कर रहा है कि हम हफ्तावार चित्र पहेली शुरू करें । और जरा आपकी ब्रेनस्टॉर्मिंग करवाएं ।
इस पहेली का ताल्लुक शुद्ध रूप से फिल्म संसार से रहेगा । फिल्मी हस्तियों के चित्रों से उनको पहचानने की कसरत होगी । पहेली का ये सिलसिला इस बात पर आगे तय होगा कि इसे आप जैसे सुधि पाठकों का कितना प्यार मिलता है, तो आईये इस बार की पहेली से उलझें । आप ही सुझाईये कि इस पहेली का जवाब कब दिया जाये । कितने दिनों का अंतराल रखा जाये जवाब देने के लिए पहचानिये इन फिल्मी हस्तियों को । कोई भी क्लू देने से सारा मजा खराब हो सकता है । इसलिए कोई सुराग नहीं दिया जायेगा सरकार ।
इस सादगी पर कौन ना मर जाए ऐ खुदा
पहचान लीजिए इन्हें तो आ जाए मज़ा ।।
हम भी कभी जवां थे दिल में थे शोले जवां
आज हमारी सूरत कुछ और है पहचान पाओगे कहां
तस्वीर भले हमारी छोटी हो पर नाम है बड़ा
सुराग़ मांगने की कोशिश की तो दे जायेंगे दग़ा
मज़े की बात ये है कि इन हस्तियों के नाम आपको बताने हैं क्रम से ।
और हम भी यूं ही बेगार नहीं टालेंगे जवाब देते हुए ।
आप देखिएगा कि इन हस्तियों का मुख्तसर यानी संक्षिप्त-सा परिचय दिया जायेगा । मौक़ा मिला तो इनसे जुड़ा एक एक गाना भी सुनवा दिया जायेगा । इस खेल में हमें कितना मज़ा आ रहा है इस चित्र में देखिए ।
चिट्ठाजगत पर सम्बन्धित: चित्र-पहेली, रेडियोनामा, radio, radionama, radionamaa, photo-quiz,
Wednesday, November 21, 2007
टाइम नईं है बाप !
क्विज़ रेडियो में आये सभी दोस्तो का शुक्रिया.
अभी जब जवाब भेज चुका तो देखा अन्नपूर्णा जी भी आ गईं. शायद मैं और वो एक ही समय पर अपने कीबोर्ड खटका रहे थे.
बहरहाल अन्नपूर्णा जी के लिये मुकेश के गाये कुछ गानों का गुलदस्ता.
यह हमारे उन परम मित्र रामसनेही के लिये भी है जिन्हें ज़िंदगी मे टाइम नहीं है लेकिन मुकेश को सुनने का अरमान भी है.
Tuesday, November 20, 2007
रेडियो क्विज़ टाइम: गाने पहचानिये
मित्रो पहचानिये कि इस एक ट्रैक में कौन-कौन से गाने हैं ?
पीयूष मेहता से माफ़ी के साथ.
पीयूष मेहता से माफ़ी के साथ.
सांध्य गीत
विविध भारती का दिन का प्रसारण पहले साढे चार बजे समाप्त हो जाता था और शाम का प्रसारण साढे छह बजे से शुरू होता था फिर सवा छह बजे से शुरू होने लगा।
शाम के प्रसारण में पहला कार्यक्रम सांध्य गीत होता था। इसमें फ़िल्मों से लिए गए भक्ति गीत सुनवाए जाते थे।
हालांकि फ़िल्मों के भक्ति गीत वास्तव में भजन नहीं होते क्योंकि ये स्थिति के अनुसार बनाए जाते है जैसे नायिका किसी मुश्किल में है और भगवान से प्रार्थना कर रही है, इसी तरह नायक, चरित्र अभिनेता या मां या सभी प्रार्थना करते है। फिर भी ये गीत अच्छे लगते है।
इस कार्यक्रम में बजने वाले सभी भक्ति गीत, नए हो या पुराने अच्छे लगते थे जैसे -
गीता दत्त और आशा भोंसले का ये गीत -
न मैं धन चाहूं न रतन चाहूं
तेरे चरणों की धूल मिल जाए
तो मैं तर जाऊं श्याम तर जाऊं
हे राम
या गुड्डी फ़िल्म की वाणी जयराम और साथियों की गाई प्रार्थना हो -
हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें
दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें
ऐसे और भी गीत है जो इस कार्यक्रम में सुने -
फ़िल्म नीलकमल और आवाज़ आशा भोंसले की -
मेरे रोम-रोम में बसने वाले राम
जगत के स्वामी हे अंतर्यामी मैं तुझसे क्या मागूं
आवाज़ लता की
बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे
मुझे दुनिया वालों से क्या काम रे (फ़िल्म - एक फूल चार कांटे)
तोरा मन दर्पण कहलाए (काजल)
कान्हा रे कान्हा तूने लाखों रास रचाए
फिर काहे तोसे और किसी का प्यार न भाए
कान्हा रे (फ़िल्म - ट्रक ड्राइवर)
कुछ पारम्परिक रचनाएं भी बजती थी जैसे फ़िल्म पूरब और पश्चिम से -
ओम जय जगदीश हरे
कुछ वास्तव में भजन होते थे जैसे फ़िल्म संगीत सम्राट तानसेन में महेन्द्र कपूर और कमल बारोट का गाया ये शिव स्तुति गान -
हे नटराज ! गंगाधर शंभो भोलेनाथ जय हो
जय जय जय विश्व नाथ जय जय कैलाश नाथ
हे शिव शंकर तुम्हारी जय हो
हे दया निधान गौरी नाथ चन्द्रभान अंग भस्म ज्ञानमाल
मैं रहूं सदा शरण तुम्हारी जय हो
फ़िल्म दुर्गामाता में एस जानकी की गाई दुर्गास्तुति।
कुछ धार्मिक फ़िल्मों की रचनाएं जैसे संपूर्ण रामायण, कैलाशपति
कुछ आरतियां भी अच्छी लगती थी -
मैं तो आरती उतारूं रे संतोशी माता की
तो कुछ भक्ति गीत मन को छू लेते थे जैसे मनाडे की आवाज में चंदा और बिजली फ़िल्म का ये गीत -
काल का पहिया घूमे रे भैय्या
तो कुछ पुरानी रचनाएं जैसे फ़िल्म आनन्द मठ की हेमन्त कुमार और गीता दत्त की गाई रचना - हरे मुरारी
सूची बहुत लम्बी है। कुछ सालों से सान्ध्य गीत कार्यक्रम यहां हैद्राबाद में प्रसारित नहीं हो रहा। विविध भारती से ही इसका प्रसारण बन्द हो गया या क्षेत्रीय प्रसारण के कारण हैद्राबाद में प्रसारित नहीं हो रहा, इसकी मुझे ठीक से जानकारी नहीं है।
लेकिन जब से ये कार्यक्रम बन्द हुआ है इन गीतों को हम सुन ही नहीं पा रहे।
शाम के प्रसारण में पहला कार्यक्रम सांध्य गीत होता था। इसमें फ़िल्मों से लिए गए भक्ति गीत सुनवाए जाते थे।
हालांकि फ़िल्मों के भक्ति गीत वास्तव में भजन नहीं होते क्योंकि ये स्थिति के अनुसार बनाए जाते है जैसे नायिका किसी मुश्किल में है और भगवान से प्रार्थना कर रही है, इसी तरह नायक, चरित्र अभिनेता या मां या सभी प्रार्थना करते है। फिर भी ये गीत अच्छे लगते है।
इस कार्यक्रम में बजने वाले सभी भक्ति गीत, नए हो या पुराने अच्छे लगते थे जैसे -
गीता दत्त और आशा भोंसले का ये गीत -
न मैं धन चाहूं न रतन चाहूं
तेरे चरणों की धूल मिल जाए
तो मैं तर जाऊं श्याम तर जाऊं
हे राम
या गुड्डी फ़िल्म की वाणी जयराम और साथियों की गाई प्रार्थना हो -
हमको मन की शक्ति देना मन विजय करें
दूसरों की जय से पहले खुद को जय करें
ऐसे और भी गीत है जो इस कार्यक्रम में सुने -
फ़िल्म नीलकमल और आवाज़ आशा भोंसले की -
मेरे रोम-रोम में बसने वाले राम
जगत के स्वामी हे अंतर्यामी मैं तुझसे क्या मागूं
आवाज़ लता की
बनवारी रे जीने का सहारा तेरा नाम रे
मुझे दुनिया वालों से क्या काम रे (फ़िल्म - एक फूल चार कांटे)
तोरा मन दर्पण कहलाए (काजल)
कान्हा रे कान्हा तूने लाखों रास रचाए
फिर काहे तोसे और किसी का प्यार न भाए
कान्हा रे (फ़िल्म - ट्रक ड्राइवर)
कुछ पारम्परिक रचनाएं भी बजती थी जैसे फ़िल्म पूरब और पश्चिम से -
ओम जय जगदीश हरे
कुछ वास्तव में भजन होते थे जैसे फ़िल्म संगीत सम्राट तानसेन में महेन्द्र कपूर और कमल बारोट का गाया ये शिव स्तुति गान -
हे नटराज ! गंगाधर शंभो भोलेनाथ जय हो
जय जय जय विश्व नाथ जय जय कैलाश नाथ
हे शिव शंकर तुम्हारी जय हो
हे दया निधान गौरी नाथ चन्द्रभान अंग भस्म ज्ञानमाल
मैं रहूं सदा शरण तुम्हारी जय हो
फ़िल्म दुर्गामाता में एस जानकी की गाई दुर्गास्तुति।
कुछ धार्मिक फ़िल्मों की रचनाएं जैसे संपूर्ण रामायण, कैलाशपति
कुछ आरतियां भी अच्छी लगती थी -
मैं तो आरती उतारूं रे संतोशी माता की
तो कुछ भक्ति गीत मन को छू लेते थे जैसे मनाडे की आवाज में चंदा और बिजली फ़िल्म का ये गीत -
काल का पहिया घूमे रे भैय्या
तो कुछ पुरानी रचनाएं जैसे फ़िल्म आनन्द मठ की हेमन्त कुमार और गीता दत्त की गाई रचना - हरे मुरारी
सूची बहुत लम्बी है। कुछ सालों से सान्ध्य गीत कार्यक्रम यहां हैद्राबाद में प्रसारित नहीं हो रहा। विविध भारती से ही इसका प्रसारण बन्द हो गया या क्षेत्रीय प्रसारण के कारण हैद्राबाद में प्रसारित नहीं हो रहा, इसकी मुझे ठीक से जानकारी नहीं है।
लेकिन जब से ये कार्यक्रम बन्द हुआ है इन गीतों को हम सुन ही नहीं पा रहे।
Saturday, November 17, 2007
एक मीठी सी तबस्सुम
आज मैं अपना बीसवा चिट्ठा लिख रही हूं और रेडियोनामा में चिट्ठों की सूची से पता चलता है कि ये पचहत्तरवां चिट्ठा है। बीस यानी दो दशक और ७५ यानी प्लैटिनम जुबली, तो मैनें सोचा आज माहौल थोड़ा खुशनुमा रखा जाए।
ख़ुशनुमा माहौल की बात हो और वो भी रेडियो के लिए तो तबस्सुम की बात न हो ये तो हो ही नहीं सकता।
तबस्सुम - यथा नाम तथा गुण। उर्दू में तबस्सुम का मतलब होता है मुस्कान। जब भी टेलीविजन पर तबस्सुम को देखा मोहक मुस्कान के साथ देखा। जब भी रेडियो पर तबस्सुम की खनकती आवाज़ सुनी माहौल ख़ुशनुमा हो गया।
चुटकुलों से ही कार्यक्रम को रोचक बना लेना तबस्सुम की ही कलाकारी है। तभी तो उन्हें चुटकुलों की महारानी कहा गया।
हर विषय पर तबस्सुम ने चुटकुला सुनाया। चाहे बच्चे हो, बुज़ुर्ग हो, स्कूल का माहौल हो, शादी का माहौल या फिर जंगल का शिकारी ही क्यों न हो, यहां तक कि तबस्सुम ने खुद अपने आप पर भी चुटकुले सुनाए। एक ऐसा ही चुटकुला यहां प्रस्तुत है -
एक बार तबस्सुम को विविध भारती पर एक कार्यक्रम देने जाना था। कार्यक्रम लाइव था यानि सीधा प्रसारण होना था।
उनके ड्राइवर ने अचानक छुट्टि ले ली। तबस्सुम को गाड़ी चलाना नहीं आता था तो उन्होनें टैक्सी में जाने का फैसला लिया।
उनके पति ने सलाह दी कि वो टेलिविजन पर भी कार्यक्रम देती है जिससे लोग उन्हें पहचानते है इसीलिए उन्हें बुर्का पहन कर जाना चाहिए।
बुर्के में तबस्सुम घर से निकलीं और थोड़ा आगे बढ कर वहां खड़ी एक टैक्सी के ड्राइवर से कहा कि रेडियो स्टेशन तक छोड़ दे। टैक्सीवाले ने कहा कि नहीं अब मैं कोई सवारी नहीं बैठाता, इस समय मैं काम नहीं करता क्योंकि अब थोड़ी ही देर में रेडियो से तबस्सुम का चुटकुलों का कार्यक्रम आने वाला है। मैं अब वही सुनूंगा।
तबस्सुम को बड़ी ख़ुशी हुई। मन में सोचा कि ये मेरा कितना बड़ा फैन है। मेरा कार्यक्रम सुनने के लिए ये तो काम-धंधा भी छोड़ देता है। वो ये तो नहीं कह सकतीं थीं कि जब तक तुम मुझे रेडियो स्टेशन तक नहीं ले जाओगे कार्यक्रम तो शुरू ही नहीं होगा, तो उन्होनें फिर एक बार अनुरोध किया लेकिन टैक्सी वाला नहीं माना।
फिर तबस्सुम ने अपनी पर्स से एक बड़ा नोट निकाला और टैक्सीवाले की ओर बढाया। टैक्सी वाले ने झट से नोट लपक लिया और कहा -
आओ बहनजी बैठो, मारो गोली तबस्सुम वबस्सुम और उसके प्रोग्राम को।
ख़ुशनुमा माहौल की बात हो और वो भी रेडियो के लिए तो तबस्सुम की बात न हो ये तो हो ही नहीं सकता।
तबस्सुम - यथा नाम तथा गुण। उर्दू में तबस्सुम का मतलब होता है मुस्कान। जब भी टेलीविजन पर तबस्सुम को देखा मोहक मुस्कान के साथ देखा। जब भी रेडियो पर तबस्सुम की खनकती आवाज़ सुनी माहौल ख़ुशनुमा हो गया।
चुटकुलों से ही कार्यक्रम को रोचक बना लेना तबस्सुम की ही कलाकारी है। तभी तो उन्हें चुटकुलों की महारानी कहा गया।
हर विषय पर तबस्सुम ने चुटकुला सुनाया। चाहे बच्चे हो, बुज़ुर्ग हो, स्कूल का माहौल हो, शादी का माहौल या फिर जंगल का शिकारी ही क्यों न हो, यहां तक कि तबस्सुम ने खुद अपने आप पर भी चुटकुले सुनाए। एक ऐसा ही चुटकुला यहां प्रस्तुत है -
एक बार तबस्सुम को विविध भारती पर एक कार्यक्रम देने जाना था। कार्यक्रम लाइव था यानि सीधा प्रसारण होना था।
उनके ड्राइवर ने अचानक छुट्टि ले ली। तबस्सुम को गाड़ी चलाना नहीं आता था तो उन्होनें टैक्सी में जाने का फैसला लिया।
उनके पति ने सलाह दी कि वो टेलिविजन पर भी कार्यक्रम देती है जिससे लोग उन्हें पहचानते है इसीलिए उन्हें बुर्का पहन कर जाना चाहिए।
बुर्के में तबस्सुम घर से निकलीं और थोड़ा आगे बढ कर वहां खड़ी एक टैक्सी के ड्राइवर से कहा कि रेडियो स्टेशन तक छोड़ दे। टैक्सीवाले ने कहा कि नहीं अब मैं कोई सवारी नहीं बैठाता, इस समय मैं काम नहीं करता क्योंकि अब थोड़ी ही देर में रेडियो से तबस्सुम का चुटकुलों का कार्यक्रम आने वाला है। मैं अब वही सुनूंगा।
तबस्सुम को बड़ी ख़ुशी हुई। मन में सोचा कि ये मेरा कितना बड़ा फैन है। मेरा कार्यक्रम सुनने के लिए ये तो काम-धंधा भी छोड़ देता है। वो ये तो नहीं कह सकतीं थीं कि जब तक तुम मुझे रेडियो स्टेशन तक नहीं ले जाओगे कार्यक्रम तो शुरू ही नहीं होगा, तो उन्होनें फिर एक बार अनुरोध किया लेकिन टैक्सी वाला नहीं माना।
फिर तबस्सुम ने अपनी पर्स से एक बड़ा नोट निकाला और टैक्सीवाले की ओर बढाया। टैक्सी वाले ने झट से नोट लपक लिया और कहा -
आओ बहनजी बैठो, मारो गोली तबस्सुम वबस्सुम और उसके प्रोग्राम को।
फिल्मी धून : १ लाखो है यहाँ दिल वाले
फिल्मी धून : १
साझ : माऊथ ओरगन
कलाकार : शैकत मुकर्जी
फिल्म : किस्मत
शुरूआती बोल : लाखो है यहाँ दिल वाले
साझ : माऊथ ओरगन
कलाकार : शैकत मुकर्जी
फिल्म : किस्मत
शुरूआती बोल : लाखो है यहाँ दिल वाले
|
Friday, November 16, 2007
प्रसारित किए गए कार्यक्रम
स्वर्गीय श्री मुकेशचंद्र माथुर जी पर आधारित
[ 1 ]
http://www.yousendit.com/transfer.php?action=download&ufid=11F65A800943CE01 आज रेडियो के माध्यम द्वारा , भारत के ,सिनेमा - संगीत के क्षेत्र से जुड़े २ अनुपम कलाकारों के बारे में , विदेश में प्रसारित किए गए कार्यक्रम, आप तक पहुंचा रही हूँ -
- इन में, प्रथम २ स्वर्गीय श्री मुकेशचंद्र माथुर जी पर आधारित हैं और तीसरी कड़ी ,केनेडा में प्रसारित रेडियो प्रोग्राम है, स्वर कोकिला सुश्री लता मंगेशकर जी पर आधारित , श्रध्धान्जली ~~तो सुनिए और आनंदतित हो जाइए
**********************************************************************
( On the occasion of Mukeshji's anniversary Ameen Sayani's Radio Program )
[ 2 ]
http://music2/.
multiply. com/music/ item/5 और केनेडा से
स्वर कोकिला सुश्री लता मंगेशकर जी पर आधारित , श्रध्धान्जली
[ 3 ]
http://www.bhajanawali.com/webcast/index.php?start=43&jump_value=20&brand=&order= संकलन : लावण्या
[ 1 ]
http://www.yousendit.com/transfer.php?action=download&ufid=11F65A800943CE01 आज रेडियो के माध्यम द्वारा , भारत के ,सिनेमा - संगीत के क्षेत्र से जुड़े २ अनुपम कलाकारों के बारे में , विदेश में प्रसारित किए गए कार्यक्रम, आप तक पहुंचा रही हूँ -
- इन में, प्रथम २ स्वर्गीय श्री मुकेशचंद्र माथुर जी पर आधारित हैं और तीसरी कड़ी ,केनेडा में प्रसारित रेडियो प्रोग्राम है, स्वर कोकिला सुश्री लता मंगेशकर जी पर आधारित , श्रध्धान्जली ~~तो सुनिए और आनंदतित हो जाइए
**********************************************************************
( On the occasion of Mukeshji's anniversary Ameen Sayani's Radio Program )
[ 2 ]
http://music2/.
multiply. com/music/ item/5 और केनेडा से
स्वर कोकिला सुश्री लता मंगेशकर जी पर आधारित , श्रध्धान्जली
[ 3 ]
http://www.bhajanawali.com/webcast/index.php?start=43&jump_value=20&brand=&order= संकलन : लावण्या
Thursday, November 15, 2007
हवा महल के झरोखे
हवा महल हमारे देश के उन चुनिंदा स्थलों में से एक है जिसे देशी विदेशी पर्यटक पसन्द करते है। हवा महल में झरोखे ही झरोखे है इसीलिए यह अनोखा महल है जहां सिर्फ़ खिड़कियां है। खिड़कियों का मतलब होता है ताज़ा हवा के झोकें।
वैसे हवा महल के बारे में (राजस्थान में जयपुर स्थित वो हवामहल नहीं जिसकी हमने अभी चर्चा की) एक कहावत भी है हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में - हवाई क़िले बनाना और डू नाट बिल्ड कैसेल इन द एयर
हमें ये तो पता नहीं कि विविध भारती के कार्यक्रम हवामहल का नाम इस महल से संबंधित है या कहावतों से। हमें तो रेडियोनामा के चिट्ठों से इतनी ही जानकारी मिली है कि हवामहल विविध भारती के शुरूवाती कार्यक्रमों में से एक है और ये नाम पंडित नरेन्द्र शर्मा ने दिया है।
हवामहल के झरोखों की तरह ही इस कार्यक्रम से जुड़े कुछ नाम है जिनकी सृजनशीलता न सिर्फ़ ताज़े हवा के झोकें है बल्कि माहौल को भी ख़ुशनुमा बनाते है।
सबसे पहले हम चर्चा करेंगें इसके निर्माता-निर्देशकों की। हास्य झलकियों के लिए पहला नाम है गंगाप्रसाद माथुर और उनकी सहायिका कुमारी परवीन (शायद नाम लिखने में ग़लती हो रही हो)
हास्य के अलावा सामाजिक समस्याओं पर आधारित नाटकों में पहला नाम रहा चिरंजीव का।
इसके अलावा साहित्य के कथा उपन्यास से भी नाट्य रूपान्तर किए गए जैसे शरतचन्द्र , रविन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचन्द की रचनाएं - परिणीता, नौका डूबी, जीवित या मृत, पूस की रात।
कुछ धारावाहिक के रूप में - मुंशी इतवारी लाल , म्यूज़िक मास्टर भोलाशंकर भी प्रसारित हुए।
इन्हें श्रोताओं तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया दीनानाथ जी, जयदेव शर्मा कमल, सत्येन्द्र शरत, चन्द्रप्रभा भटनागर
अब उन लेखकों की चर्चा जिनकी लेखनी ने इस कार्यक्रम में जान डाल दी। उल्लेखनीय नाम - के पी सक्सेना, दिलीप सिंह, सोमनाथ नागर और हैद्राबाद आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी और लेखक अज़हर अफ़सर
कलाकारों की बात करने से पहले एक बात बता दूं कि अधिकतर झलकियों में पति-पत्नी में नोंक-झोक होती थी जिसमें झगड़ालू पत्नी का सबसे अच्छा स्वर रहा - मंजू मिश्रा
अब उन झलकियों के नाम जो वर्षों से श्रोताओं के दिलों पर राज कर रही है - रेस की घोड़ी (दिलीप सिंह), टपकते सितारें (सोमनाथ नागर), ज़मीं के लोग, आसमान की सैर, मरने के बाद, करौंदे की चटनी, उदयपुर की ट्रेन और भी बहुत से नाम…
वैसे हवा महल के बारे में (राजस्थान में जयपुर स्थित वो हवामहल नहीं जिसकी हमने अभी चर्चा की) एक कहावत भी है हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में - हवाई क़िले बनाना और डू नाट बिल्ड कैसेल इन द एयर
हमें ये तो पता नहीं कि विविध भारती के कार्यक्रम हवामहल का नाम इस महल से संबंधित है या कहावतों से। हमें तो रेडियोनामा के चिट्ठों से इतनी ही जानकारी मिली है कि हवामहल विविध भारती के शुरूवाती कार्यक्रमों में से एक है और ये नाम पंडित नरेन्द्र शर्मा ने दिया है।
हवामहल के झरोखों की तरह ही इस कार्यक्रम से जुड़े कुछ नाम है जिनकी सृजनशीलता न सिर्फ़ ताज़े हवा के झोकें है बल्कि माहौल को भी ख़ुशनुमा बनाते है।
सबसे पहले हम चर्चा करेंगें इसके निर्माता-निर्देशकों की। हास्य झलकियों के लिए पहला नाम है गंगाप्रसाद माथुर और उनकी सहायिका कुमारी परवीन (शायद नाम लिखने में ग़लती हो रही हो)
हास्य के अलावा सामाजिक समस्याओं पर आधारित नाटकों में पहला नाम रहा चिरंजीव का।
इसके अलावा साहित्य के कथा उपन्यास से भी नाट्य रूपान्तर किए गए जैसे शरतचन्द्र , रविन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचन्द की रचनाएं - परिणीता, नौका डूबी, जीवित या मृत, पूस की रात।
कुछ धारावाहिक के रूप में - मुंशी इतवारी लाल , म्यूज़िक मास्टर भोलाशंकर भी प्रसारित हुए।
इन्हें श्रोताओं तक पहुंचाने का महत्वपूर्ण काम किया दीनानाथ जी, जयदेव शर्मा कमल, सत्येन्द्र शरत, चन्द्रप्रभा भटनागर
अब उन लेखकों की चर्चा जिनकी लेखनी ने इस कार्यक्रम में जान डाल दी। उल्लेखनीय नाम - के पी सक्सेना, दिलीप सिंह, सोमनाथ नागर और हैद्राबाद आकाशवाणी के कार्यक्रम अधिकारी और लेखक अज़हर अफ़सर
कलाकारों की बात करने से पहले एक बात बता दूं कि अधिकतर झलकियों में पति-पत्नी में नोंक-झोक होती थी जिसमें झगड़ालू पत्नी का सबसे अच्छा स्वर रहा - मंजू मिश्रा
अब उन झलकियों के नाम जो वर्षों से श्रोताओं के दिलों पर राज कर रही है - रेस की घोड़ी (दिलीप सिंह), टपकते सितारें (सोमनाथ नागर), ज़मीं के लोग, आसमान की सैर, मरने के बाद, करौंदे की चटनी, उदयपुर की ट्रेन और भी बहुत से नाम…
Wednesday, November 14, 2007
, गुन्जन, नुपूर, साझ और आवाझ
आदरणीय श्रीमती अन्नपूर्णाजी,
जैसे लोग फिल्मी गीतो को याद रख़ते है , ठीक उसी तरह मैं फिल्मी धूनों को याद रख़ता हूँ । और मनमें ही मनमें लोग जिस तराह गानों के वाद्यवृंद के साथ शब्दावलि मन में याद रख़के गुनगुनाते है, ठीक उसी तरह मेरे दिमागमें उन धूनो का उस धून में मेलोडी पार्ट का एक या कभी कभी दो मुख्य साझ पर बजा हुआ हिस्सा और गीतोके वाद्यवृंद के हिसाब से धूनमे बजाया गये हिस्से वाली पर कभी थोडी सी अलग सी और मुल गीत की संगीत रचना की सरगम को कहीं साझो का फेर-बदल करके की गयी प्रस्तूती यह सब एक बार कोई धून मैं सुन लेता हूँ, तो मेरे दिमागमें काफी़ हद तक रेकोर्ड हो जाता है । और वही धून बादमें जब फिर सुननेमें आती है, और उस धून के बजाने वाले की माहिती एक बार रेडियो पर सुननी या रेकोर्ड या सीडी पर पढीं होती है, तब मेरे मनमें वह माहिती धूनको सुनते ही आ जाती है । मेरे अपने पास भी धूनो का तगडा संग्रह है, जो केसेट्स में है और जिसमें कई अलभ्य भी है जो रेडियो से भी इकठ्ठी की है उनको धीरे धीरे एमपी३ में तबदील कर रहा हूँ । अगर पाठको के रस का विषय रहा तो इनमें से कोई कोई इस ब्लोग पर प्रस्तूत अपनी सुविधा अनुसार करूँगा । आपने जो किस्मत फिल्म के लाखो है यहाँ दिल वाले की धून को याद किया है वह एक समय हवाईन गिटार पर शायद दिपानकर सेनगुप्ता की बजाई आती थी पर बादमें वही धून माऊथ ओरगन पर एक एच. एम. वी. की एल.पी. में श्री शैकत मुकरजीने बजाई । फिल्म लव इन टोकीयो के गीत सायोनारा की धून विविध भारती से नहीं पर रेडियो श्री लंकासे सोलोवोक्स पर श्री केरशी मिस्त्री और प्यानो-एकोर्डियन ( जो हकिकतमें एकोर्डियन ही होता है) पर स्व. श्री गुडी़ सिरवाईने युगल बंदीमें प्रस्तूत की थी । इस धूनमें ताल वाध्यो के सिवा पूरी धून बीच वाले संगीत के साथ इन दो कलाकारोने ही बजाई है । विविध भारती और रेडियो श्री लंका दोनो केन्द्रोके बहोत से लोग युनूसजी और रेडियो सखी ममताजी सहीत मेरे इस पागलपन से भली-भांती परिचीत है । मैनें धून आधारित कार्यक्रम को फिरसे शुरू करने के लिये कई बार लिखा है और इन दोनों सहीत और श्री महेन्द्र मोदी साहबको उनके कार्यालयमें भी कई बार बातें की है । आप सभी को पत्रावलिमें ई मेईल करे ऐसा मेरा आग्रह भरा अनुरोध है । फिल्म प्रेम पर्बत के गीत ये दिल और उनकी निगाहो के साये की धून मैनें सितार पर नहीं पर एक धून शहनाई पर कन्हैयालाल की (वाद्यवृन्द संयोजन श्री ऎनिक डेनियेल्स) और दूसरी पियानो पर श्री केरशी मिस्त्री की बजाई हुई सुनी है और दोनो की दोनो मेरे संग्रहमें है । करीब अगस्त २००२ के बाद साझ और आवाझ जो हर शुक्रवार के दिन ७.४५ से ८.०० बजे तक होता था जो बादमें उन लोगोने बंध करके जिज्ञासा उसी समय पर फिरसे शुरू किया है, और फिल्मी धूनो को अभी करीब शाम ६.०८ पर कोई भी उदघोषणा बिना प्रस्यूत किया जा रहा है । करीब ६ से ७ मिनिट की समय-पुर्ति के रूपमें, जिसमें ज्यादा तर प्रथम धून पूरी बजती है । सबसे पहेले गुन्जन कार्यक्रम करीब ११.३० या ११.४५ पर होती थी, जिस जमानेमें १०.१५ पर रसवंती पूराने गानों का आता था और १२.३० पर विविध भारती की दूसरी सभा समाप्त होती थी । बादमें १०.१५ और रात्री ९.१० पर गुन्जन शुरू होने पर साझ और आवाझ सिर्फ़ एक ही राग वाली शास्त्रीय वाद्य और कंठ संगीत का कार्यक्रम बना था जो संगीत सरिता शुरू होने तक चला था । और संगीत सरिता शुरु होने पर गुन्जन बंध कर साझ और आवाझ को शुरूमें उसी समय फिल्मी गीतो और उनकी धूनो का बनाया गया था । अगर किसी पाठक को इस बारेंमें वोईस चेटिन्गमें भी बात करनी हो तो स्वागत है । एक बार युनूसजीने अपने कार्यालयमें मुझसे विविध भारती की लायब्रेरीमें सालों से नहीं बजी ७८ आरापीएम और ईपीझ की लिस्ट मांगी थी जो सालों से इस चेनल पर एक लम्बे अरसे से नहीं प्रस्तूत हुई, तब मैनेम एक लम्बी लिस्ट वहाँ की वहाँ अपने दिमागी याददास्स्त पर लिख़ कर दी थी । पर हाय विविध भारती लायब्रेरी का रख़ रखाव ! वे ज्यादा कुछ नहीं कर सके । इस बारेमें रेडियो श्री लंका की लायब्रेरी का रख रखाव का मेरा अनुभव बहोत बहोत सुंदर रहा । वहाँ से मेरी याद दिलाई कई धूनो और गीतो जो अरसे से नहीं बजे हो श्रीमती पद्मिनी परेरा (जो भारतीय नहीं पर श्रीलंकन ही है फिर भी) बजाती ही है ।
पियुष महेता।
जैसे लोग फिल्मी गीतो को याद रख़ते है , ठीक उसी तरह मैं फिल्मी धूनों को याद रख़ता हूँ । और मनमें ही मनमें लोग जिस तराह गानों के वाद्यवृंद के साथ शब्दावलि मन में याद रख़के गुनगुनाते है, ठीक उसी तरह मेरे दिमागमें उन धूनो का उस धून में मेलोडी पार्ट का एक या कभी कभी दो मुख्य साझ पर बजा हुआ हिस्सा और गीतोके वाद्यवृंद के हिसाब से धूनमे बजाया गये हिस्से वाली पर कभी थोडी सी अलग सी और मुल गीत की संगीत रचना की सरगम को कहीं साझो का फेर-बदल करके की गयी प्रस्तूती यह सब एक बार कोई धून मैं सुन लेता हूँ, तो मेरे दिमागमें काफी़ हद तक रेकोर्ड हो जाता है । और वही धून बादमें जब फिर सुननेमें आती है, और उस धून के बजाने वाले की माहिती एक बार रेडियो पर सुननी या रेकोर्ड या सीडी पर पढीं होती है, तब मेरे मनमें वह माहिती धूनको सुनते ही आ जाती है । मेरे अपने पास भी धूनो का तगडा संग्रह है, जो केसेट्स में है और जिसमें कई अलभ्य भी है जो रेडियो से भी इकठ्ठी की है उनको धीरे धीरे एमपी३ में तबदील कर रहा हूँ । अगर पाठको के रस का विषय रहा तो इनमें से कोई कोई इस ब्लोग पर प्रस्तूत अपनी सुविधा अनुसार करूँगा । आपने जो किस्मत फिल्म के लाखो है यहाँ दिल वाले की धून को याद किया है वह एक समय हवाईन गिटार पर शायद दिपानकर सेनगुप्ता की बजाई आती थी पर बादमें वही धून माऊथ ओरगन पर एक एच. एम. वी. की एल.पी. में श्री शैकत मुकरजीने बजाई । फिल्म लव इन टोकीयो के गीत सायोनारा की धून विविध भारती से नहीं पर रेडियो श्री लंकासे सोलोवोक्स पर श्री केरशी मिस्त्री और प्यानो-एकोर्डियन ( जो हकिकतमें एकोर्डियन ही होता है) पर स्व. श्री गुडी़ सिरवाईने युगल बंदीमें प्रस्तूत की थी । इस धूनमें ताल वाध्यो के सिवा पूरी धून बीच वाले संगीत के साथ इन दो कलाकारोने ही बजाई है । विविध भारती और रेडियो श्री लंका दोनो केन्द्रोके बहोत से लोग युनूसजी और रेडियो सखी ममताजी सहीत मेरे इस पागलपन से भली-भांती परिचीत है । मैनें धून आधारित कार्यक्रम को फिरसे शुरू करने के लिये कई बार लिखा है और इन दोनों सहीत और श्री महेन्द्र मोदी साहबको उनके कार्यालयमें भी कई बार बातें की है । आप सभी को पत्रावलिमें ई मेईल करे ऐसा मेरा आग्रह भरा अनुरोध है । फिल्म प्रेम पर्बत के गीत ये दिल और उनकी निगाहो के साये की धून मैनें सितार पर नहीं पर एक धून शहनाई पर कन्हैयालाल की (वाद्यवृन्द संयोजन श्री ऎनिक डेनियेल्स) और दूसरी पियानो पर श्री केरशी मिस्त्री की बजाई हुई सुनी है और दोनो की दोनो मेरे संग्रहमें है । करीब अगस्त २००२ के बाद साझ और आवाझ जो हर शुक्रवार के दिन ७.४५ से ८.०० बजे तक होता था जो बादमें उन लोगोने बंध करके जिज्ञासा उसी समय पर फिरसे शुरू किया है, और फिल्मी धूनो को अभी करीब शाम ६.०८ पर कोई भी उदघोषणा बिना प्रस्यूत किया जा रहा है । करीब ६ से ७ मिनिट की समय-पुर्ति के रूपमें, जिसमें ज्यादा तर प्रथम धून पूरी बजती है । सबसे पहेले गुन्जन कार्यक्रम करीब ११.३० या ११.४५ पर होती थी, जिस जमानेमें १०.१५ पर रसवंती पूराने गानों का आता था और १२.३० पर विविध भारती की दूसरी सभा समाप्त होती थी । बादमें १०.१५ और रात्री ९.१० पर गुन्जन शुरू होने पर साझ और आवाझ सिर्फ़ एक ही राग वाली शास्त्रीय वाद्य और कंठ संगीत का कार्यक्रम बना था जो संगीत सरिता शुरू होने तक चला था । और संगीत सरिता शुरु होने पर गुन्जन बंध कर साझ और आवाझ को शुरूमें उसी समय फिल्मी गीतो और उनकी धूनो का बनाया गया था । अगर किसी पाठक को इस बारेंमें वोईस चेटिन्गमें भी बात करनी हो तो स्वागत है । एक बार युनूसजीने अपने कार्यालयमें मुझसे विविध भारती की लायब्रेरीमें सालों से नहीं बजी ७८ आरापीएम और ईपीझ की लिस्ट मांगी थी जो सालों से इस चेनल पर एक लम्बे अरसे से नहीं प्रस्तूत हुई, तब मैनेम एक लम्बी लिस्ट वहाँ की वहाँ अपने दिमागी याददास्स्त पर लिख़ कर दी थी । पर हाय विविध भारती लायब्रेरी का रख़ रखाव ! वे ज्यादा कुछ नहीं कर सके । इस बारेमें रेडियो श्री लंका की लायब्रेरी का रख रखाव का मेरा अनुभव बहोत बहोत सुंदर रहा । वहाँ से मेरी याद दिलाई कई धूनो और गीतो जो अरसे से नहीं बजे हो श्रीमती पद्मिनी परेरा (जो भारतीय नहीं पर श्रीलंकन ही है फिर भी) बजाती ही है ।
पियुष महेता।
Tuesday, November 13, 2007
साज़ और आवाज़
पिछले सप्ताह अपने चिट्ठे में पीयूष मेहता जी ने गुंजन कार्यक्रम की चर्चा की थी। आज मैं विविध भारती के ऐसे ही एक कार्यक्रम की चर्चा कर रही हूं - साज़ और आवाज़
पहले इस कार्यक्रम का प्रसारण दोपहर में होता था। समय 1:30 या 2:00 बजे कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा। प्रसारण का दिन भी याद नहीं आ रहा।
कुछ समय बाद यह कार्यक्रम बंद हो गया। विविध भारती से ही बंद हुआ या क्षेत्रीय प्रसारण के कारण यहां हैद्राबाद में सुना नहीं जा सका इस बारे में ठीक से पता नहीं है।
कुछ समय बाद फिर से इसका प्रसारण शुरू हो गया। इस बार प्रसारण समय था रात में जयमाला के बाद 7:45 से 8:00 बजे तक। प्रसारण का दिन शायद रविवार। लेकिन अधिक दिन तक यह कार्यक्रम नहीं चला और कुछ ही साल से यहां सुनाई नहीं दे रहा है।
इस कार्यक्रम में एक फ़िल्मी गीत की धुन किसी साज़ पर बजाई जाती थी फिर यही गीत सुनवाया जाता था। गीत का विवरण तो बताया ही जाता था साथ में यह भी बताया जाता था कि धुन किस साज़ पर और किस कलाकार ने बजाई है।
माउथ आर्गन पर भी कई कलाकारों ने धुनें बजाई। किस्मत फ़िल्म (विश्वजीत और बबिता) में महेन्द्र कपूर के गाए गीतों की धुनें गिटार पर अच्छी लगती थी।
लव इन टोकियो फ़िल्म के लोकप्रिय गीत सायोनारा की धुन भी बहुत अच्छी लगती थी पर इस साज़ का नाम याद नहीं आ रहा।
सबसे अच्छी धुन थी सितार पर राग पहाड़ी में फ़िल्म प्रेमपर्वत के इस गीत की -
ये दिल और उनकी निगाहों के साए
मुझे खेद है कि इस समय एक भी वादक कलाकार का नाम मुझे याद नहीं आ रहा।
क्या ही अच्छा हो कि इस तरह की धुनें सुनाना विविध भारती फिर से शुरू करे। कम से कम पांच मिनट का ही कार्यक्रम जिसमें एक धुन और वादक कलाकार का नाम हो।
आज का युवा वर्ग भी संगीत से बहुत लगाव रखता है तो इन युवा कलाकारों को भी मौका मिल जाएगा और पुराने वादक कलाकारों की धुनें भी फिर से सुनने को मिल जाएगी।
पहले इस कार्यक्रम का प्रसारण दोपहर में होता था। समय 1:30 या 2:00 बजे कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा। प्रसारण का दिन भी याद नहीं आ रहा।
कुछ समय बाद यह कार्यक्रम बंद हो गया। विविध भारती से ही बंद हुआ या क्षेत्रीय प्रसारण के कारण यहां हैद्राबाद में सुना नहीं जा सका इस बारे में ठीक से पता नहीं है।
कुछ समय बाद फिर से इसका प्रसारण शुरू हो गया। इस बार प्रसारण समय था रात में जयमाला के बाद 7:45 से 8:00 बजे तक। प्रसारण का दिन शायद रविवार। लेकिन अधिक दिन तक यह कार्यक्रम नहीं चला और कुछ ही साल से यहां सुनाई नहीं दे रहा है।
इस कार्यक्रम में एक फ़िल्मी गीत की धुन किसी साज़ पर बजाई जाती थी फिर यही गीत सुनवाया जाता था। गीत का विवरण तो बताया ही जाता था साथ में यह भी बताया जाता था कि धुन किस साज़ पर और किस कलाकार ने बजाई है।
माउथ आर्गन पर भी कई कलाकारों ने धुनें बजाई। किस्मत फ़िल्म (विश्वजीत और बबिता) में महेन्द्र कपूर के गाए गीतों की धुनें गिटार पर अच्छी लगती थी।
लव इन टोकियो फ़िल्म के लोकप्रिय गीत सायोनारा की धुन भी बहुत अच्छी लगती थी पर इस साज़ का नाम याद नहीं आ रहा।
सबसे अच्छी धुन थी सितार पर राग पहाड़ी में फ़िल्म प्रेमपर्वत के इस गीत की -
ये दिल और उनकी निगाहों के साए
मुझे खेद है कि इस समय एक भी वादक कलाकार का नाम मुझे याद नहीं आ रहा।
क्या ही अच्छा हो कि इस तरह की धुनें सुनाना विविध भारती फिर से शुरू करे। कम से कम पांच मिनट का ही कार्यक्रम जिसमें एक धुन और वादक कलाकार का नाम हो।
आज का युवा वर्ग भी संगीत से बहुत लगाव रखता है तो इन युवा कलाकारों को भी मौका मिल जाएगा और पुराने वादक कलाकारों की धुनें भी फिर से सुनने को मिल जाएगी।
Friday, November 9, 2007
दिपावली और विक्रम संवत हिन्दू नये साल की शुभकामनाऐं ।
आदरणीय श्री युनूसजी, श्रीमती ममताजी (रेडियो सखी़), श्री सागरजी, श्री कमल शर्माजी (संवादाता), श्रीमती अन्नपूर्णाजी, श्रीमती ममताजी (इस ब्लोग की पोस्ट लेखीका), श्री मनीसजी, श्री संजय पटेलजी, श्री सजीवजी, श्री संजय बेगाणीजी, डो. श्री अजीतजी, श्री समीरलालजी (उसन तस्करीजी), इरफानजी और अन्य,
जिन लोगोने मेरे पोस्ट या टिपणी पर अपनी रायें कभी भी दी है या मुझसे संपर्क किया है, उन सभी के नामों को याद करने की कोशिश की है । पर गलती से कोई छुट गया तो उनका मैं क्षमा-प्रार्थी हूँ ।
आप सभीको सुरतसे पियुष महेता का दिपावली और कलसे शुरू हो रहे विक्रम संवत २०६४ की शुभ: कामनाऐं ।
जिन लोगोने मेरे पोस्ट या टिपणी पर अपनी रायें कभी भी दी है या मुझसे संपर्क किया है, उन सभी के नामों को याद करने की कोशिश की है । पर गलती से कोई छुट गया तो उनका मैं क्षमा-प्रार्थी हूँ ।
आप सभीको सुरतसे पियुष महेता का दिपावली और कलसे शुरू हो रहे विक्रम संवत २०६४ की शुभ: कामनाऐं ।
Thursday, November 8, 2007
दिवाली के बहाने रेडियो रूपक पर चर्चा
दीपावली एक विशेष दिन है। रेडियो में हमेशा विशेष दिन के लिए विशेष प्रसारण होते है। जो श्रोता टेलीविजन धारावाहिक देखते हुए बड़े हुए है और रेडियो के नाम पर निजि एफ एएम चैनलों को अधिक जानते है वे शायद ही रेडियो कार्यक्रम रूपक के बारे में जानते होंगें।
ऐसे श्रोताओं के लिए मैं बता दूं कि रूपक या फीचर रेडियो का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम किसी भी विषय पर होता है।
अब इस कार्यक्रम का स्वरूप देखेंगें। इसमें वार्ता की तरह बोला जाता है, एक या अधिक वाचक इसमें बोलते है, किसी बाहरी व्यक्ति की टिप्पणी को शामिल किया जाता है यानि विषय पर वो कहते है जैसे इंटरव्यू कार्यक्रम में कहते है। एक से अधिक व्यक्तियों से भी बात होती है जैसे परिचर्चा कार्यक्रम, इसमें गीत भी शामिल किए जाते है, इसमें कुछ अंशों को नाटक की तरह भी प्रस्तुत किया जाता है और इसमें बीच-बीच में और पार्शव में संगीत बजता है। मतलब ये कि सभी तरह के कार्यक्रमों का समावेश होता है रूपक में।
जब गीत शामिल होते है तो इसे संगीत रूपक कहते है और गीत शामिल नहीं होते तो केवल रूपक कहा जाता है।
इसी तरह से रूपक में आवश्यकता नहीं होने पर नाटकीय अंश भी नहीं होते है। बाहरी व्यक्तियों की टिप्पणियां भी विषय के अनुसार आवश्यकता होने पर ही ली जाती है।
कम से कम रूपक में दो आवाज़े और बीच में संगीत साथ ही पार्शव संगीत का होना ज़रूरी होता है।
वास्तव में रूपक रचा जाता है। पहले विषय की परिभाषा दी जाती है, विषय क्या है ? ये बताया जाता है। फिर विषय से संबंधित स्थितियां बताई जाती है। फिर पहले की जानकारी दी जाती है, शुरूवात बताई जाती है अगर इससे संबंधित घटना या कहानी हो तो बताया जाता है।
फिर सही-ग़लत, उचित-अनुचित को ध्यान में रखते हुए समीक्षा की जाती है। अंत में आगे की संभावित स्थिति बताई जाती है। कभी-कभी अंत में एक प्रश्न भी छोड़ दिया जाता है। इस तरह रूपक लिखने वाले को विषय की अच्छी जानकारी होना ज़रूरी होता है।
रूपकों की प्रस्तुति भी बहुत कठिन होती है। पहले बोले गए शब्द रिकार्ड किए जाते है। फिर उचित संगीत का चुनाव किया जाता है जिसके बाद इन को मिलाते हुए मुख्य टेप तैयार किया जाता है जिसे मास्टर पीस कहते है।
मास्टर पीस तैयार करते समय इस बात का ख़ास ध्यान रखा जाता है कि शब्दों की रिकार्डिंग और संगीत दोनों की ही आवाज़ का स्तर एक ही रहे। इसीलिए यह मिश्रण जिसे डबिंग कहते है, पूरे रूपक के लिए एक साथ की जाती है।
मशीनें कुछ देर चलने के बाद गर्म हो जाती है इसीलिए आधे घण्टे के रूपक को अंतिम रूप देने के लिए एक साथ 10-12 घण्टे काम करने पड़ते। यह मेरा ख़ुद का अनुभव है। अब कंप्यूटर आ जाने से ये काम बहुत ही जल्दी हो जाता है।
अब आइए विभिन्न चैनेलों के रूपकों पर एक नज़र डाले।
रेडियो सिलोन व्यावसायिक होने के कारण अधिकतर फ़िल्मी कार्यक्रमों पर निर्भर रहा और उनका अपना प्रोडक्शन कम होने से शायद ही रूपक यहां से प्रसारित हुए।
बीबीसी की हिन्दी सेवा से पहले सप्ताह में एक रूपक प्रसारित होता था। अधिकांश रूपक अचला शर्मा के लिखे होते थे। जिनमें आवाज़े शकुन्तला चन्दन, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, रमा पाण्डेय की होती थी।
ऐसे ही साप्ताहिक रूपक अधिकतर क्षेत्रीय केन्द्रों से होते है। कम से कम महीने में दो रूपक तो प्रसारित हो ही जाया करते। यहां हैद्राबाद से तेलुगु और ऊर्दू में बहुत होते है। हिन्दी में कभी कभार होते है।
मैनें भी रूपक लिखे है। मेरा पहला रूपक बाल श्रम पर था जो इस केन्द्र का हिन्दी का पहला रूपक था। फिर मैनें हिन्दी सिनेमा के सौ वर्ष होने पर महिलाओं के इस क्षेत्र में योगदान पर लिखा, होली और रामनवमी पर भी लिखा।
इन सभी रूपको की कार्यक्रम अधिकारी थी डा दुर्गा लक्ष्मी प्रसन्ना। इसमे स्वर मेरा और श्री कैलाश शिन्दे का था। शिन्दे जी आजकल पूना केन्द्र में है। इनकी डबिंग शिन्दे जी ही किया करते थे।
इसके अलावा देश के गणतंत्र के पचास वर्षों पर पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी रानी चेन्नमा पर श्री एम उपेन्द्र जी ने रूपक लिखा था जिसमें मुख्य स्वर मेरा था। कार्यक्रम अधिकारी थी श्रीमती सरोजा निर्मला और प्रमुख निर्माता थी केन्द्र निदेशक दुर्गा भास्कर जिसे राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सराहाना मिली।
विविध भारती से बहुत कम रूपक सुनने को मिलते है। मुझे केवल दो ही रूपक याद आ रहे है - दीप से दीप जले, और दीप जल उठे। इनमें से एक हवा महल में प्रसारित हुआ था। दीपावली से संबंधित था इसीलिए मुझे याद आ गया।
वैसे आजकल रूपक कम होते जा रहे शायद तकनीकी सुविधाओं से इनका स्थान फोन-इन-कार्यक्रमों ने ले लिया है जैसे मंथन में दिवाली का ही तो विषय चल रहा है।
आप सब को
दिवाली मुबारक !
ऐसे श्रोताओं के लिए मैं बता दूं कि रूपक या फीचर रेडियो का एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम है। यह कार्यक्रम किसी भी विषय पर होता है।
अब इस कार्यक्रम का स्वरूप देखेंगें। इसमें वार्ता की तरह बोला जाता है, एक या अधिक वाचक इसमें बोलते है, किसी बाहरी व्यक्ति की टिप्पणी को शामिल किया जाता है यानि विषय पर वो कहते है जैसे इंटरव्यू कार्यक्रम में कहते है। एक से अधिक व्यक्तियों से भी बात होती है जैसे परिचर्चा कार्यक्रम, इसमें गीत भी शामिल किए जाते है, इसमें कुछ अंशों को नाटक की तरह भी प्रस्तुत किया जाता है और इसमें बीच-बीच में और पार्शव में संगीत बजता है। मतलब ये कि सभी तरह के कार्यक्रमों का समावेश होता है रूपक में।
जब गीत शामिल होते है तो इसे संगीत रूपक कहते है और गीत शामिल नहीं होते तो केवल रूपक कहा जाता है।
इसी तरह से रूपक में आवश्यकता नहीं होने पर नाटकीय अंश भी नहीं होते है। बाहरी व्यक्तियों की टिप्पणियां भी विषय के अनुसार आवश्यकता होने पर ही ली जाती है।
कम से कम रूपक में दो आवाज़े और बीच में संगीत साथ ही पार्शव संगीत का होना ज़रूरी होता है।
वास्तव में रूपक रचा जाता है। पहले विषय की परिभाषा दी जाती है, विषय क्या है ? ये बताया जाता है। फिर विषय से संबंधित स्थितियां बताई जाती है। फिर पहले की जानकारी दी जाती है, शुरूवात बताई जाती है अगर इससे संबंधित घटना या कहानी हो तो बताया जाता है।
फिर सही-ग़लत, उचित-अनुचित को ध्यान में रखते हुए समीक्षा की जाती है। अंत में आगे की संभावित स्थिति बताई जाती है। कभी-कभी अंत में एक प्रश्न भी छोड़ दिया जाता है। इस तरह रूपक लिखने वाले को विषय की अच्छी जानकारी होना ज़रूरी होता है।
रूपकों की प्रस्तुति भी बहुत कठिन होती है। पहले बोले गए शब्द रिकार्ड किए जाते है। फिर उचित संगीत का चुनाव किया जाता है जिसके बाद इन को मिलाते हुए मुख्य टेप तैयार किया जाता है जिसे मास्टर पीस कहते है।
मास्टर पीस तैयार करते समय इस बात का ख़ास ध्यान रखा जाता है कि शब्दों की रिकार्डिंग और संगीत दोनों की ही आवाज़ का स्तर एक ही रहे। इसीलिए यह मिश्रण जिसे डबिंग कहते है, पूरे रूपक के लिए एक साथ की जाती है।
मशीनें कुछ देर चलने के बाद गर्म हो जाती है इसीलिए आधे घण्टे के रूपक को अंतिम रूप देने के लिए एक साथ 10-12 घण्टे काम करने पड़ते। यह मेरा ख़ुद का अनुभव है। अब कंप्यूटर आ जाने से ये काम बहुत ही जल्दी हो जाता है।
अब आइए विभिन्न चैनेलों के रूपकों पर एक नज़र डाले।
रेडियो सिलोन व्यावसायिक होने के कारण अधिकतर फ़िल्मी कार्यक्रमों पर निर्भर रहा और उनका अपना प्रोडक्शन कम होने से शायद ही रूपक यहां से प्रसारित हुए।
बीबीसी की हिन्दी सेवा से पहले सप्ताह में एक रूपक प्रसारित होता था। अधिकांश रूपक अचला शर्मा के लिखे होते थे। जिनमें आवाज़े शकुन्तला चन्दन, ओंकारनाथ श्रीवास्तव, रमा पाण्डेय की होती थी।
ऐसे ही साप्ताहिक रूपक अधिकतर क्षेत्रीय केन्द्रों से होते है। कम से कम महीने में दो रूपक तो प्रसारित हो ही जाया करते। यहां हैद्राबाद से तेलुगु और ऊर्दू में बहुत होते है। हिन्दी में कभी कभार होते है।
मैनें भी रूपक लिखे है। मेरा पहला रूपक बाल श्रम पर था जो इस केन्द्र का हिन्दी का पहला रूपक था। फिर मैनें हिन्दी सिनेमा के सौ वर्ष होने पर महिलाओं के इस क्षेत्र में योगदान पर लिखा, होली और रामनवमी पर भी लिखा।
इन सभी रूपको की कार्यक्रम अधिकारी थी डा दुर्गा लक्ष्मी प्रसन्ना। इसमे स्वर मेरा और श्री कैलाश शिन्दे का था। शिन्दे जी आजकल पूना केन्द्र में है। इनकी डबिंग शिन्दे जी ही किया करते थे।
इसके अलावा देश के गणतंत्र के पचास वर्षों पर पहली महिला स्वतंत्रता सेनानी रानी चेन्नमा पर श्री एम उपेन्द्र जी ने रूपक लिखा था जिसमें मुख्य स्वर मेरा था। कार्यक्रम अधिकारी थी श्रीमती सरोजा निर्मला और प्रमुख निर्माता थी केन्द्र निदेशक दुर्गा भास्कर जिसे राष्ट्रीय स्तर पर बहुत सराहाना मिली।
विविध भारती से बहुत कम रूपक सुनने को मिलते है। मुझे केवल दो ही रूपक याद आ रहे है - दीप से दीप जले, और दीप जल उठे। इनमें से एक हवा महल में प्रसारित हुआ था। दीपावली से संबंधित था इसीलिए मुझे याद आ गया।
वैसे आजकल रूपक कम होते जा रहे शायद तकनीकी सुविधाओं से इनका स्थान फोन-इन-कार्यक्रमों ने ले लिया है जैसे मंथन में दिवाली का ही तो विषय चल रहा है।
आप सब को
दिवाली मुबारक !
Tuesday, November 6, 2007
मधुवन, रसवंती
श्रीमती अन्नपूर्णाजी, यह बात मूल रूपसे आपके भूले भिसरे गीत से शुरू हुई है पर बादमें मूझसे ही थोडी थोडी अलग होती गयी इस लिये टिपणी पर लिखना शुरू किया था वह रद करके पोस्ट पर ले गया ।
आपने जो फिल्मी धूनोके सुबाह १०.१५ पर १० मिनिट के कार्यक्रम (गुन्जन) का जिक्र किया है, वह एक निश्चीत समयावधी के लिये बिल्कुल सही है । और बादकी मन्जूषा की बात भी सही है । और अगर मैं गलती नहीं कर रहा हूँ तो १०.५५ पर चित्रशाला कार्यक्रम था । पर ११.०० से १२.३० तक कार्यक्रम मन चाहे गीत नहीं पर जयमाला (बिन फरमाईशी) ही था । उन दिनों मन चाहे गीत रात्री ९.३० से १०.३० तक आता था । एक और मनोरंजन नामसे आम रेडियो श्रोताओं की पसंदके गीतो का कार्यक्रम दिनमें २.०० से तीन बजे तक का होता था । १९६५ के युद्धके बादका एक लम्बा दौर फिल्मी संगीत के सभी १ घंटेके या उससे लम्बें कार्यक्रमो को जयमाला नाम ही दिया गया था जिसमें शामका सिर्फ एक फौ़जी भाईओं की पसंद का हुआ करता था उसको छोड कर बादमें बाकी सभी के नाम स्वरूप बदले गये । उनमें से एक को सुबहमें ८.३० से ९ बजे तक चित्रलोक और ९ से ९.३० तक अनुरोध गीत नामसे आम श्रोताओं की फरमाईशका बना दिया गया था, जो बादमें बंध करके चित्रलोक को प्रायोजित और प्रायोजित गानोंका कर दिया गया था, जो मध्यम तरंग केन्दों पर स्थानिय विज्ञापनों की वजहसे १०.०० बजे तक चलता था पर विविध भारती के दोनों लघू-तरंग (पंचरंगी कार्यक्रम)मुख्य केन्द्रों से उन विज्ञापनो के नहीं होने के कारण करीब ९.४० पर समाप्त होता था तब उन दोनो केन्द्रों से अलग अलग २० मिनिटके फिल्मी गानों का प्रसारण होता था । १०.१५ का गुन्जन था तब दूसरा ५.०० मिनिटका एक ही फिल्मी धूनका कार्यक्रम रात्री ०९.१० पर भी होता था ।
पियुष महेता ।
आपने जो फिल्मी धूनोके सुबाह १०.१५ पर १० मिनिट के कार्यक्रम (गुन्जन) का जिक्र किया है, वह एक निश्चीत समयावधी के लिये बिल्कुल सही है । और बादकी मन्जूषा की बात भी सही है । और अगर मैं गलती नहीं कर रहा हूँ तो १०.५५ पर चित्रशाला कार्यक्रम था । पर ११.०० से १२.३० तक कार्यक्रम मन चाहे गीत नहीं पर जयमाला (बिन फरमाईशी) ही था । उन दिनों मन चाहे गीत रात्री ९.३० से १०.३० तक आता था । एक और मनोरंजन नामसे आम रेडियो श्रोताओं की पसंदके गीतो का कार्यक्रम दिनमें २.०० से तीन बजे तक का होता था । १९६५ के युद्धके बादका एक लम्बा दौर फिल्मी संगीत के सभी १ घंटेके या उससे लम्बें कार्यक्रमो को जयमाला नाम ही दिया गया था जिसमें शामका सिर्फ एक फौ़जी भाईओं की पसंद का हुआ करता था उसको छोड कर बादमें बाकी सभी के नाम स्वरूप बदले गये । उनमें से एक को सुबहमें ८.३० से ९ बजे तक चित्रलोक और ९ से ९.३० तक अनुरोध गीत नामसे आम श्रोताओं की फरमाईशका बना दिया गया था, जो बादमें बंध करके चित्रलोक को प्रायोजित और प्रायोजित गानोंका कर दिया गया था, जो मध्यम तरंग केन्दों पर स्थानिय विज्ञापनों की वजहसे १०.०० बजे तक चलता था पर विविध भारती के दोनों लघू-तरंग (पंचरंगी कार्यक्रम)मुख्य केन्द्रों से उन विज्ञापनो के नहीं होने के कारण करीब ९.४० पर समाप्त होता था तब उन दोनो केन्द्रों से अलग अलग २० मिनिटके फिल्मी गानों का प्रसारण होता था । १०.१५ का गुन्जन था तब दूसरा ५.०० मिनिटका एक ही फिल्मी धूनका कार्यक्रम रात्री ०९.१० पर भी होता था ।
पियुष महेता ।
Monday, November 5, 2007
भूले बिसरे गीत माला के सुनहरे मोती
भूले-बिसरे गीत मेरा हमेशा से ही पसन्दीदा कार्यक्रम रहा है। पहले यह कार्यक्रम केवल २० मिनट का होता था और सवेरे ८:१० से ८:३० बजे तक प्रसारित होता था। बाद में इसे आधे घण्टे का किया गया और प्रसारण समय हुआ सवेरे सात से साढे सात। फिर इसमें अंतिम गीत अनिवार्य रूप से के एल सहगल का सुनवाया जाने लगा।
यह कार्यक्रम मोतियों की माला की तरह लगता है। एक-एक गीत बेशकीमती मोती की तरह है।
जिस तरह माला पूरी तैयार होने के बाद उसकी शोभा को कई-कई गुना बढाने के लिए उसमें पदक (लाकेट) लगाया जाता है उसी तरह अंत में बजने वाला के एल सहगल का गीत है।
अब स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर इस माला में रोज़ सुनहरे मोती पिरोए जा रहे है। एक विशेष गीत रोज़ पूरे विवरण के साथ सुनवाया जाता है।
इसी श्रृंखला में केसरी (कृष्ण चन्द्र) डे के भजन सुने। भरत व्यास का फ़िल्म नवरंग के लिए गाया गीत पिछले सप्ताह सुना -
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो
यह गीत पहले भी कभी-कभार सुना था जिसमें कवि के भावो की जगह गेहूं-चावल के भावो का महत्व है और इस तरह कवियों को दुनियादारी सिखाई गई है। लेकिन यह बात पता नहीं थी कि भरत व्यास द्वारा हिन्दी फ़िल्मों के लिए गाया गया यह अकेला गीत है।
ऐसी ही जानकारी आज भी मिली कि पंडित जसराज द्वारा गाया गया भी हिन्दी फ़िल्मों में एक ही गीत है। फ़िल्म का नाम है लड़की सहयाद्रि की और गीत है -
वन्दना करों, अर्चना करों
अभी पता नहीं विविध भारती के खज़ाने में ऐसे कितने कीमती मोती है जो हम श्रोताओं को देखने को मिलेगें।
इसीलिए तो भई हम वाकई विविध भारती की वन्दना करते है, अर्चना करते है।
यह कार्यक्रम मोतियों की माला की तरह लगता है। एक-एक गीत बेशकीमती मोती की तरह है।
जिस तरह माला पूरी तैयार होने के बाद उसकी शोभा को कई-कई गुना बढाने के लिए उसमें पदक (लाकेट) लगाया जाता है उसी तरह अंत में बजने वाला के एल सहगल का गीत है।
अब स्वर्ण जयन्ती के अवसर पर इस माला में रोज़ सुनहरे मोती पिरोए जा रहे है। एक विशेष गीत रोज़ पूरे विवरण के साथ सुनवाया जाता है।
इसी श्रृंखला में केसरी (कृष्ण चन्द्र) डे के भजन सुने। भरत व्यास का फ़िल्म नवरंग के लिए गाया गीत पिछले सप्ताह सुना -
धन्धे की कुछ बात करो कुछ पैसे जोड़ो
यह गीत पहले भी कभी-कभार सुना था जिसमें कवि के भावो की जगह गेहूं-चावल के भावो का महत्व है और इस तरह कवियों को दुनियादारी सिखाई गई है। लेकिन यह बात पता नहीं थी कि भरत व्यास द्वारा हिन्दी फ़िल्मों के लिए गाया गया यह अकेला गीत है।
ऐसी ही जानकारी आज भी मिली कि पंडित जसराज द्वारा गाया गया भी हिन्दी फ़िल्मों में एक ही गीत है। फ़िल्म का नाम है लड़की सहयाद्रि की और गीत है -
वन्दना करों, अर्चना करों
अभी पता नहीं विविध भारती के खज़ाने में ऐसे कितने कीमती मोती है जो हम श्रोताओं को देखने को मिलेगें।
इसीलिए तो भई हम वाकई विविध भारती की वन्दना करते है, अर्चना करते है।
Sunday, November 4, 2007
सचिन दा को याद करते किशोर कुमार साहब.....
दोस्तो,
मैं आपके रेडियो यात्रा का साथी नया नया ही बना हूँ। यूनुस भाई का धन्यवाद कि उन्होने मुझे ये लिंक प्रदान की। मैं अपने बारे में आपको जल्द ही बताउंगा लेकिन उसके पहले मैं अपना लिखा एक पोस्ट आपकी नज़र करना चाहूंगा। इसे मैंने अपने वरिष्ठ सम्माननीय श्री पीयूष जी के अनुरोध पर तैयार किया है। मैं धन्यवाद देना चाहूँगा भाई सागर चन्द्र नाहर जी को भी जिन्होंने कल मेरी पोस्ट को रेडियोनामा पर रखा।
तो , मैं आपका ज्यादा वक़्त न लेते हुए सीधे अपने पोस्ट पर ले जा रहा हूँ।
बस यहाँ क्लिक करें.
अमीन_सायानी, डॉ._अजीत_कुमार, विविध_भारती_50, विविध_भारती_की_स्वर्ण_जयंती
मैं आपके रेडियो यात्रा का साथी नया नया ही बना हूँ। यूनुस भाई का धन्यवाद कि उन्होने मुझे ये लिंक प्रदान की। मैं अपने बारे में आपको जल्द ही बताउंगा लेकिन उसके पहले मैं अपना लिखा एक पोस्ट आपकी नज़र करना चाहूंगा। इसे मैंने अपने वरिष्ठ सम्माननीय श्री पीयूष जी के अनुरोध पर तैयार किया है। मैं धन्यवाद देना चाहूँगा भाई सागर चन्द्र नाहर जी को भी जिन्होंने कल मेरी पोस्ट को रेडियोनामा पर रखा।
तो , मैं आपका ज्यादा वक़्त न लेते हुए सीधे अपने पोस्ट पर ले जा रहा हूँ।
बस यहाँ क्लिक करें.
अमीन_सायानी, डॉ._अजीत_कुमार, विविध_भारती_50, विविध_भारती_की_स्वर्ण_जयंती
Saturday, November 3, 2007
विविध भारती की लोकप्रियता के सामने रूकवटें-१
पाठक गणको किये गये वादे के मुताबिक मैं इस विषय पर अपने विचार के कुछ अंश को ले कर हाजि़र हूँ ।
सबसे पहेले तो सरकारके माहिती प्रसारण मंत्रालयके (मंत्रीयों के अंगत सचिवों सहित) अधिकारीयों तथा आकाशवाणी के महानिदशालय के उच्च अधिकारीयों की 'यस मिनिस्टर’ यानि ’जी मंत्रीजी’ वाली मानसिकता इसके लिये शुरू से यानि आजादी काल से ही सबसे बडी़ जिम्मेदार है,जो किन प्रजा के किस प्रश्न को आगे करना और किस प्रश्न को पीछे करना वह अपनी पसंद के मुताबिक तय करते है । और उसी के मुताबिक सरकारमें दरखास्तें प्रस्तुत की जाती है । यह बात हमारे सुरत शहरमें आकाशवाणी की स्थानिय खंड समयावधी वाले एफ.एम.केन्द्र (जो १९९३में एक खानेकी पूरी थाली के जरूरतमंद को आधी रोटी का एक टुकडा फेंक कर बच्चों की तरह पटाया जाय या २२ साल के इन्सान को खिलौनेवाली ट्रायसिकल दी जाय इस तरह) दिया गया था, और इस बात को मैनें दिल्ही से सुरत में आये सहायक महानिदेशक (ई.सन२००१ में) श्री श्याम कुमार शर्माजी को भी बोला थी कि बड़े अफ़सरान अपनी कचहरीयों में बैठ कर ही निर्णय लेते है, कि कौनसी जगह किस प्रकार के केन्द्र देने है।
विविध भारती चेनलके रूपमें दूसरा चेनल देने के लियेमैं १९९७ से लिख रहा था और करीब एक साल बाद अपने संसदीय प्रतिनिधी उस समयके कपडा मंत्री द्वारा लिखना शुरू किया तो उसको अलग चेनल की बजाय ०२-०८-२००२ के दिन विविध भारतीके रूप में परिवर्तेत कर दिया गया,जो उसके बाद भी करीब २००५ तक स्टिरीयो नहीं हुआ था।
शायद यह बातें इन्दौर, हैद्राबाद, अहमदाबाद के श्रोताओं और पाठकोको ज्यादा महत्व की न लगे फि़र भी जरूरी मानता हूँ । क्यों कि,२००२ तक हमने विविध भारती के कार्यक्रमों को अलग अलग दूर दूर के केन्द्रों से सुननेकी जो परेशानियाँ सही है वह हम सुरत वाले ही समझ सकते है। उदाहरण के तौर पर जब लघु- तरंग पर विविध भारती पंचरंगी कार्यक्रम के नाम से दो अलग अलग कंप संख्या पर आती थी तब भी मुम्बई से कार्यक्रम सुबह ९.३० की जगह ८.३० पर ही समाप्त होते थ । दोपहर १२.३० की जगह २.०० बजे शुरू होते थे और रात्री भी १०.३० की जगह ८.१५ पर बंध होते थे। मद्रास (चेन्नाई)से प्रसारण जारी रहता था। पर दोनो केन्द्र सभा की शुरूआत और समाप्ती में अपनी पहचान सिर्फ़ ’ये विविध भारती है आकाशवाणी का पंचरंगी प्रोग्राम’ इन शब्दों मे देते थे पर कम्प संख्या सिर्फ़ अपनी अपनी ही बताते थे।
दो पहर का मन चाहे गीत मुम्बईसे शोर्ट वेव पर १.३० की जगह दो बजे शुरू होते हुए आधा घंटा देरी से और सिर्फ़ आधा ही आता था । इस तरह एक ही पहचान वाले दो केन्द्रों के बीच कोई संकलन या एकवाक्यता नहीं थी । और विविध भारती के पत्रवाली कार्यक्रममें स्थानिय केन्द्रों के श्रोताओं को ध्यानमें रख कर ही पत्रों को शामिल किया जाता था ।
आज एफ. एम. स्टिरीयो डिजीटल प्रसारण तकनीक आम बात हुई है पर इस जमानेमें भी मुम्बई, दिल्ही, कोलकटा, और चेन्नाई के स्थानिय विविध भारती केन्द्रोंको जैसे अन्य शहरोंके स्थानिय विविध भारती मध्यम तरंग केन्द्रोंको एफ. एम. स्टिरीयोमें परिवर्तीत किया गया है, नहीं किया गया, जब कि, इन शहरों में पहेले मेट्रो और आज एफ. एम. गोल्ड और एफ. एम. रेइन्बो चेनल्स चल रहे है । और अन्य निजी़ रेडियो चेनल्स से पूरा एफ. एम, बेन्ड भरा हुआ है, इन दो ए.आई. आर. एफ. एम. चेनल्स को एक संयूक्त चेनल में परिवर्तित करके एक बचने वाली एफ. एम. कम्पसंख्या पर स्थानिय विविध भारतीकी विज्ञापन प्रसारण सेवा को तबदिल करना जरूरी है, यह मैं मेरे एक निजी़ सुरतमें पले बढे पर ३६ सालो से मुम्बई में बस रहे पर हाल ही में १८ सालों के अन्तराल के बाद कुछ ही दिनों सुरत रह कर गये मित्र के उदाहरण से कहता हूँ, जो इन एफ. एम. चेनल्स की भरमारसे विविध भारती को करीब करीब भूल चूका था पर सुरतमें एफ. एम. पर सुन कर विविध भारती का दीवाना बन कर गया और वहाँ विविध भारती के प्रसारणसे असंतुष्ट रहने लगा है ।
समय समय पर और बातें छेडूंगा । पर एक साथ बहूत लिखूंगा तो युनूसजी सहित सब समयाभाव के कारण मानसिक रूपसे पढ़्ते पढ़्ते थक जायेंगे । इस लिये हाल इतना ही ।
पियुष महेता ।
सबसे पहेले तो सरकारके माहिती प्रसारण मंत्रालयके (मंत्रीयों के अंगत सचिवों सहित) अधिकारीयों तथा आकाशवाणी के महानिदशालय के उच्च अधिकारीयों की 'यस मिनिस्टर’ यानि ’जी मंत्रीजी’ वाली मानसिकता इसके लिये शुरू से यानि आजादी काल से ही सबसे बडी़ जिम्मेदार है,जो किन प्रजा के किस प्रश्न को आगे करना और किस प्रश्न को पीछे करना वह अपनी पसंद के मुताबिक तय करते है । और उसी के मुताबिक सरकारमें दरखास्तें प्रस्तुत की जाती है । यह बात हमारे सुरत शहरमें आकाशवाणी की स्थानिय खंड समयावधी वाले एफ.एम.केन्द्र (जो १९९३में एक खानेकी पूरी थाली के जरूरतमंद को आधी रोटी का एक टुकडा फेंक कर बच्चों की तरह पटाया जाय या २२ साल के इन्सान को खिलौनेवाली ट्रायसिकल दी जाय इस तरह) दिया गया था, और इस बात को मैनें दिल्ही से सुरत में आये सहायक महानिदेशक (ई.सन२००१ में) श्री श्याम कुमार शर्माजी को भी बोला थी कि बड़े अफ़सरान अपनी कचहरीयों में बैठ कर ही निर्णय लेते है, कि कौनसी जगह किस प्रकार के केन्द्र देने है।
विविध भारती चेनलके रूपमें दूसरा चेनल देने के लियेमैं १९९७ से लिख रहा था और करीब एक साल बाद अपने संसदीय प्रतिनिधी उस समयके कपडा मंत्री द्वारा लिखना शुरू किया तो उसको अलग चेनल की बजाय ०२-०८-२००२ के दिन विविध भारतीके रूप में परिवर्तेत कर दिया गया,जो उसके बाद भी करीब २००५ तक स्टिरीयो नहीं हुआ था।
शायद यह बातें इन्दौर, हैद्राबाद, अहमदाबाद के श्रोताओं और पाठकोको ज्यादा महत्व की न लगे फि़र भी जरूरी मानता हूँ । क्यों कि,२००२ तक हमने विविध भारती के कार्यक्रमों को अलग अलग दूर दूर के केन्द्रों से सुननेकी जो परेशानियाँ सही है वह हम सुरत वाले ही समझ सकते है। उदाहरण के तौर पर जब लघु- तरंग पर विविध भारती पंचरंगी कार्यक्रम के नाम से दो अलग अलग कंप संख्या पर आती थी तब भी मुम्बई से कार्यक्रम सुबह ९.३० की जगह ८.३० पर ही समाप्त होते थ । दोपहर १२.३० की जगह २.०० बजे शुरू होते थे और रात्री भी १०.३० की जगह ८.१५ पर बंध होते थे। मद्रास (चेन्नाई)से प्रसारण जारी रहता था। पर दोनो केन्द्र सभा की शुरूआत और समाप्ती में अपनी पहचान सिर्फ़ ’ये विविध भारती है आकाशवाणी का पंचरंगी प्रोग्राम’ इन शब्दों मे देते थे पर कम्प संख्या सिर्फ़ अपनी अपनी ही बताते थे।
दो पहर का मन चाहे गीत मुम्बईसे शोर्ट वेव पर १.३० की जगह दो बजे शुरू होते हुए आधा घंटा देरी से और सिर्फ़ आधा ही आता था । इस तरह एक ही पहचान वाले दो केन्द्रों के बीच कोई संकलन या एकवाक्यता नहीं थी । और विविध भारती के पत्रवाली कार्यक्रममें स्थानिय केन्द्रों के श्रोताओं को ध्यानमें रख कर ही पत्रों को शामिल किया जाता था ।
आज एफ. एम. स्टिरीयो डिजीटल प्रसारण तकनीक आम बात हुई है पर इस जमानेमें भी मुम्बई, दिल्ही, कोलकटा, और चेन्नाई के स्थानिय विविध भारती केन्द्रोंको जैसे अन्य शहरोंके स्थानिय विविध भारती मध्यम तरंग केन्द्रोंको एफ. एम. स्टिरीयोमें परिवर्तीत किया गया है, नहीं किया गया, जब कि, इन शहरों में पहेले मेट्रो और आज एफ. एम. गोल्ड और एफ. एम. रेइन्बो चेनल्स चल रहे है । और अन्य निजी़ रेडियो चेनल्स से पूरा एफ. एम, बेन्ड भरा हुआ है, इन दो ए.आई. आर. एफ. एम. चेनल्स को एक संयूक्त चेनल में परिवर्तित करके एक बचने वाली एफ. एम. कम्पसंख्या पर स्थानिय विविध भारतीकी विज्ञापन प्रसारण सेवा को तबदिल करना जरूरी है, यह मैं मेरे एक निजी़ सुरतमें पले बढे पर ३६ सालो से मुम्बई में बस रहे पर हाल ही में १८ सालों के अन्तराल के बाद कुछ ही दिनों सुरत रह कर गये मित्र के उदाहरण से कहता हूँ, जो इन एफ. एम. चेनल्स की भरमारसे विविध भारती को करीब करीब भूल चूका था पर सुरतमें एफ. एम. पर सुन कर विविध भारती का दीवाना बन कर गया और वहाँ विविध भारती के प्रसारणसे असंतुष्ट रहने लगा है ।
समय समय पर और बातें छेडूंगा । पर एक साथ बहूत लिखूंगा तो युनूसजी सहित सब समयाभाव के कारण मानसिक रूपसे पढ़्ते पढ़्ते थक जायेंगे । इस लिये हाल इतना ही ।
पियुष महेता ।
जयमाला-प्रेमियों के लिये तीन विशिष्ट चित्र स्मृतियाँ.
अमीन सायानी साहब ने स्टार जयमाला प्रस्तुत कर 3 नवम्बर का दिन जैसे यादगार ही बना दिया. इन्हीं दिनों अपनी किताबों को अवेरते मेरे हाथ किसी ज़माने में दिल्ली से निकलने वाली आकाशवाणी पत्रिका का अंक हाथ आ गया. आवरण के भीतर वाले पन्ने पर तीन विशिष्ट (या महान कहूँ तो भी ग़लत नहीं होगा)के श्वेत-श्याम चित्र दिखे. सोचा आज जब जयमाला की जय-जयकार होरही है तो मैं भी क्यों न अपना स्वर भी मिला दूँ ? तो जनाब देखिये ये तीनख़ास चित्र हैं भारतीय कत्थक नृत्य के साक्षात नटराज गोपीकृष्ण , सुर-सरिता आशा भोंसले और सर्वकालिक महान फ़िल्मकार वी.शांताराम के.ये तीनों सत्तर के दशक में विविध भारती के स्टुडियोज़ में जयमाला प्रस्तुत करने तशरीफ़ लाएथे.इस पत्रिका के बारे में फ़िर कभी लेकिन हाल-फ़िलहाल तो आप इन अविस्मरणीय चित्रों का मज़ा लीजिये.
अमीन सयानी के साथ स्टार जयमाला.....
दोस्तो,
हमारी - आपकी सबकी पसंदीदा " विविध-भारती " अपनी स्वर्ण जयंती मना रही है । 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर विविध-भारती ने जो पिटारा हमारे सामने खोला है तो उससे एक से एक मोती रत्न आदि निकलते ही जारहे हैं..........पूरा आलेख यहाँ पढ़ें और इन्टरव्यू सुनें
हमारी - आपकी सबकी पसंदीदा " विविध-भारती " अपनी स्वर्ण जयंती मना रही है । 50 वीं वर्षगांठ के अवसर पर विविध-भारती ने जो पिटारा हमारे सामने खोला है तो उससे एक से एक मोती रत्न आदि निकलते ही जारहे हैं..........पूरा आलेख यहाँ पढ़ें और इन्टरव्यू सुनें
विविध भारती पर आज ही नहीं साल भर हर तीन तारीख़ को होगा--जुबली झंकार
पिछले महीने तीन तारीख़ को यानी तीन अक्तूबर को विविध भारती ने अपनी स्थापना के पचास साल पूरे किए थे । और इस तरह आरंभ हुए विविध भारती के स्वर्ण जयंती आयोजन । रेडियोनामा के सभी पाठकों को ये सूचना देनी है कि विविध भारती पर अब हर महीने की तीन तारीख़ को 'जुबली झंकार' नामक विशेष आयोजन किया जायेगा । इस तरह स्वर्ण जयंती आयोजनों में श्रोताओं को लगभग ग्यारह या बारह विशेष कार्यक्रम सुनने को मिलेंगे ।
इसके अलावा और भी बहुत कुछ होगा विविध भारती के स्वर्ण जयंती आयोजनों में । पर यहां मैं आपको बताना चाहता हूं कि तीन नवंबर को आपको क्या सुनने मिलेगा ।
तीन अक्तूबर के आयोजनों में आपने विविध भारती के ख़ज़ाने के अनमोल मोती सुने थे । जिनमें मशहूर गीतकार, संगीतकार, गायक, निर्देशक, अभिनेता वग़ैरह तो शामिल थे ही । साथ ही कुछ कालजयी रचनाकार भी शामिल थे । इस बहाने आपने ऐसी चीज़ें सुनी जिनकी शायद आपने कभी कल्पना भी नहीं की थी । आयोजन को श्रोताओं ने बहुत सराहा, और ये भी कहा कि क्या ऐसा नियमित रूप से नहीं हो सकता । और इसका जवाब ये है कि हां हो सकता है ।
जी हां आज दिन में बारह बजे से लेकर शाम साढ़े पांच बजे तक आप सुनेंगे विविध भारती की स्वर्ण जयंती पर 'जुबली झंकार' । इस कार्यक्रम के कुछ महत्त्वपूर्ण हिस्सों के बारे में जान लीजिए । पिछले पचास सालों में विविध भारती पर जिन मशहूर फिल्मी सितारों ने 'जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत किया उसके अंश पिछले महीने की तीन तारीख़ को मशहूर ब्रॉडकास्टर अमीन सायानी ने प्रस्तुत किये थे, स्टार जयमाला के पहले भाग में । आज दिन में साढ़े बारह बजे से आप सुनेंगे स्टार जयमाला का दूसरा हिस्सा अमीन सायानी के साथ ।
आज का मनचाहे गीत भी बहुत ख़ास है । इस कार्यक्रम में श्रोताओं से कहा गया है कि ऐसे गानों की फ़रमाईश करें जिनकी उनकी जिंदगी में बहुत ख़ास जगह है । वो गाना उनके लिए क्यों अहम है, ये श्रोताओं ने लिख भेजा है । गोल्डन जुबली मनचाहे गीत का प्रसारण होगा दिन में डेढ़ बजे से । मनचाहे गीत को प्रस्तुत करेंगे कमल शर्मा और रेडियो सखी ममता सिंह । इसके ठीक बाद ढाई बजे से दो फिल्मी सितारे आयेंगे रेडियो प्रज़ेन्टर बनकर और विविध भारती के ख़ज़ाने के अनमोल मोती भी आप तक पहुंचायेंगे और अपनी बात भी कहेंगे । इस कार्यक्रम में मैं आपसे मुख़ातिब होऊंगा बारह से साढ़े बारह बजे के दौरान निम्मी मिश्रा के संग ।
कुल मिलाकर यही है तीन नवंबर का आयोजन ।
उम्मीद है कि शनिवार की फुरसत आपको रेडियो पर विविध भारती से रूबरू होने का सुअवसर ज़रूर देगी ।
तो सुनिए सुनाईये सबको बताईये
विविध भारती की गोल्डन जुबली मनाईये ।।
अमीन सायानी का चित्र उनकी वेबसाईट से साभार
Technorati tags:
विविध भारती ,स्वर्ण जयंती ,
golden jubilee of vividh bharati
Thursday, November 1, 2007
फुलझड़ियां
दीपावली को सप्ताह भर रह गया है। महिलाओं की दिवाली तो अभी से शुरू हो जाती है। सारी तैयारियां जो करनी होती है। मैनें भी सोचा इस अवसर पर अपनी सखी-सहेलियों को कुछ तोहफ़ा दूं।
क्या कहा सखी-सहेलियां कौन ? अरे भई वहीं जो विविध भारती पर रोज़ दोपहर तीन बजे आती है और चार बजे तक मलाई-बर्फ़ की तरह जमी रहती है।
मैं चर्चा कर रहीं हूं विविध भारती के कार्यक्रम सखी-सहेली की जिसकी परिभाषा मेरे लिए कुछ यूं है -
एक डाल पर चहचहाती बहुत सारी चिड़याएं यानि सखी-सहेली !
मैं यह कार्यक्रम पहले ही दिन से सुन रही हूं जब सप्ताह में एक दिन बुधवार को प्रसारित होता था। फिर चार दिन होने लगा और शुक्रवार को फोन-इन-कार्यक्रम जिसमें कोई एक सखी देश भर की सहेलियों से फोन पर बतियाती है।
लगातार एक साल तक कार्यक्रम सुनने के बाद मेरे मन में कुछ चित्र उभरने लगे। मैनें हर सखी-सहेली की एक तस्वीर बनाई और आज मैं इन्हीं तस्वीरों को शब्द चित्रों की तरह यहां प्रस्तुत कर रहीं हूं। यहीं शब्द-चित्रों का तोहफ़ा मैं देना चाहती हूं।
मैं कैसे प्रस्तुत करूं ये चित्र ? चलिए कल्पना करते है कि सामने एक गलियारा है जिसमे से होकर सखी-सहेलियां स्टुडियो मे जाती है इस कार्यक्रम की प्रस्तुति के लिए।
सबसे पहले चली आ रही है कमलेश (पाठक) जी जिन्हें टीम लीडर कहें या कप्तान। तेज़-तेज़ क़दमों से चलती हुई चली आ रही है एक हाथ में सखियों की चिट्ठियां और उनकी पसन्द के गानों की सीडी को ऐसे संभाले हुए जैसे किसी नन्हें-मुन्ने को मां गोद में संभालती है। चली जा रही है, चली जा रही है, चली जा रही है तेज़ तेज़ बालों को पीछे कस कर बांधे हुए। दुपट्टे को सटर पटर गले में डाले जो किसी भी दिशा में लहराने लगता है। बस चली जा रही है आखिर समय पर कार्यक्रम जो प्रस्तुत करना है, तीन बज रहे है और देश भर की सखियां प्रतीक्षा कर रही होगी (क्योंकि देश भर में महिलाओं को और कोई काम तो है नहीं)
इनके पीछे आ रही है निम्मी (मिश्रा) जी, मस्त बिंदास गजगामिनी, हौले हौले क़दम रखती हुई स्टुडियो पहुंची, कंधे पर दुपट्टा लटकाए, नाक पर चश्मा ठीक किया। बस चार ख़त पढ देंगें चार गीत सुना देंगें बस और क्या ?
अगले दिन कांचन (प्रकाश संगीत) जी चली आ रही है गानो के सीडी उठाए। इनका बस चले तो सारा कार्यक्रम गा कर प्रस्तुत करें। चाहे चिट्ठियां पढनी हो या कोई सलाह देनी हो। अगर किसी दुखियारी सखी की दर्द भरी चिट्ठी हो तो भी गा कर ही पढेंगें किसी उदास राग में गा देगें और क्या ?
अब चली आ रही है रेणु (बंसल) जी, दरअसल ये कार्यक्रम नहीं एक ज़िम्मेदारी है, एक-एक चिट्ठी के एक-एक अक्षर को ध्यान से पढना चाहिए, सखियों की पसन्द के गीत बजाने से पहले चार बार देख लेना चाहिए कि कहीं कोई ग़लत गीत तो नहीं बज रहा। लो चार बज गए और ड्यूटी ख़त्म हुई। बात दरअसल ये है कि… (बस रेणु जी अब अगले कार्यक्रम में मिलेगें)
अगले कार्यक्रम के लिए चली आ रही है अपनी शहनाज़ (अख़्तरी) आपा, गले में आंचल डाले, हाथ में सीडी और चिट्ठियां उठाए जैसे साठ के दशक की हिरोइनें एक दो किताब कापी उठाए कालेज जाती थी न बिल्कुल उसी तरह। पूरे विश्वास के साथ स्टुडियो मे जा रही है। पूरा भरोसा है कि जिस सहेली की चिट्ठी पढूंगी वो खुश जिसकी नहीं पढूंगी वो भी खुश। जो गीत मैं सुनवाऊंगी वो सबको पसन्द आएगें, जो मैं कहूंगी वो सबको अच्छा लगेगा और जो मैं नहीं कहूंगी उस बारे में कोई सोचेगा भी नहीं।
अब बारी है ममता (सिंह) जी की, यहां थोड़ी सी गड़बड़ है। हुआ यूं कि यूनुस जी ने रेडियोवाणी में ममता जी का चित्र दिखा दिया। अब लिखने को कुछ रहा नहीं सिर्फ़ इतना बता दूं असली चित्र मेरे मन के चित्र से एकदम उल्टा निकला।
आजकल इस डाल पर कुछ नए पंछी भी आ रहे है यानि इस कार्यक्रम में नई सखियां आ रही है जिनके चित्र अभी बने नहीं है।
चित्र कितने सही है और कितने ग़लत ये तो सखियां खुद ही बता सकती है। अगर बताना चाहे तो, मेरी राय में बता देना चाहिए हम श्रोताओं को भी तो जानने का अधिकार है। हम श्रोता क्या सिर्फ़ सुनने के लिए ही है।
क्या कहा सखी-सहेलियां कौन ? अरे भई वहीं जो विविध भारती पर रोज़ दोपहर तीन बजे आती है और चार बजे तक मलाई-बर्फ़ की तरह जमी रहती है।
मैं चर्चा कर रहीं हूं विविध भारती के कार्यक्रम सखी-सहेली की जिसकी परिभाषा मेरे लिए कुछ यूं है -
एक डाल पर चहचहाती बहुत सारी चिड़याएं यानि सखी-सहेली !
मैं यह कार्यक्रम पहले ही दिन से सुन रही हूं जब सप्ताह में एक दिन बुधवार को प्रसारित होता था। फिर चार दिन होने लगा और शुक्रवार को फोन-इन-कार्यक्रम जिसमें कोई एक सखी देश भर की सहेलियों से फोन पर बतियाती है।
लगातार एक साल तक कार्यक्रम सुनने के बाद मेरे मन में कुछ चित्र उभरने लगे। मैनें हर सखी-सहेली की एक तस्वीर बनाई और आज मैं इन्हीं तस्वीरों को शब्द चित्रों की तरह यहां प्रस्तुत कर रहीं हूं। यहीं शब्द-चित्रों का तोहफ़ा मैं देना चाहती हूं।
मैं कैसे प्रस्तुत करूं ये चित्र ? चलिए कल्पना करते है कि सामने एक गलियारा है जिसमे से होकर सखी-सहेलियां स्टुडियो मे जाती है इस कार्यक्रम की प्रस्तुति के लिए।
सबसे पहले चली आ रही है कमलेश (पाठक) जी जिन्हें टीम लीडर कहें या कप्तान। तेज़-तेज़ क़दमों से चलती हुई चली आ रही है एक हाथ में सखियों की चिट्ठियां और उनकी पसन्द के गानों की सीडी को ऐसे संभाले हुए जैसे किसी नन्हें-मुन्ने को मां गोद में संभालती है। चली जा रही है, चली जा रही है, चली जा रही है तेज़ तेज़ बालों को पीछे कस कर बांधे हुए। दुपट्टे को सटर पटर गले में डाले जो किसी भी दिशा में लहराने लगता है। बस चली जा रही है आखिर समय पर कार्यक्रम जो प्रस्तुत करना है, तीन बज रहे है और देश भर की सखियां प्रतीक्षा कर रही होगी (क्योंकि देश भर में महिलाओं को और कोई काम तो है नहीं)
इनके पीछे आ रही है निम्मी (मिश्रा) जी, मस्त बिंदास गजगामिनी, हौले हौले क़दम रखती हुई स्टुडियो पहुंची, कंधे पर दुपट्टा लटकाए, नाक पर चश्मा ठीक किया। बस चार ख़त पढ देंगें चार गीत सुना देंगें बस और क्या ?
अगले दिन कांचन (प्रकाश संगीत) जी चली आ रही है गानो के सीडी उठाए। इनका बस चले तो सारा कार्यक्रम गा कर प्रस्तुत करें। चाहे चिट्ठियां पढनी हो या कोई सलाह देनी हो। अगर किसी दुखियारी सखी की दर्द भरी चिट्ठी हो तो भी गा कर ही पढेंगें किसी उदास राग में गा देगें और क्या ?
अब चली आ रही है रेणु (बंसल) जी, दरअसल ये कार्यक्रम नहीं एक ज़िम्मेदारी है, एक-एक चिट्ठी के एक-एक अक्षर को ध्यान से पढना चाहिए, सखियों की पसन्द के गीत बजाने से पहले चार बार देख लेना चाहिए कि कहीं कोई ग़लत गीत तो नहीं बज रहा। लो चार बज गए और ड्यूटी ख़त्म हुई। बात दरअसल ये है कि… (बस रेणु जी अब अगले कार्यक्रम में मिलेगें)
अगले कार्यक्रम के लिए चली आ रही है अपनी शहनाज़ (अख़्तरी) आपा, गले में आंचल डाले, हाथ में सीडी और चिट्ठियां उठाए जैसे साठ के दशक की हिरोइनें एक दो किताब कापी उठाए कालेज जाती थी न बिल्कुल उसी तरह। पूरे विश्वास के साथ स्टुडियो मे जा रही है। पूरा भरोसा है कि जिस सहेली की चिट्ठी पढूंगी वो खुश जिसकी नहीं पढूंगी वो भी खुश। जो गीत मैं सुनवाऊंगी वो सबको पसन्द आएगें, जो मैं कहूंगी वो सबको अच्छा लगेगा और जो मैं नहीं कहूंगी उस बारे में कोई सोचेगा भी नहीं।
अब बारी है ममता (सिंह) जी की, यहां थोड़ी सी गड़बड़ है। हुआ यूं कि यूनुस जी ने रेडियोवाणी में ममता जी का चित्र दिखा दिया। अब लिखने को कुछ रहा नहीं सिर्फ़ इतना बता दूं असली चित्र मेरे मन के चित्र से एकदम उल्टा निकला।
आजकल इस डाल पर कुछ नए पंछी भी आ रहे है यानि इस कार्यक्रम में नई सखियां आ रही है जिनके चित्र अभी बने नहीं है।
चित्र कितने सही है और कितने ग़लत ये तो सखियां खुद ही बता सकती है। अगर बताना चाहे तो, मेरी राय में बता देना चाहिए हम श्रोताओं को भी तो जानने का अधिकार है। हम श्रोता क्या सिर्फ़ सुनने के लिए ही है।
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