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Saturday, March 8, 2008

मेरे आस-पास बोलते रेडियो-3

मेरे आस-पास बोलते रेडियो-3

- पंकज अवधिया

जिन दिनो मै पढाई कर रहा था उन दिनो गजलो का दौर अपने चरम पर था। पंकज उधास से लेकर जगजीत सिह जैसे गायको के कैसेट सुने जाते थे। ये गजले मुझे बहुत अच्छी लगती थी पर शराब और शबाब पर आधारित होने के कारण इन्हे घर मे सुने तो सुने कैसे? बडे भाई काँलेज पहुँचने वाले थे सो वे सुन सकते थे। इसी बहाने मै भी सुन लेता था। फिर जब मै सुनने लायक (?) हुआ तो यह दौर ही खत्म हो गया। कैसेट मिलने बन्द हो गये। रेडियो पर भी कम ही गजले आती थी। एक दशक बाद जब घर पर वर्ल्ड स्पेस रेडियो लगाया तो पता चला कि गजलो के लिये चौबीस घंटो का एक अलग चैनल ही है। रेडियो फलक से रुबरू हुआ और यह मेरा पसन्दीदा चैनल बन गया। इस चैंनल मे भारतीय गायको के अलावा पाकिस्तानी गायको को सुनने मिलता है। कव्वालियाँ भी सुनी जा सकती है। जो उदघोषक इसमे बोलते है उनकी उर्दू बडी ही उम्दा होती है। जाहिर है बहुत से शब्द समझ से परे होते है पर जिस अन्दाज से उन्हे प्रस्तुत किया जाता है वह मन को प्रसन्न कर देता है। लाइव रिकार्डिंग का एक बडा संग्रह है इनके पास। तलत अजीज को महफिलो मे सुनना एक अलग ही अनुभव है। आबिदा परवीन के सूफीयाना गीतो की बात निराली है।


इस चैनल मे एक बात बडी अजीब लगती है और वह है एक ही उदघोषक नाम बदल-बदल कर अलग-अलग आवाजो मे कार्यक्रम पेश करते है। जब मै लगातार आठ घंटो तक इसे सुनता हूँ तो इस नाटकीयता से ऊब जाता हूँ। क्या इतने बडे देश मे प्रस्तुतकर्ताओ की कमी है? उम्मीद करता हूँ कि इन उदघोषको के अलग-अलग रूपो को अलग-अलग तनख्वाह भी मिलती होगी। मेरे एक मित्र ने कहा कि हो सकता है उदघोषक अलग-अलग हो पर किसी एक से प्रभावित हो इसलिये सब उसी के जैसे बोलते हो। यह सम्भव है पर यदि ऐसा ही है तो भी दर्शको पर इसका अच्छा असर नही पड रहा है। वर्ल्ड स्पेस के सभी चैनल मे कमोबेश यही स्थिति लगती है। चैनल स्पीन मे जो उदघोषक रवि बन कर आता है वही फरिश्ता मे प्रेमचन्द बन जाता है। फिर वही गन्धर्व नामक चैनल पर भी आ जाता है। यदि यह कोई नया प्रयोग है तो भी ठीक नही जान पडता है।


इतने सारे रेडियो के आने से अब बीबीसी सुनना एकदम बन्द सा हो गया है। वर्ल्ड स्पेस के एक चैनल मे बीबीसी अंग्रेजी सुना जा सकता है पर महिने भर मे कभी ही इसका मौका आता है। बीबीसी हिन्दी सुनने से जो ज्ञानवर्धन होता है उसकी बात ही कुछ और है। अब लगता है कि इसके लिये अलग से समय निकालना होगा।


मै अपने हेल्थ क्लब के मैनेजर से जब पूछता हूँ कि कौन सा चैनल ज्यादा सुनाते हो लोगो को तो वह सिर पकडकर कहता है कि दिन भर एफ एम सुनते (और सुनाते) रहने के लिये हौसला चाहिये। गाडी चलाते समय सुनना अलग बात है और एक ही तरह के तेज संगीत को दिन भर सुनना अलग बात है। हेल्थ क्लब मे रेडियो मिर्ची बजता था पर अब कुछ लोग घर से सीडी ले आते है और उसे ही बजवाते है। स्थानीय एफ.एम. चैनल के एक ही तरह के विज्ञापनो से लोग अब ऊब रहे है। अभी जो तीन एम.एम. चैनल रायपुर मे आ रहे है उसमे से लोग कम विज्ञापन वाले चैनलो को सुनना पसन्द कर रहे है।


मै ऐसे चैनल की खोज मे हूँ जो दिन भर विज्ञान की बात बताये जैसे कि टीवी पर कई चैनल है। रेडियो पर यूजीसी के कार्यक्रमो को सुनने का सुझाव न दे। उन्हे सुनते ही क़क्षा का माहौल तैयार हो जाता है और रोंगटे खडे हो जाते है। बातो-बातो मे जो ज्ञान बाँटे क्या ऐसा कोई चैनल निकट भविष्य मे आयेगा भारत मे?


(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)

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3 comments:

Udan Tashtari said...

पंकज भाई

आप यहाँ भी..अच्छा संस्मरण है,. :)

Yunus Khan said...

पं‍कज भाई रेडियोनामा पर हम जैसे आलेखों की उम्‍मीद कर रहे थे वो आपके आने से पूरी हो रही है काफी हद तक । अब आपके सवाल और आपकी उम्‍मीद का जवाब सुनिए । केवल विज्ञान की बातें करने वाले रेडियो चैनल भारत में मुमकिन नहीं हैं । क्‍योंकि भारत में प्राईवेट चैनल पांच साल के इन्‍वेस्‍टमेन्‍ट और छठे साल बाद मुनाफा कमाने की उम्‍मीद पर हो हल्‍ला कर रहे हैं । बहुत जल्‍दी मैं भारत में रेडियो की दशा और दिशा पर अपना एक स्‍तंभ लेकर आ रहा हूं रेडियोनामा पर जिसके जरिए रेडियो की दुनिया की कई परतों को खोला जाएगा और धुंध हटाकर चीजों को साफ तौर पर दिखाया जाएगा । और हां उदघोषकों की कमी नहीं है भाई, उनको सही कीमत और इज्‍जत देने वालों की कमी है । हो सकता है कि कॉस्‍ट कटिंग के चक्‍कर में एक ही बंदे से कई नामों और जगह पर काम करवाया जा रहा हो ।
बाकी बातों का सिरा मैं अपने स्‍तंभ में खोलूंगा ।
ये जरूर कहूंगा कि सुंदर व्‍यापक और जरूरी श्रृंखला लिख रहे हैं आप । जारी रखिएगा ।

Manish Kumar said...

बढ़िया आलेख पंकज भाई...

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