रेडियोनामा में आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं अतुल चौरसिया का दिलचस्प आलेख जिसका ताल्लुक क्रिकेट की कमेन्ट्री और बाजार की घुसपैठ से है । अतुल चौरसिया 'तहलका' से जुड़े हुए पत्रकार हैं । और उनका अपना ब्लॉग चौराहा भी काफी दिलचस्प है । रेडियोनामा के लिए ये आलेख हमने ख़ासतौर पर उनसे प्राप्त किया है । इसे वे अपने ब्लॉग पर पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं । अतुल की इस सुंदर लेखनी पर आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत है । अगर आपको भी लगता है कि रेडियोनामा पर आपका कोई आलेख उपयोगी साबित होगा तो आपका भी स्वागत है ।
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वो भी दिन थे जब हर गली, हर मुहल्ले, हर नुक्कड़ पर रेडियो कान में सटाए लोग भारत की हार जीत का कानों देखा हाल जानने को बेताब रहते थे। बात तब की है जब अपन लोग बस क्रिकेट का 'क ख ग' सीख रहे थे। टीवी का हल्लाबोल घर के ड्राइंग रूम में नहीं हुआ था। कहीं कहीं था भी तो क्रिकेट के मैचों के सीधे प्रसारण की आशा वो भी दूरदर्शन से बेमतलब थी।
बात 90 के शुरुआती दशक की है। बाज़ारवाद की बस शुरुआत ही हुई थी। लेकिन क्रिकेट का धर्म रूपी स्वरूप काफी हद तक स्थापित हो चुका था। बात शुरू हुई थी रेडियो में क्रिकेट मैचों के कानों देखे हाल से। क्रिकेट के मैदान से हजारो मील दूर हम जैसे लोगों को जोड़ने का यही एक मात्र जरिया था। गजब लच्छेदार भाषा में लगातार चल रही कमेंट्री बस मज़े कर देती थी। उत्साह तीन चरणों में पूरा होता था पता नहीं टीवी की भाषा में बीच में कोई जेनरेशन लॉस होता था या नहीं। खिलाड़ी शॉट मारता था या विकेट गिरता था रेडियो में नेपथ्य से दर्शकों का हल्ला होता था, दूसरे चरण में कमेंटेटर की जुबान का पारा चढ़ जाता था अपनी भी समझ में आ जाता था कि कुछ स्पेशल हुआ है, तीसरे चरण में बात अपनी समझ में आती थी तो उत्साह या निराशा की दो निर्धारित ध्वनियां श्रीमुख से निकलती थी- वो मारा साले को या फिर धत तेरी…. की।
बाद के सालों में धीरे-धीरे उस गली से नाता टूटता गया। इस बीच क्रिकेट ऐसा पुष्पित-पल्लवित हुआ कि एक एक मैच का टीवी पर आंखो देखा हाल मिलने लगा। विकेट गिरने की बारीकी से लेकर चौके छक्के का संशय मिटाने में भी टीवी की भूमिका ग़ैर नज़रअंदाज हो गई। खिलाड़ियों द्वारा की जाने वाली नज़रफरेबियां भी लोगों की नज़रो में आ गई। रेडियो से नाता लगभग टूट रहा था लेकिन टीवी इस ख़ामोशी से ज़िंदगी में शामिल हुआ था कि किसी को रेडियो की कमी का अहसास नहीं हुआ।
कुछ चीज़े टीवी अपने साथ एकदम ट्रेडमार्का ले आई थी। जैसे हर ओवर के बाद तेल साबुन के विज्ञापनों की बहार, खिलाड़ी ने गेंद मारी, कैमरा गेंद के पीछे जाते जाते अचानक बाउंड्री पर लगे ‘दिलजले’ अंडर गारमेंट (अपने देश में ये भी निराला चलन है कि अंडरगारमेंट कंपनियों के नाम- रूपा, तनु, मनोरमा- स्त्रियोचित ही होते हैं) के “सब कुछ अंदर है” वाले विज्ञापन बोर्ड से चिपक जाता है। कोई समझे चौका या छक्का इससे पहले कहानी आगे बढ़ जाती है। अंदाजा स्क्रीन पर फाइनल स्कोर देख कर लगा लो। मुफ्त में इससे ज्यादा नहीं मिलता।
कमेंट्री भी निहायत ही शरीफाना आंदाज़ में होती है। पूरे ओवर के दौरान टीवी का कमेंटेटर एक दो बार अपनी चुप्पी तोड़ता है वो भी ज्ञान बांटने के लिए क्योंकि सारा स्कोर तो स्क्रीन पर दिख रहा है। वो रेडियो कमेट्री का मज़ा टीवी कमेंट्री में कहां। बाजुबानी एक मित्र के पिता जी की- वो क्रिकेट देखते तो टीवी पर हैं लेकिन कमेंट्री सुनने के लिए रेडियो पास में रखते हैं। तो कुछ इस तरह का नशा रेडियो पर मैच का हाल जानने का था।
पिछले दिनों फिर उसी गांव जाना हुआ जहां से सालों पहले अपन खुद ही अघोषित निर्वासन ले चुके हैं। भारत-ऑस्ट्रेलिया के बीच बॉक्सिंग डे का बहुचर्चित देवासुर संग्राम होना था। सोचा ठीक ही है खाली बैठे टीवी पर मैच का लुत्फ उठाएंगे। पर मैच के दिन सुबह ही सुबह अजब नज़ारा दिखा। हर जगह उसी अंदाज में रेडियो कान में सटाए लोगों का हुजूम चौराहे पर नज़र आया जैसा अपने छुटपन में हुआ करता था। पता किया तो कारण समझ आया- भैया यहां टीवी और मैच भूल जाइए 24 घंटे में चार घंटे बिजली बड़ी मुश्किल से दर्शन देती है। लिहाजा रेडियो ही एकमात्र सहारा है। सोचा ठीक ही है टीवी में हर पांच मिनट बाद तेल साबुन की पचर-पचर से तो अच्छा है रेडियो की धाराप्रवाह कमेंट्री का लुत्फ उठाया जा। कम से कम रेडियो में तो बाज़ार नहीं घुसा है। अपन भी चिपक गए रेडियो से। अपनी टीम बैटिंग कर रही थी। भावनाएं पूरे उफान पर थी। ऑस्ट्रेलिया को धूल चटाना था। थोड़ी ही देर में पता चल गया कि बाज़ार कितना शातिर है। गुपचुप ही इसने रेडियो में भी घुसपैठ कर ही ली ।
यहां हर चौके या छक्के के बाद च्यवनप्राश वाले, टेलीफोन वाले चौका-छक्का लगवाते हैं। फिर भी अपनी टीम बल्लेबाजी कर रही थी तो सोचा ठीक ही है देसी कंपनी है अपने देश के चौके छक्के पर हल्ला कर भी रही है तो क्या हुआ। इससे तो देशप्रेम की भावना ही मजबूत होगा। ये अलग बात है कि बाज़ार की बड़ी कंपनियों के लिए रेडियो का स्रोता कोई मायने नहीं रखता उनके लिए तो मोटी पॉकेट वाला टीवी का दर्शक मायने रखता है। इसलिए रेडियो पर देशी कंपनियां ही सिरफुटौव्वल कर रही हैं। पर ये क्या! ऑस्ट्रेलिया की पारी शुरू हुई तो उनके भी हर चौके पर पीछे से आवाज़ आई दर्दे डिस्को दाद-ख़ाज मल्हम चौका, रामा रामा अंडर गारमेंट छक्का।
अपन ने सोचा ये क्या है कंपनियां तो देसी हैं फिर विदेशी के शॉट पर क्यों कूद रही हैं। बेगानी शादी में दाद ख़ाज खुजली वाला दीवाना। अजब उलटबांसी है। अपनी टीम पिट रही है और घर के लोग जश्न मना रहे हैं। इस बाज़ार में क्या सब कुछ उल्टा ही चलता है? उधर ऑफिस के बगलवाला बनाता सिर्फ पराठा है और नाम “नॉट जस्ट पाराठाज़”। बाज़ार महाठगिन हम जानी- क्या रेडियो, क्या गली, क्या मोहल्ला सबको अपने खरीददार का पता मालुम है।
टीवी वालों से सीख कर देसी वालों ने रेडियो पर आजमाया है। बेटा भूल जाओ देशभक्ती-सक्ती। चौका ऑस्ट्रेलिया मारे या भारत सुनोगे तो दाद वाले मल्हम या फिर अंदर बाहर वाले बनियान का ही नाम तो बस हो गया उनका काम। ये कथा है उस मादक कॉकटेल के निर्माण की जिसे रेडियो ने क्रिकेट और बाज़ार के साथ मिलकर तैयार किया है। लोगों पर भी इसका नशा सर चढ़कर बोल रहा है क्योंकि गांव में बिजली नहीं हैं जाओगे कहां? हम चिल्ला के कौन सा धौलागिरि उखाड़ लेंगे।
5 comments:
क्रिकेट कमेंट्री के बदलते रूपों को बारीकी से रखा है आपने। चौके छक्के के साथ प्रचार आने तो बाद में शुरु हुए। पहले तो १५-१५ मिनट के स्लॉट हुआ करते थे बारी बारी से हिंदी और अंग्रेजी में।
रेडियोनामा पर अस्सी के दशक में सुशील दोशी की क्रिक्रेट कमेंट्री पर एक लेख लिखा था और उस वक्त की कमेंट्री की एक बानगी भी दी थी।
यहाँ देखें
धौलागिरि उखाड़ तो लिये;;....भाई और क्या चाह्ते हो.. :) हा हा!!
वैसे हम क्रिकेट के उतने दीवाने नहीं है। एक बार की बात बताएं - आखिरी ओवर में मैच रोमांचकारी हो गया था या तो भारत इन छह गेंदों में मैच जीत जाता या हार जाता तब सभी रेडियो और टीवी से चिपके थे। हम रेडियो सुन रहे थे - हर गेंद फेंकने से पहले जब गेंदबाज़ दौड़ते आते तो उतनी देर में रेडियो से एक विज्ञापन आ जाता। अंतिम गेंद के समय दो विज्ञापन आए। हम कमेंटरी सुनना चाहते और रेडियो विज्ञापन सुना रहा। बाज़ारवाद की यह हद रही।
अन्नपूर्णा
बाह, बाह.....
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