मेरे आस-पास बोलते रेडियो-4
- पंकज अवधिया
कुछ वर्षो पहले जब मै रायगढ के मुडागाँव पहुँचा तो देवनाथ को अकेले पाया। बडा ही उदास सा कोने मे बैठा था। घर के लोग काम पर गये थे। देवनाथ की उम्र 18 से ऊपर है पर देखने से लगता है कि बच्चा है। उसके गाँव का पानी उसके लिये अभिशाप बन गया। पानी मे फ्लोराइड की बहुत अधिक मात्रा है। यही कारण है कि गाँव का एक बडा हिस्सा शारीरिक और मानसिक विकृति से जूझ रहा है। देवनाथ के शरीर मे चौबीसो घंटे तेज दर्द होता रहता है। जब घर वाले कुछ कमाते है तो दर्द मिटाने वाले इंजेक्शन का जुगाड होता है। मै अपनी रपट के लिये देवनाथ की तस्वीरे उतारने लगा। मन था कि कुछ मदद करुँ उसकी पर समझ मे नही आया। उससे पूछा कि पूरा दिन कैसे कटता है तो उसने बताया पहले रेडियो था पर वह खराब हो गया है। आनन-फानन मे उसके लिये रेडियो की व्यवस्था की गयी। उसके चेहरे मे खुशी छा गयी। मानो सारा दर्द काफूर हो गया। ऐसा जादू चलता है रेडियो का भारत मे।
बचपन मे पार्टी देकर जन्म दिवस मनाने के बाद ऐसा लगा कि जन्मदिन के दिन कुछ भलाई वाला काम करना चाहिये। चूँकि जुलाई के जन्मदिन पडता है इसलिये मई-जून मे छुट्टियो मे नगर के ब्लाइंड स्कूल मे चला जाया करता था। दो महिने बच्चो के साथ गुजारने के बाद फिर जन्मदिन के दिन बच्चो के साथ खुशियाँ मना लेता था। जब भी मै बच्चो जोकि उम्र मे मुझसे थोडे ही छोटे होते थे, के पास जाया करता तो उन्हे रेडियो से चिपका हुआ पाता था। वे बडे गौर से रेडियो सुनते थे और उदघोषको की कमाल की नकल उतारते थे। स्कूल मे टी.वी. भी था पर रेडियो की ओर झुकाव ज्यादा था। वे देख नही पाते थे इसलिये मै पूरे समय ‘देखना’ शब्द न निकले मुँह से इस प्रयास मे रहता था पर वे बेझिझक कहते थे कि अभी रेडियो सुन रहे है और अब टी.वी. ‘देखना’ है। उनसे बात करने पर वे अक्सर कहते थे कि उनके जैसा जीवन जी रहे लोग क्यो नही उनके दर्द की बाते रेडियो मे करते है? वे मुझसे पूछते थे कि क्या कभी मैने ब्लाइंड उदघोषक को व्लाइंड बच्चो की बाते करते सुना है? मै निरुत्तर हो जाता था। यदि मै गलत नही हूँ तो ऐसा कार्यक्रम अभी भी नही आता है।
पिछले कुछ दशको से मेरी नजर ग्रामीण हाटो पर है और इनके बदलते स्वरूप पर मै लगातार लिखता रहा हूँ। जब से छत्तीसग़ढ मे एफ.एम. चैनलो की बाढ आयी है तब से हाटो मे रेडियो की दुकान विशेष आकर्षण का केन्द्र बन गयी है। सभी के लिये रेडियो है। सी.डी. का क्रेज कुछ घट सा गया है। सुबह-सुबह काम की तलाश मे जब ग्रामीण साइकिल मे सैकडो की संख्या मे शहर आते है तो रेडियो सुनते (या कहे सुनाते) आते है। यह सब बडा ही रोचक दृश्य उपस्थित करता है।
‘तो बच्चो रेडियो कितने प्रकार के होते है?’ आधुनिक गुरुजी अब यह प्रश्न कर सकते है। दो प्रकार के। एक घर मे सुनने वाला और दूसरा सब जगह सुना जाने वाला। आप भी चौक गये ना। जी, मेरा वर्ल्ड स्पेस रेडियो केवल घर मे चलता है। उसे लटकाकर मै जडी-बूटी खोजने जंगल जाने की सोचूँ तो यह सम्भव नही है। कम से कम अभी तो सम्भव नही है। वैसे यह उम्मीद की जा सकती है जल्दी ही कार रेडियो मे भी वर्ल्ड स्पेस के चैनलो को सुना जा सकेगा।
(लेखक कृषि वैज्ञानिक है और वनौषधीयो से सम्बन्धित पारम्परिक ज्ञान के दस्तावेजीकरण मे जुटे हुये है।)
5 comments:
मैंने भी बहुत सी हाट या हटिया से सब्जी की साप्ताहिक खरीददारी कर रखी है ।
घुघूती बासूती
भईया पिछले फरवरी के रविवारीय देशबंधु में डॉ.महेश परिमल जी का शेरों से संबंधित एक लेख छपा था जिसमें उन्होंने एक पेंड की कीमत लगभग 15 लाख आंकी है । कम से कम एक पेंड तो हमें अवश्य लगानी चाहिए । धन्यवाद बेहतर चिंतन के लिए ।
सुंदर श्रृंखला । रेडियो के श्रोताओं की एक नई दुनिया खुलती है इस आलेख से । मुझे कई बार नेत्रहीन श्रोताओं से फोन पर बातें करने का मौक़ा मिला है । कुछ स्वयं मिलने भी आए और अपने जज्बात बताए । पर एक दिलचस्प घटना बताता हूं जो तकरीबन दस साल पुरानी है । विविध भारती में नया नया आया था , साल भर हुआ होगा नयी नयी ख्याति थी । मोबाइल का नहीं PCO का ज़माना था । एक PCO पर फोन किया, बातें कीं और पैसे देकर चलने लगा तो वहां बैठा नेत्रहीन बंदा बोला आप यूनुस खान हैं क्या । मेरा दिल धक्क रह गया । उसकी दुनिया आवाज़ों की दुनिया थी । अपने असंख्य ग्राहकों में भी वो मुझे पहचान गया । उसने अपनी गुमठी पर बजता रेडियो दिखाया । हाथ मिलाया और अनगिनत बातें बताईं , जीवन का विरला अनुभव था वो ।
लेख के साथ यूनुस भाई की टिप्पणी दोनों बहुत ही बढ़िया है।
मैं तो देवनाथ को रेडियो मिलने पर और नेत्रहीन पीसीओ संचालक के युनुसजी को मिलने पर जो खुशी हुई होगी उसकी कल्पना कर ही रोमांचित हो रहा हूँ।
आस पास बोलते रेडियो की यह लेख श्रंखला रोचक है।धन्यवाद।
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