इस सप्ताह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है। यह समय है अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की छवि के लेखा-जोखे का। विविध भारती ने भी अपने मंथन कार्यक्रम में ऐसी ही परिचर्चा का आयोजन किया है। तो क्यों न आज इस चिट्ठे पर इसी विषय पर चर्चा की जाए ?
इसी सप्ताह प्रसारित जुबली झंकार कार्यक्रम में जैसलमेर के फ़ौजी भाइयों की धूम थी। उन्हीं परिवारों के बीच सखि-सहेली कार्यक्रम भी रचा गया और जब इसकी चर्चा मैंनें अपने पिछले चिट्ठे में की तो वहां स्पष्ट रूप से मैनें लिखा था कि कार्यक्रम में कुछ अधूरापन है। आज चर्चा करेंगे इसी अधूरेपन की।
सखि-सहेली की शुरूवात में कंपनी कंमाडर की पत्नी से बातचीत हुई। पत्नी जी ने अपने पति महोदय के कारनामे बताए कि कैसे वो कंपनी को कमांड करते है। क्या ही अच्छा होता यदि महिला खुद अपने सैन्य कारनामों की बात करती। क्या जैसलमेर में एक भी महिला सैनिक किसी भी पद पर विराजमान नहीं है ?
अगर ऐसा ही है तो कितना अच्छा लगता कि सखि-सहेली जैसे कार्यक्रम की शुरूवात ही इस बात से की जाती कि यहां एक भी सखि-सहेली इस क्षेत्र में कार्यरत नहीं है। इसीलिए यह कार्यक्रम महिला सैनिकों के बजाय उनकी पत्नियों के साथ किया जा रहा है।
बात सिर्फ़ इसी कार्यक्रम की नहीं है। जयमाला सबसे पुराना कार्यक्रम है विविध भारती का।
पचास के दशक से शुरूवात हुई इस कार्यक्रम की। साठ के दशक में चीन से सत्तर के दशक में पाकिस्तान से और कुछ ही वर्ष पहले कारगिल में भी हमारा युद्ध हुआ।
हर युद्ध में किसी न किसी स्तर पर सेना में महिलाओं की भागीदारी रही है। चाहे वे सेना में कर्नल मेजर जैसे पदों पर हो या डाक्टर हो या रेड क्रास जैसी संस्था से जुड़ कर सेना के लिए काम करती हो।
जिस उद्येश्य को लेकर जयमाला की शुरूवात हुई वहां एक सैनिक के रूप में महिलाओं की छवि ज़रूर रही होगी क्योंकि उस समय नेता जी सुभाष चन्द्र बोस के सैन्य संगठन का स्वरूप सामने ज़रूर रहा होगा। फिर उनकी दुर्गा वाहिनी को कैसे भुला दिया गया।
जिस दुर्गा वाहिनी की कैप्टन लक्ष्मी सहगल रही हो जिसकी चर्चा हाल ही में देश के सर्वोच्च पद राष्ट्रपति के लिए की गई। आज भी कई महिलाएं छोटे-बड़े विभिन्न पदों पर सेना में है फिर भी शुरू से लेकर आज तक जयमाला का संबोधन फ़ौजी भाई ही है। फ़ौजी भाई-बहन कभी नहीं रहा।
यहां तक कि विशेष जयमाला में आने वाले मेहमान भी फ़ौजी भाई ही कहते है और बातें भी भाइयों के लिए ही करते है। कभी फ़ौजी बहनों के लिए कोई बात नहीं कहीं गई।
हर रविवार को प्रसारित होने वाले जयमाला संदेश में भी फ़ौजी भाई अपने परिवार को संदेश भेजते है और परिवार वाले फ़ौजी भाइयों को। क्या किसी फ़ौजी बहन को अपने परिवार की याद नहीं आती ? क्या परिवार वाले भी अपनी बेटियों को फ़ौज में भेजने के बाद उनकी सुध नहीं लेते ? किसी भी परिवार ने आज तक इस कार्यक्रम में अपनी फ़ौजी बेटी को संदेश नहीं भेजा।
बचपन से मैं सुनती आई हूं जयमाला में रोज़ फ़रमाइश करने वाले फ़ौजी भाइयों के नाम पर कभी किसी बहन का नाम नहीं सुना। लगता है फ़ौजी बहनें अपने साथियों के पसन्द किए गए गीतों को सुनकर ही ख़ुश हो जाती है।
महिला दिवस की रौनक तो तब और बढ जाएगी जब महिला सैनिक अपने अनुभव सुनाएगी। तभी माना जाएगा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं की ताक़त को और तभी जयमाला के फूलों की सुगन्ध भी विश्व भर में फैल पाएगी।
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7 comments:
बेहद मार्मिक प्रस्तुति.
सही मुद्दा उठाया।
सही मुद्दा और सही मौक़े पर ।
पर अफ़सोस यह सिर्फ़ एक बात ही है........... अब ज़रा आपकी बात समाजशास्त्र के नज़रिये से परखें....... हर समाज और सभ्यता ये अच्छे से जानती है कि पुरुषों को मौत के मुंह में भेजा जा सकता है क्योंकि जो काम (प्रजनन) १०००० पुरुष कर सकते हैं वह सिर्फ़ एक पुरुष अन्जाम दे सकता है........ पर स्त्रि की क्षमता सीमित है वह एक ही बहुत कीमती है........ कोई भी सभ्यता पुरुषों के रह्ते महिलाओं की म्रित्यु का जोखिम नहिं ले सकती....... इसमें उस समाज के अस्तित्व का प्रश्न है............ और विश्व में लिन्ग-अनुपात घटता ही जा रहा है तब लड़कियों को फ़्रन्ट पर भेजने से समाज निशचित ही हिचकेगा ......... और वैसे भि जो अतिरिक्त पुरुष जनसन्ख्या है वो जब मेरि ज़मीन-तेरि ज़मीन जैसी बेव्कूफ़ियों पर लड़ने मरने तैयार है तो क्यो औरत अपनी जान दे इन छोटी छोटी बातों पर........ और सीधे सोचने की बात यह है कि अगर एक २२-२५ वर्शीय महिला को हथियारबन्द बच्चे घेर लें तो..... कोइ पुरुश उन्हे मौत के घाट उतारने से पहले एक बार भी नहि सोचेगा.... पर क्य स्त्री भी बच्चों को इतनी ही आसानी से मौत दे सकेगी...... आज भी युद्धबन्दियों को जो यातनायें दी जाती हैं उसे सुन कर ही उबकाई आ जाती है....... अब अगर कोइ ज़िन्दा महिला फ़ौजी दुशमन फ़ौज के हाथ लग गई तो उसके साथ होने वाले सुलूक कि कल्पना भी नहिं की जा सकती........ मरने दो आद्मियों को ज़रा ज़रा सी बातों के लिये........ लड़कियां कब से आत्मघाती होने लगीं ????
बात तो आपने अच्छी कही, लेकिन जयमाला कार्यक्रम अधिकतर जो सैनिक सुनते हैं और जिस वर्ग के लिए यह कार्यक्रम प्रसारित किया जाता है वो ९९.९ % पुरूष सैनिक ही होते हैं। इन पदों पर महिलाओं की भर्ती नहीं की जाती और शायद इसीलिए 'फौजी भाई' का संबोधन।
गुस्ताख़ी माफ जी, अनुराधा जी और यूनुस जी धन्यवाद !
अभिषेक जी, जयमाला में फ़रमाइश करने वालों में जिन पदों के सैनिकों के नाम अधिकतर बताए जाते है उनमें मेजर पद भी है। शायद आपको याद होगा कुछ महीने पहले ही एक महिला मेजर की आत्महत्या का मामला सुर्खियों में था।
क्विन जी आपके विचार हमें बहुत अच्छे लगे पर इस चिट्ठे में हमने उन महिलाओं की बात की जो फ़ौज में है।
अन्नापूर्णा जी आप की सूझ बूझ महिला फौजियोँ के प्रति आपकी सँवेद्न्शीलता जाहीर करता
अच्छा मुद्दा उठाये है -
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आपकी टिप्पणी के लिये धन्यवाद।